FB पर पाकिस्तानी महिला एजेंट के चक्कर में फंसकर देश से गद्दारी कर बैठा हिमाचली जवान

नई दिल्ली
पाकिस्तान  की खुफिया एजेंसी आईएसआई को सेना की गुप्त जानकारी देने के आरोप में हिमाचल प्रदेश एक नौजवान को यूपी एसटीएफ ने अरेस्ट किया है। कांगड़ा जिले के अंद्रेटा का रहने वाला यह युवक साल 2012 से सेना की कोर ऐंड सप्लाई डिविज़न में तैनात है। उसकी गिरफ्तारी उसके गांव अंद्रेटा से ही हुई, जहां इन दिनों वह छुट्टियां मना रहा था।प्राप्त जानकारी के अनुसार विनीत(बदला हुआ नाम) नाम का यह बीस साल का युवक फेसबुक पर पाकिस्तान की ISI  एजेंट पूनम नाम की किसी महिला के झांसे में आ गया था। उसने इसे सेना से जुड़ी कुछ जानकारी देने के एवज में लैपटॉप देने का वादा दिया था। आरोप है कि लैपटॉप के लालच में विनीत ने उस महिला को सेना से जुड़ी कुछ गुप्त जानकारियां मुहैया करवा दी हैं।

पिछले दिनों मेरठ से आसिफ नाम के एक आईएसआई एजेंट को गिरफ्तार किया गया था। उसी की निशानदेही पर  विनीत को अरेस्ट किया गया है। यूपी एसटीएफ ने हिमाचल प्रदेश पुलिस के साथ तालमेल कर के इंटेलिजेंस की खबर पर रात को उसे उसके घर से अरेस्ट कर लिया। इसके बाद यूपी एसटीएफ उसे अपने साथ ली गई है। ट्रांजिंट रिमांड के दौरान होने वाली पूछताछ के बाद ही इस मामले में और जानकारी सामने आ पाएगी। विनीत के लैपटॉप, सीडी और मोबाइल को कब्जे में लेकर जांच के लिए भेज दिया गया है।

गांव और परिवार के लोग सकते में
इन हिमाचल ने विनीत के व्यवहार को जानने के लिए गांव के कुछ लोगों से बात की।  लोगो का कहना है की  विनीत ऐसा लड़का नहीं है और वह जाने-अनजाने में किसी षड़यंत्र का शिकार हो गया है। उसने आर्मी में जाने के लिए बहुत मेहनत की थी। सुनीत के पिता भी आर्मी से सूबेदार की पोस्ट से रिटायर हुए हैं। पूरा परिवार इस घटना के बाद सदमे में है।

फेसबुक के जरिए शिकार बन रहे फौजी

फेसबुक पर महिला की फर्जी आईडी बनाकर पाकिस्तानी एजेंटों द्वारा भारतीय सेना के जवानों का फंसाने का यह पहला मामला नहीं है। कुछ दिन पहले ही हैदराबाद से एक सैनिक को पाकिस्तान को खुफिया जानकारी देने के आरोप में अरेस्ट किया गया था।

फेसबुक पर आपको ऐसी कई फर्जी प्रोफाइल्स मिलेंगी। इनसे सावधान रहें। ये अक्सर अलग-अलग सुंदर लड़कियों की तस्वीरें शेयर करती हैं।

फेसबुक पर एक महिला उसे भारतीय सेना की अहम जानकारियां देने के लिए कहती थी और बदले में अपनी नंगी तस्वीरें और विडियो भेजती थी। इसके अलावा उसे मुफ्त में लंदन की सैर करवाने का भी वादा किया गया था। इसी बात से फिसलकर वह जवान देश से गद्दारी कर बैठा था। बाद में साफ हुआ था कि वह महिला नकली थी और उसके भेजे विडियो भी किसी और के थे।

आप भी रहें सावधान
अक्सर लोग फेसबुक पर कोई अनजाना मगर खूबसूरत सा चेहरा देखकर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज देते हैं और वह झट से स्वीकार भी हो जाती है। कई बार ऐसी फ्रेंड रिक्वेस्ट्स भी आती हैं। इनमें से ज्यादातर प्रोफाइल्स फर्जी होती हैं। अक्सर युवक और पुरुष महिलाओं की ऐसी फेक प्रोफाइल्स से बातचीत करने लगते हैं। बातों ही बातों में ज्यादा करीब आने के चक्कर में वे अपनी महत्वपूर्ण जानकारियां बता देते हैं।

सोशल मीडिया पर लोगों का बिहेवियर स्टडी करने वाले एक्सपर्ट और अमृत तिवारी बताते हैं, ‘पुरुषों की इसी कमजोरी का फायदा खुफिया एजेंसियां भी उठाती हैं। वे महिलाओं की फेक प्रोफाइल्स बनाकर सेना या अन्य महत्वपूर्ण विभागों में बैठे लोगों से दोस्ती करती हैं, उनसे गर्मागर्म बातें करती हैं और अपने जाल में फंसा लेती हैं। पुरुष समझ नहीं पाते कि जिससे वे बात कर रहे हैं, वह वाकई में महिला है या नहीं और उसका इरादा क्या है। इस चक्कर में वे फंसते चले जाते हैं। ऊपर से रुपयों का लालच मिले तो उनकी सोचने समझने की क्षमता और खत्म हो जाती है।’

कैसे बचें फर्जीवाड़े से?
अमृत बताते हैं कि कॉमन सेंस इस्तेमाल करके ही इससे बचा जा सकता है। उनका कहना है कि हमारी जान-पहचान वाली महिलाएं या युवतियां अपनी  फेसबुक प्रोफाइल्स की सिक्यॉरिटी सेटिंग्स कठोर रखती हैं। वे अपनी अपनी सुरक्षा के लिए अपनी तस्वीरों को भी प्रॉटेक्ट करके रखती हैं। ऐसे में सोचना चाहिए कि क्यों कुछ लड़कियां अपनी प्रोफाइल्स धड़ाधड़ अपनी तस्वीरें शेयर करती हैं। अगर ऐसी कोई अनजान खूबसूरत लड़की झट से आपकी फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार करे या अचानक आपको भेजे, तब भी सावधान रहिए। कोई भी लड़की इस तरह का व्यवहार सोशल मीडिया पर नहीं अपनाती। ऐसी फेक प्रोफाइल्स को उनकी तस्वीरों से भी पकड़ा जा सकता है। वे अलग-अलग सुंदर लड़कियों की तस्वीरें अपनी प्रोफाइल में लगाती रहती हैं।

वॉकआउट कर-करके विधानसभा का मजाक बना दिया है विपक्ष ने

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विधानसभा में पक्ष-विपक्ष के विधायकों का एक जगह पर एकत्रित होने का एक महत्व है। साल में होने वाले 3 सेशंस में जनहित से जुड़े मुद्दों पर चर्चा की जा सकती है और प्रदेश के तरक्की से सबंधित कोई कानून पास किया जा सकता है। इसे भारतीय सविंधान और लोकतंत्र की सुंदरता ही कहा जा सकता है कि विधानसभा के अंदर विपक्ष सरकार से भी ज्यादा महत्वपूर्व और अनिवार्य हो जाता है। यानी पक्ष और विपक्ष को विधानसभा की छत बराबरी पर लाकर खड़ा कर देती है ताकि सरकार कोई भी फैसला लेने में मनमर्जी न कर सके। यह सत्ता को निरंकुश होने से रोकने और सबको साथ लेकर चलने का एक बहुत ही शानदार जरिया है।

विधानसभा सत्र एक ऐसा प्लैटफॉर्म है जहां विधायक अपने अपने क्षेत्र से जुड़ी समस्याएं उठा सकते हैं। विपक्ष के विधायकों के लिए यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां वे लंबित मामलों और योजनाओं पर जबाबदेही ले सकते हैं। सत्ता पक्ष अगर विपक्ष की बात को अनसुनी करता है तो विपक्ष वॉक आउट करके अपना विरोध दर्ज करा सकता है। विपक्ष के न होने से सरकार को भी कई फैसले लेने में दिक्कत आती है।

परन्तु बीते कुछ वर्षों से यह देख कर मन बहुत निराश हो जाता है कि शांत माने जाने वाले हिमाचल प्रदेश के विधानसभा सत्र अशांत चल रहे हैं। यह देखने में आ रहा है की नेता जनहित के मुद्दों के लिए नहीं बल्कि अपने व्यक्तिगत मुद्दों के लिए वॉकआउट को ढाल बना रहे हैं। विधानसभा में विधायकों का शोर शराबा सिर्फ अपने अपने राजनितिक आकाओं को खुश करने तक सीमित है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा के कुछ सत्र हिमाचल प्रदेश क्रिकेट असोसिएशन पर लगे आरोपों की भेंट चढ़ गए।

मामला कोर्ट में है जांच एजेंसिया अपना कार्य कर रही हैं परन्तु सत्ता पक्ष फैसला आने से पहले ही भाजपा नेताओं को दोषी बता चुका है। विपक्ष भी कम नहीं है। 2 सत्र से इस मामले पर वॉकआउट करना बहुत ही निंदनीय है। क्या विधानसभा का सत्र सिर्फ इन्ही मुद्दों के लिए है? क्या सत्तर लाख की जनसंख्या वाले प्रदेश में जनता को कोई और समस्या ही नहीं है? रोजगार , शिक्षा सुधार आदि से जुड़े मसले प्रदेश में खत्म हो गए हैं?

विधानसभा का मॉनसून सत्र सब से महत्वपूर्ण माना जाता है। क्योंकि यह सब से लंबा चलता है। जनता के चुने हुए नुमइंदों को इस सत्र में जनहित से जुड़ी बात करने के लिए लगभग एक महीने का समय मिलता है। पिछले कल मॉनसून सत्र के पहला दिन था। अभी कार्यवाही सही ढंग से शुरू भी नहीं हुई थी कि विपक्ष ने फिर वॉकआउट कर दिया। मांग क्या थी कि कांग्रेस की प्रदेश में चार लोकसभा सीटों और एक विधानसभा उपचुनाव में हार हुई है, इसलिए मुख्यमंत्री नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दें। क्या यह एक जनहित से जुड़ा मुद्दा है कि जिस पर वॉकआउट किया जा सके? किसी पार्टी की हार पर कौन नेता इस्तीफा दे या न दे, यह उस पार्टी संगठन  का निजी मामला है या विपक्ष का? अगर विपक्ष को आपत्ति है तो उसका संगठन सड़क पर जाकर विरोध करे।

विधानसभा सत्र के लिए लाखों रुपये हर दिन के खर्च होते हैं। वहां कौन से मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए यह जानकारी हर विधायक को होनी चाहिए और उसका पालन करना उसका कर्तव्य है। यही सही मायनों में नैतिकता है। क्या हिमाचल प्रदेश विधानसभा के सत्र कांग्रेस और बीजेपी नेताओं की व्यक्तिगत इच्छा पूर्ति और विरोध दर्ज करवाने के लिए हैं?

पिछले कुछ वर्षों से यही देखा गया है आज बीजेपी की यह नीति है। जब बीजेपी की सरकार थी और केंद्र में वीरभद्र सिंह के ऊपर आरोप लगे थे तब कांग्रेस की भी यही नीति थी। कांग्रेस विधायक भी अपने नेता के प्रति निष्ठा दिखाने के लिए सदन छोड़कर वॉकआउट करने चले जाते थे। इन वर्षों में ऐसा कोई भी बिल या चर्चा सदन के पटल पर नहीं आए है जिसमे जनता से सीधे कुछ जुड़ा हो और जिस पर पक्ष विपक्ष में गहमा-गहमी हुए हो। हिमाचल प्रदेश विधानसभा की गहमा गहमी सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट असोसिएशन और वीरभद्र सिंह के ऊपर लगे आरोपों तक सीमित हो गए है। क्यों न यही नेता अपने अपने क्षेत्रों की लंबित योजनाओं के लिए इस तरह उग्र हों ताकि अपने विधायक की निष्ठा देख कर क्षेत्र की जनता का सीना भी गर्व से फूल सके। परन्तु नहीं, विधानसभा सत्र की हालत और वहां के मुद्दे देखकर नहीं लगता यहां प्रदेश के चुने हुए प्रतिनिधि बैठे हैं।

सत्र और मुददे देख कर लग्गता है यह हिमाचल विधानसभा नहीं कांग्रेस और बीजेपी की कोई कंबाइंड मीटिंग है, जहां वो आपस में आरोप-आरोप खेल रहे हैं। यह सचमुच निराशाजनक है। यही सब चलता रहा तो हिमाचल प्रदेश आने वाले समय में सम्पनता से गरीबी की आवर चला जाएगा। राजनीति मात्र आपसी रंजिश और गुंडागर्दी बन कर रह जाएगी। प्रदेश की जनता को अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए  कूछ सोचना होगा। विधान सभा में बैठा विधायक सिर्फ एक चुना हुआ प्रतिनिधि होता है। वह अपने क्षेत्र की समस्या वहां उठाता है जवाबदेही लेता है। वो सिर्फ किसी पार्टी का नुमाइन्दा नहीं होता यही नैतिकता है।

लेखक: आशीष नड्डा, ईमेल: aksharmanith@gmail.com

आप भी अपने लेख  हमें भेज सकते हैं। अपनी रचना inhimachal.in@gmail.com फर भेजें।

(Disclaimer: यह रीडर द्वारा भेजा गया लेख है। इसकी सामग्री के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी है।)

‘वीरभद्र के खिलाफ पैसों की हेरा-फेरी का आरोप बनता है’

नई दिल्ली
हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। केंद्र सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट से कहा है कि वीरभद्र के खिलाफ पहली नजर में पैसों की हेरा-फेरी का केस बनता है। हाई कोर्ट ने एक हफ्ते के अंदर इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को वीरभद्र सिंह के टैक्स असेसमेंट रेकॉर्ड और दूसरे डॉक्युमेंट्स को पेश करने का आदेश दिया है।

कोर्ट ने 4 अप्रैल को सीबीआई को वीरभद्र के खिलाफ भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के आरोपों की शुरुआती जांच जल्द पूरा करने का निर्देश दिया था। कोर्ट ने मामले की जांच में देरी पर चिंता जताई थी और कहा था कि सीबीआई इतना समय नहीं ले सकती। इस पर सीबीआई ने वेंचर एनर्जी ऐंड टेक्नॉलजी प्राइवेट लिमिटेड को 14 जून, 2002 को साई कोटि पनबिजली परियोजना का काम देने में वीरभद्र पर लगे आरोपों की जांच के लिए हाई कोर्ट से विशेष आदेश जारी करने की गुजारिश की थी।

 

मामले की सुनवाई के दौरान हाई कोर्ट ने कहा, ‘हम इस मामले में सीबीआई द्वारा पेश स्टेटस रिपोर्ट पर आगे बढ़ना चाहते हैं।’ केंद्र सरकार की तरफ से अडिशनल सलिसिटर जनरल संजय जैन ने कहा कि वीरभद्र सिंह के खिलाफ मनी लॉन्डरिंग का मामला बनता है।

सीबीआई ने पहले हाई कोर्ट से कहा था कि वह कांग्रेस नेता के खिलाफ वर्ष 2002 में उनके हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के दौरान लगे भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के आरोपों की जांच कर सकती है बशर्ते की अदालत आवश्यक आदेश जारी करे। जांच एजेंसी ने अदालत में हलफनामा पेश किया था।

Use and prescription of generic medicines must be promoted in India

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In order to balance the public interest and to grant an equal access to the medical health care facilities to all, it is quite impertinent that the use and prescription of generic medicines must be promoted in India.

The concept of generic medicine is based upon the premise that no human being must be precluded from leading healthy life.  Generic medicines theoretically are same as branded ones, i.e, there active ingredient composition is same, which means that the composition of salt etc which matters is same in both and also the bio equivalence factor as well. Generic medicine is equivalent to branded medicine in terms of safety, efficacy, dosage and use. However there could be some differences between inactive ingredients like that of color shape etc which are not of much significance though.

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The drugs which are protected by patents are known as branded drugs. Patent is granted when the formulation is originally researched and innovated by someone. Pharmaceutical company which sought patent has to show that the drug so produced for some specific ailment or disease was originally innovated by it. When Patent is applied, the company is duty bound to give step by step procedure of formulation. The application must incorporate in itself all the salts, chemicals, combinations etc which resulted in the development of such drug. The company is allowed to sell off its product into the market with the price considering the efforts put by it into research, innovation, development and manufacturing. In other words the company can quote the price in order to award to itself for the research and innovation which cannot be calculated, thus resulting in higher prices of the drugs.

Generic Medicines are those which are copy of branded medicines. Intellectual property rights act and patent act of India gives an authority to the government to transfer the idea of technology, procedure etc to other companies allowing them to manufacture the same medicine as an original one. This happens in two cases mainly:

1. When the original patent is expired.

2. When such exigency arises that it becomes important in the interest of general public welfare to let that technology or procedure be made available to public domain. This is done by way of compulsory licensing.

The exclusive rights of manufacturing the drugs to the exclusion of others cease to exist and therefore other companies after applying to the controller general patents can get the procedure of manufacturing such drugs. Now only cost that would incur in this case will be that of developing and distributing. This results in the depreciation of cost price without compromising with the quality of the drug. Generic Drugs cannot straight way be allowed to be marketed. Unless the drug quality control authority do not approve of such drugs, they cannot be allowed to be sold off to public. They have to undergo stringent test to ensure a quality product reaches to the general public. Generic Drugs are therefore are cheaper and effective alternative to branded ones which can comparatively be easily afforded by the public.

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India is a largest producer of Generic Drugs which are exported to other nations as well, like that of USA, Europe and many African countries. But irony is that the concept has not been well accepted in our own country. Reasons are manifold which include prejudiced approach of doctors prescribing those, Major MNCs misleading the public and making them to believe that Generic are not effective and The procedure as to keep the check upon the pharma companies producing generic medicines.

The major responsibility lies upon the doctor who prescribes the medicines.  It is very much important that they should educate themselves as to the benefits of the generic of medicines. Let not the health care be made a luxury to few. There are allegations of such drugs being substandard which I believe are quite misplaced.  Every branded drug after an expiry of patent is copied not by one single pharma company but many. On an Average there are around 20 to 40 generic versions of such medicine and not all are ineffective, though in some cases as in cardiovascular diseases, hypertension, diabetes  it is advised that not to switch to other medicines than which has already been prescribed. It is true for both branded and generics. Had Generic medicines been substandard in quality, the countries like USA would not have established authorities like that of FDA to promote same. In India the problem is that we do not have a proper quality control mechanism and in absence of such mechanism it is difficult to bring in to the knowledge of the people the benefits of Generic medicines.

Second thing which has been complained of is that some Generic Medicines are expensive than their branded counterparts. It is true and a detailed report has also been made by some organizations like that of Forbes with regard to this issue. It is more of like a conspiracy made by MNCs manufacturing branded medicines. It has been noticed that initially such branded medicines are actually expensive while they are under the patent protection and in that period they earn enough profits out of the sale of those branded meds but as soon as the patent is expired and generic versions are made then in order to beat the competition they device the strategy of minimum profit and no loss. This is passed on as a wrong message to the public making them believe that the generics are expensive, oblivious to the fact that the same medicine was sold off by the same company, triples the price on which they are selling it now.

The dream of enshrining a right to health shall remain unrealized if no proper steps are being taken to let public have an access to cheaper and effective medicines. The details of this concept has also been raised and formulated by Sh. Shanta Kumar while being the chairman of the committee for the promotion of generic medicines and he till today is aggressively pursuing the issue with the government to promote same and is trying to come up with ideas as to plug in the loopholes and improving the grey areas of this policy. Doctors should refrain themselves from taking commissions in order to promote branded medicines and MCI should direct them to prescribe only generic medicines and where if they are not available then branded.  A commitment is necessary to let not a man die for the want of medicine.  Millions of people do not have an access to health care just for this one single reason which is that they cannot afford the cost of medicines. Rather criticizing the concept we should raise voice to improve the mechanism to ensure the quality of generic medicines.  Drug control authority of India Should be made in line with that Of FDA in US.

Author: Pranav Ghabroo,
Social Activist.

जनता के काम भूलकर लाल बत्ती के पीछे पड़े है नए विधायक

शिमला।।
हिमाचल की पहचान यूं तो सादगी पसंद प्रदेश की है और साथ ही यहां की राजनीति को पड़ोसी राज्यों के मुकाबले दिखावे से दूर माना जाता है। मगर प्रदेश के कुछ विधायक ऐसे भी हैं जो चाहते हैं कि उन्हें गाड़ी पर लाल बत्ती लगाने का अधिकार दिया जाए।

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सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में एक अहम फैसला सुनाते हुए विधायकों की गाड़ी पर लगी लाल बत्ती को अवैध करार दिया था। इसके बाद हिमाचल प्रदेश सरकार ने अधिसूचना जारी करके सभी विधायकों से गाड़ी पर लाल बत्ती लगाने का अधिकार छीन लिया था।

मगर हिमाचल प्रदेश के ज्यादातर विधायक लाल बत्ती को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना रहे हैं। उन्हें लगता है कि लाल बत्ती के बगैर उनकी कोई पहचान या अहमियत नहीं है।  इसी सिलसिले में ज्लावामुखी के विधायक संजय रतन के नेतृत्व में विधायकों का एक प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री से मिला और लाल बत्ती लगाने की इजाजत मांगी।

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इनकी मांग है कि विधायकों को लाल बत्ती लगाने का अधिकार दिलाने के लिए सरकार मोटर वाहन अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव पेश करे। सूत्रों के मुताबिक इन विधायकों ने तो यहां तक कह दिया कि अगर हमें लाल बत्ती नहीं मिल सकती तो चीफ सेक्रेटरी और पुलिस के सीनियर ऑफिसर्स की गाड़ियों से भी बत्ती को हटाया जाए।

ये सभी वे विधायक हैं, जो पहली बार चुनकर विधानसभा पहुंचे हैं। आमतौर पर विधानसभा में एक दूसरे के खिलाफ लड़ने वाले पक्ष-विपक्ष के ये विधायक लाल बत्ती को लेकर एकजुट हैं। इनका कहना है कि हम दिखावे के लिए नहीं, बल्कि विधायक पद की प्रतिष्ठा के लिए यह मांग कर रहे हैं।

यही आलम रहा तो आने वाले दिनों में प्रदेश के ये विधायक अपने साथ सिक्यॉरिटी के नाम पर  बंदूकधारी बॉडीगार्ड रखने से भी गुरेज नहीं करेंगे। गौरतलब है कि पड़ोसी राज्यों के विधायक किसी तरह का खतरा न होने के बावजूद गनमैन लेकर चलते हैं ताकि प्रभाव जमा सकें।

अगले चुनावों में धूमल नहीं, नड्डा करेंगे बीजेपी का नेतृत्व!

नई दिल्ली।।
राज्यों के लिए तय किए गए नए फॉर्म्युले के तहत हिमाचल प्रदेश बीजेपी में बड़ा फेरबदल हो सकता है। ‘बुजुर्ग’ प्रेम कुमार धूमल की जगह जगत प्रकाश नड्डा 2017 में होने वाले विधानसभा के अगले चुनावों में प्रदेश बीजेपी का नेतृत्व कर सकते हैं।

लोकसभा चुनाव में मोदी, शाह और राजनाथ सिंह की जुगलबंदी के फॉर्म्युले पर लड़ी बीजेपी ने इतिहास बना दिया। अब पार्टी चाहती है कि संगठन में जो नया उत्साह और नई जान आई है, उसे बरकरार रखा जाए। ‘इन हिमाचल’ को बीजेपी सूत्रों से जानकारी मिली है कि पार्टी के थिंक टैंक एक ऐसा फॉर्म्युला लेकर आए हैं, जिसकी मदद से पूरे देश में संगठन को मजबूत करने की मुहिम चलाई जाएगी।

नड्डा के बढ़ते कद से धूमल चिंतित थे। पार्टी में कोई विवाद न हो, इसलिए नड्डा को पार्टी ने केंद्र की राजनीति में बुला लिया था

दरअसल टीम मोदी ने एनालिसिस करके निचोड़ निकाला है कि बीजेपी की अभूतपूर्व जीत में युवा वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। नई पीढ़ी की राजनीति में बनी इस दिलचस्पी को बीजेपी भुनाना चाहती है। वह इस कोशिश में है कि जिस फॉर्म्यूले की मदद से नरेंद्र मोदी ने लगातार तीन बार गुजरात में सरकार बनाई थी, उसी फॉर्म्यूले को दूसरे राज्यों में भी लागू किया जाए।

जानिए, क्या है यह गुजरात फॉर्म्यूला:

1. राज्य के चुनावों में बीजेपी का नेता या सीएम कैंडिडेट उसी को घोषित किया जाएगा, जिसकी उम्र 70 साल से कम होगी।

2. 70 साल से ऊपर के नेताओं के बजाय युवा नेताओं को टिकट देते वक्त प्राथमिकता दी जाएगी।

3. 70 साल की उम्र पार कर चुके नेताओं को राज्य में सलाहकार की भूमिका दी जाएगी। इस कैटिगरी में आने वाले पूर्व मुख्यमंत्रियों या तो राज्यपाल बनाया जाएगा या राज्यसभा भेजा जाएगा।

4. प्रदेश में पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी 60 साल के करीब के अनुभवी नेता को दी जाएगी।

5. आरोपों से घिरे नेता के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ा जाएगा। इससे चुनाव के समय संगठन का मनोबल टूटता है और जनता में मेसेज भी गलत जाता है।

6. करप्शन करने वाले, खराब छवि वाले या अन्य किसी मामले में घिरे विधायक का टिकट काट दिया जाएगा।

7. किसी भी विवादास्पद शख्स को टिकट नहीं दिया जाएगा।

इन 7 सूत्रों में उन विधायकों और मुख्यमंत्रियों को छूट मिलेगी, जिनकी छवि अच्छी है और जो लगातार जीतते आ रहे हैं।

अब इस फॉर्म्युले के हिसाब से हिमाचल प्रदेश की राजनीति की बात करें तो पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल 2017 तक 74 साल के हो जाएंगे। दूसरी बात यह है कि वह प्रदेश में बीजेपी को रिपीट करवाने में कभी कामयाब नहीं रहे।  पिछला विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव, बीजेपी संगठन की पूरी ताकत धूमल परिवार पर लगे आरोपों का बचाव करने में ही चली गई।

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ऊपर के फॉर्म्युले को लागू किया गया तो धूमल का हटना तय है। उनके बाद हिमाचल में बीजेपी के बड़े और स्थापित नेता की बात की जाए तो वह जे.पी. नड्डा हैं। ऐसे में 2017 में प्रदेश में पार्टी की कमान का नड्डा को सौंपा जाना लगभग तय लग रहा है।  पार्टी ऐसा करना इसलिए भी जरूरी समझती है, ताकि प्रदेश बीजेपी को एक यंग नेता मिले और पार्टी को कांग्रेस की तरह नेतृत्व संकट का सामना न करना पड़े। गौरतलब है कि प्रदेश में कांग्रेस में वीरभद्र के बाद दूसरी कतार के नेता आपस में उलझे पड़े हैं। कांग्रेस को डर है कि वीरभद्र के बाद कहीं पार्टी बिखर न जाए।

लोकसभा चुनाव के दौरान नड्डा की नेतृत्व और संगठन क्षमता से प्रभावित नरेंद्र मोदी उन्हें महत्वपूर्ण भूमिका देना चाहते थे। उन्हें मंत्री पद की पेशकश भी की गईx थी, लेकिन नड्डा ने कहा कि वह संगठन में रहना पसंद करेंगे। गौरतलब है कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद के लिए भी नड्डा के नाम की चर्चा थी, मगर आखिरी पलों में मोदी के करीबी अमित शाह को यह पद मिला। ऐसे में मोदी इस बात की क्षतिपूर्ति के लिए धूमल के बाद नड्डा को आगे बढ़ाना पसंद करेंगे।

बीजेपी के फॉर्म्युले के हिसाब से अगर धूमल की जगह नड्डा लेते हैं, तो हिमाचल विधानसभा चुनाव से पहले प्रफेसर धूमल को राज्यपाल बनाया जा सकता है। वहीं अनुराग ठाकुर को केंद्र में मंत्री पद दिए जाने की बात तय लग रही है। मोदी नहीं चाहते कि अनुराग हिमाचल की राजनीति में जाएं और पार्टी पर परिवारवाद का आरोप लगे। इसके बजाय वह अनुराग को राष्ट्रीय राजनीति के भविष्य के रूप में तैयार करना चाहेंगे। इसके लिए अनुराग को केंद्र में मंत्री बनाया जाना तय लग रहा है।

वीरभद्र के करीबी मंत्री सुधीर शर्मा और जी.एस. बाली में बहस

शिमला।।
हिमाचल के मुख्यमंत्री पर ऊपर और नीचे के हिमाचल (अपर ऐंड लोअर) से भेदभाव के आरोप हमेशा से लगते रहे हैं। देखा जाए तो इस बार लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से इन आरोपों में दम भी नजर आने लगा है। संकेत मिल रहे हैं कि प्रदेश में अपर और लोअर हिमाचल की राजनीति एक बार  फिर शुरू हो गई है।‘इन हिमाचल’ को फेसबुक पर लाइक करेंआम चुनाव के नतीजे आने के बाद से मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह अपने कुछ खास सिपहसलारों की मंडली तक सीमित रग गए हैं। वह अपनी ही सरकार के मंत्रियों और कुछ विधयकों को तवज्जो नहीं दे रहे हैं। खास तौर पर निचले  हिमाचल के नेताओं पर मुख्यमंत्री की टेढ़ी नजर है। अपनी ही सरकार में अनदेखी से नाराज  सीपीएस  राजेश धर्माणी  2 बार इस्तीफा दे चुके हैं। इसके साथ ही कांग्रेस के तेज़-तर्रार नेता  जी.एस.बाली ने एक बार फिर मुख्यमंत्री  के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।

सीएम के सामने बाली और शर्मा में तीखी बहस हुई- सूत्र।

2-3 दिन पहले मुख्यमंत्री के सामने ही शहरी विकास मंत्री सुधीर शर्मा और बाली के बीच तीखी बहस हुई। इसके तुरंत बाद बाली सीएम के कैबिन से कुछ बड़बड़ाते हुए बाहर निकले। इसके तुरंत बाद उन्होंने  गाड़ियां भी वापिस कर दी हैं और सीएम से 3 महीने की छुट्टी मांगी है।  खबर है कि बाली किसी प्रॉजेक्ट पर काम करना चाहते हैं, लेकिन उसके लिए सुधीर शर्मा के मंत्रालय से अनुमति जरूरी है। उस प्रॉजेक्ट की फाइल सुधीर शर्मा के मंत्रालय में ही लटकी हुई है। गौरतलब है कि सुधीर शर्मा को इस वक्त मुख्यमंत्री का सबसे करीबी समझा जाता है। माना जा रहा है कि सीएम की शह पर ही शर्मा ने वह फाइल लटकाई थी।

‘इन हिमाचल’ को ट्विटर पर फॉलो करें

निचले हिमाचल के सारे विकास कार्य ठप पड़े हैं। कई योजनाओं के शिलान्यास और उद्घाटन मुख्यमंत्री का रास्ता देख  हैं, लेकिन वब 16 मई के बाद से आज तक लोअर हिमाचल में किसी कार्यक्रम में नहीं दिखे हैं। इससे ज़ाहिर होता है कि अपने परिवार को मजबूत करने के लिए ही वीरभद्र सिंह अपने परम्परागत गढ़ ‘ऊपरी हिमाचल’ में ज्यादा सक्रिय हो गए हैं।  इस कारण से ‘लोअर हिमाचल’ को नुकसान झेलना पड़ रहा है, जो कहीं से भी प्रदेश के हित में नहीं है।

जनता के बीच राजेश धर्माणी और जी.एस. बाली तेज़-तर्रार नेता की छवि रखते हैं  और समय-समय विधानसभा  में  जनहित की आवाज मुखर करते रहे हैं। बाली तो भविष्य के मुख्यमंत्री भी बताए जा रहे हैं। हिमाचल की राजनीति की समझ रखने वाले कुछ जानकार बताते हैं कि अभी कांग्रेस के मंत्रिमंडल में सिर्फ बाली इकलौते ऐसे मंत्री हैं जो कुछ न कुछ हटकर कदम उठाते रहे हैं। बाकी मंत्री सिर्फ सीएम की रबर स्टांप हैं या पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं।

अब मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने ट्विटर पर किया फर्जीवाड़ा?

स्पेशल डेस्क।।
हिमाचल प्रदेश के निवासी इस बात पर गर्व करते हैं कि उनका प्रदेश बेहद सादगी पसंद है और यहां के लोग दिखावे यानी कि शो ऑफ में यकीन नहीं रखते। मगर हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कुछ ऐसा कर दिया है, जिससे हिमाचल प्रदेश के युवा शर्म महसूस कर रहे हैं। मुख्यमंत्री ने अपने ऑफिशल ट्विटर अकाउंट पर फर्जीवाड़ा किया है।ट्विटर अकाउंट पर देखें तो आपको 11.7K यानी 11 हजार 700 यूजर मिलेंगे। मगर आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इन यूजर्स में से सिर्फ कुछ यूजर ही असली हैं और हिमाचल के यूजर्स की संख्या शायद दहाई में हो। जी हां, हिमाचल के मुख्यमंत्री को फॉलो कर रहे लोगों में 10 हजार से ज्यादा यूजर फर्जी हैं। इनमें से कुछ हैंडल रूस के लोगों के हैं तो कुछ अरब देशों के लोगों के। अब भला रूस के या अरब के लोग हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री को क्यों फॉलो करेंगे?इन हिमाचल’ को फेसबुक पर लाइक करें

दरअसल ये सभी अकाउंट फर्जी हैं। आप इनकी प्रोफाइल पर जाएंगे तो देखेंगे कि हर एक ने कई सारे लोगों को फॉलो किया है और इन्हें फॉलो करने वाले एक-दो ही लोग हैं। यही नहीं, इन लोगों ने कभी ट्वीट तक नहीं किया या फिर कई महीने पहले किया है। इससे साबित हो जाता है कि मुख्यमंत्री ने अपने फॉलोअर्स की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के लिए इन सभी नकली यूजर्स को खरीदा है।

वीरभद्र हिमाचल के सीएम हैं या रूस के किसी प्रांत के?

गौरतलब है कि आजकल ऐसी कई एजेंसियां हैं, जिनसे फेसबुक पर लाइक्स और ट्विटर पर फॉलोअर्स खरीदे जा सकते हैं। इन एजेंसियों कई सारी फेक प्रोफाइल्स और हैंडल बनाए होते  हैं। ऐसे में जो कस्टमर इनकी सर्विस लेता है, वे उनके फेसबुक पेज या ट्विटर हैंडल को लाइक या फॉलो करवा देते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि कुछ एजेंसियां 4 रुपये प्रति लाइक/फॉलोअर से लेकर 10 रुपये प्रति लाइक/फॉलोअर की दर से चार्ज करती है। मान लिया जाए कि वीरभद्र सिंह ने 5 रुपये प्रति फॉलोअर की दर से फर्जी फॉलोअर खरीदे हैं, तो इस किसाब से उन्होंने 50 हजार रुपये से ज्यादा की रकम चुकाई है।

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इससे पहले राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर भी फेसबुक लाइक्स खरीदने के आरोप लग चुके हैं। उनके फेसबुक पेज पर 80 फीसदी से ज्यादा लोग तुर्की के थे। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उन्होंने और कई नेताओं ने अपने प्रशंसकों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के लिए ऐसी ही फर्जी एजेंसियों का सहारा लिया था।

अहम सवाल उठता है कि मुख्यमंत्री को ऐसा करने की जरूरत  क्यों पढ़ी? उन्हें दिखावा करने में फायदा है या ट्विटर के जरिए लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में? शायद वीरभद्र सिंह जब किसी अन्य प्रदेश के मुख्यमंत्री से तुलना करते होंगे, तो देखते होंगे कि उनके फॉलोअर तो कम हैं। इसी मौके को भुनाने के लिए किसी एजेंसी ने उनके सामने प्रस्ताव रखा होगा और उन्होंने झट से हां कह दी होगी।

जो भी हो, उनके इस कदम से युवा यूजर शर्मिंदा महसूस कर रहे हैं। दिल्ली में आईटी कंपनी में जॉब करने वाले सोमेश पटियाल ने ‘इन हिमाचल’ को बताया कि मुख्यमंत्री को ऐसा नहीं करना चाहिए था। वहीं बैंकिंग सेक्टर में काम कर रहे अरविंद शर्मा ने  कहा कि वीरभद्र सिंह का यह कदम हैरान नहीं करता। उन्होंने कहा कि पहले से मुख्यमंत्री पर धांधलियों के कई आरोप लगते रहे हैं, ऐसे में वह ऑनलाइन धांधली कर दें तो यह बात नई नहीं है। इस बीच मार्केटिंग एक्सपर्ट मुकेश बरागटा ने मुख्यमंत्री का बचाव किया है। उन्होंने कहा कि राजा साहब पर ऐसा आरोप लगाना सही नहीं है। हो सकता है कि ट्विटर से कोई गलती हुई हो।

अभी तक सीएम ने हमारे सवाल का जवाब नहीं दिया है

इस बारे में मुख्यमंत्री से फोन बात करने की कोशिश की गई, मगर जवाब मिला कि वह किसी महत्वपूर्ण कार्य में बिजी हैं। हमने ट्विटर पर भी उनसे सवाल पूछा है, मगर उनकी प्रतिक्रिया नहीं मिल पाई है। अगर सीएम की तरफ से कोई जवाब और स्पष्टीकरण आता है, तो पत्रकारिता के सिद्धांतों का सम्मान करते हुए ‘इन हिमाचल’ उसे जरूर पब्लिश करेगा।

अगर आप  यह फर्जीवाड़ा खुद देखना चाहते हैं तो https://twitter.com/virbhadrasingh/followers पर क्लिक करें और 4-5 बार स्क्रॉल डाउन करने के बाद आपको रूस के यूजर दिखने शुरू हो जाएंगे।

5% रिजल्ट: पहले कहां सोई हुई थी यह सरकार?

स्पेशल डेस्क, शिमला।।
इंजिनियरिंग के ग्रैजुएट कोर्स में हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी के हालिया रिजल्ट को अगर देश भर में सबसे घटिया रिजल्ट कहा जाए तो गलत नहीं होगा। यह हाल उस प्रदेश का है, जो शिक्षा और साक्षरता के मामले में देश के टॉप राज्यों में से एक है। फिर अचानक इस प्रदेश के छात्रों को अचानक क्या हो गया कि सिर्फ 5% ही पास हो पाए?बी.टेक (सिविल) के सातवें सेमेस्टर के इस अजीब रिजल्ट पर आत्ममंथन करने की जरूरत किसे है, यूनिवर्सिटी की कार्यप्रणाली के लिए जवाबदेह सरकार के लिए या फिर पास न हो पाने वाले छात्रों के लिए? अहम सवाल यह है कि अचानक इस बार ही क्यों ऐसा हुआ? पहले भी यही यूनिवर्सिटी थी और छात्र भी यही थी। मगर इतना खराब रिजल्ट तो कभी नहीं आया।

‘इन हिमाचल’ ने इस बार कुछ छात्रों से बात की जो अपने-अपने कालेज के टॉपर रहे हैं।  इस बार उनका परिणाम भी उम्मीद से विपरीत है। इनका कहना था कि इसमें जरूर यूनिवर्सिटी प्रबंधन का  कोई रोल है। इनका यहां तक दावा है कि अगर पेपर किसी बाहर की फैकल्टी से चेक करवाए जाएं तो दूध का दूध, पानी का पानी हो  जाएगा। छात्रों की इस बात से प्रदेश यूनिवर्सिटी की कार्यप्रणली और सरकार की भूमिका भी संदेह के घेरे में आती है। खराब रिजल्ट का दोष सिर्फ छात्रों या कॉलेज प्रबंधन से सिर नहीं मढ़ा जा सकता।  आखिर आज से पहले भी यही छात्र थे, जिनका रिजल्ट अच्छा आता था।

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यह तो डिग्री कोर्सेज की बात थी। इन दिनों हिमाचल प्रदेश में तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का काम जोरों पर चला हुआ है।   इसी कड़ी में प्रदेश सरकार के  ‘सबसे ऐक्टिव मंत्री’  ने  ऐतिहासिक फैसला लेते हुए 16 निजी पॉलिटेक्निक कॉलेजों  की मान्यता रद्द कर दी है।  मान्यता रद्द करने का कारण  ख़राब  रिजल्ट और  संस्थानों में मूलभूत सुविधाएं नहीं होना बताया जा रहा है।   हिमाचल में तकनीकी शिक्षा के इस हाल और सरकार के फैसले से संदेह की बू आ रही है।

पहले क्या सरकार सोई हुई थी?
आज से पहले गुणवत्ता सुधारने के लिए सरकार  ने क्या किया? क्या इन कॉलेजों को कभी  वॉर्निंग दी गई थी?  क्या कभी यह चेक किया गया था कि वहां मूलभूत सुविधाएं या फैकल्टी हैं या नहीं? यकायक लिया गया यह फैसला संदेह के घेरे में तो रहेगा ही।  टेक्निकल यूनिवर्सिटी के इस रिजल्ट के कारण पूरे देश में हिमाचल की साख गिरी है। भविष्य में अभिभावक अपने बच्चों को हिमाचल प्रदेश  टेक्निकल यूनिवर्सिटी में भेजने से पहले सौ बार सोचेंगे।  बाहरी क्षेत्रों की तरफ पलायन बढ़ेगा।  यह सच है की निजी कॉलेज अपनी मनमानी  करते हैं। प्रदेश के कई इंजिनियरिंग कॉलेजों की फैकल्टी से हमने बात की तो पता चला कि लैब तो सिर्फ कागजों में चल रही है।  इन्हें यूजीसी नॉर्म्स के अनुसार वेतन तक नहीं दिया जाता, बस सिग्नेचर करवा लिए जाते हैं।  मगर सवाल यह उठता है कि सिर्फ रिजल्ट आने पर सरकार  को वस्तुस्तिथि का पता चला ? इससे पहले आज तक यूनिवर्सिटी कहां सोई थी ? वह वार्षिक इंस्पेक्शन के दौरान क्या  लैब्स देखकर आते थे?

पढ़ें: हिमाचल के तकनीकी शिक्षा मंत्री के नाम एक खुला पत्र

कॉलेजों की हालत वाकई खराब है
नाम न छापने की शर्त पर एक इंजिनियरिंग कॉलेज के फैकल्टी मेंबर ने बताया की  उनके कैंपस में एक  पॉलिटेक्निक है और एक डिग्री कॉलेज।  पॉलिटेक्निक की ऐफिलिएशन  टेक्निकल  बोर्ड से होती है जबकि  इंजिनियरिंग कॉलेज की यूनिवर्सिटी से।  जब भी वार्षिक इंस्पेक्शन लैब आदि देखने के लिए यूनिवर्सिटी की टीम को आना  तो उस के आने से पहले पॉलिटेक्निक की लैब्स के सारे इंस्ट्रूमेंट्स  डिग्री कॉलेज में पहुंचा दिए जाते हैं और जब पॉलिटेक्निक में इंस्पेक्शन की टीम आये तो यही इंस्ट्रूमेंट उठाकर वहां की लैब में सजा दिए जाते हैं।  इस तरह से प्रदेश में इंजिनियर बनाये जा रहे है।

मगर सरकार भी कम दोषी नहीं
यूनिवर्सिटी या टेक्निकल बोर्ड का काम सिर्फ साल में एक बार के औपचारिक निरिक्षण का रह गया है।  क्या औचक निरिक्षण नहीं किया  जा  सकता था?   क्या स्टूडेंट के लिए कोई हेल्पलाइन नहीं बनाई जा सकती  जो उनके नाम का खुलासा किये वगैर उनकी शिकायत का संज्ञान ले और कॉलेज प्रशासन  से जबाबदेही ले? अब ख़राब रिजल्ट आने पर यह लकीर पीटने वाली बात है।  इसमें  हिमाचल प्रदेश सरकार  ही गलती है और वो भी इसके लिए जबाबदेह है।

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पड़ोसी राज्यों के शिक्षा माफिया का हाथ?
कहीं न कहीं एक दम से इसी बार आए खराब रिजल्ट के लिए और निजी कॉलेजों  की मान्यता रद्द करने के पीछे बाहरी राज्यों के शिक्षा माफिया का हाथ भी माना जा रहा है। हिमाचल में 6-7 साल पहले इतने कॉलेज नहीं थे, जिस कारण छात्र शिक्षा के लिए पंजाब आदि राज्यों में जाया करते थे। वहां के कॉलेज हिमाचली छात्रों से गुलजार रहा करते थे और उनका धंधा खूब जोरों पर चलता था  बाकायदा उनके एजेंट  प्रदेश से छात्रों को ऐडमिशन दिलवाकर कमिशन खाया करते थे। मगर जैसे-जैसे हिमाचल में कॉलेज बढ़े,  उनका धंदा चौपट हो गया। पंजाब के कई कॉलेज आज बंद होने की कगार पर हैं।

कहीं हिमाचल यूनिवर्सिटी की साख गिराने के लिए इन्होंने ही यह हथकंडा तो नहीं अपनाया? कहीं  ऐसा तो नहीं कि सरकार में बैठे कुछ लोग उनके इशारों पर एकदम सक्रिय हो गए हैं और उनके फायदे के लिए ताबड़तोड़ फैसले ले रहे हैं।  क्योंकि गुणवत्ता एक रात में नहीं सुधर जाती। इसके लिए कॉलेज प्रबंधन, छात्रों, यूनिवर्सिटी और सरकार का मिला-जुला सहयोग जरुरी है। लेकिन सरकार, यूनिवर्सिटी और कॉलेज प्रबंधन की भूमिका यहां संदेह के घेरे में है। इसका खामियाजा हिमाचल की नई पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है जो  किसी साज़िश का शिकार हो रही है।

शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए कड़े कदम बेशक उठाए जाने चाहिए, लेकिन प्लैनिंग के साथ। ऐसा नहीं कि जब अपनी नींद खुले तो बिना सोचे-समझे तबाही मचा दी जाए। हिमाचल प्रदेश का भविष्य प्रदेश के अंदर भी शिक्षा माफिया के लालच का शिकार हो रहा है और प्रदेश के बाहर भी। सरकार अगर इन शिक्षा माफियाओं पर नकेल कसने के बजाय प्रोत्साहित करने वाले फैसले लेगी तो यह चिंता का विषय है। अफसोस की बात है कि अभी तक शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए सरकार ने एक भी समझदारी भरा और प्रभावी कदम नहीं उठाया है।

हिमाचल के तकनीकी शिक्षा मंत्री के नाम एक IITian का खुला पत्र

‘इन हिमाचल’ को अपने फेसबुक पेज पर एक पाठक और IIT दिल्ली में रिसर्च स्कॉलर आशीष नड्डा की तरफ से एक मेसेज मिला है। इस मेसेज में उन्होंने हिमाचल प्रदेश सरकार के उस फैसले से अहमति जताई है, जिसके तहत इंजिनियरिंग करने की इच्छा रखने वाले छात्रों को पॉलिटेक्निक या इंजिनियरिंग के लिए होने वाले नैशनल लेवल टेस्ट्स देना अनिवार्य कर दिया गया है। उन्होंने प्रदेश के तकनीकी शिक्षा मंत्री जी.एस.बाली को एक पत्र लिखा है, जिसे हम यथावत प्रकाशित कर रहे हैं।- संपादक

श्री जी.एस.बाली,
तकनीकी शिक्षा एवं परिवहन मंत्री,
हिमाचल प्रदेश सरकार।

आदरणीय बाली जी,
मैं आशीष नड्डा आपके राज्य का एक नागरिक हूं और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली(IIT Delhi )  से पीएचडी कर रहा हूं। सबसे पहले तो मैं आपको इस बात के लिए बधाई देना चाहता हूं कि आप हिमाचल सरकार के इकलौते ऐसे मंत्री हैं, जो पारंपरिक ढर्रे से हटकर प्रदेश की तरक्की के लिए कुछ न कुछ दूरदर्शी फैसले लेते रहते हैं। मैंने यह देखा है कि आप नई और व्यावहारिक सोच लेकर चलते हैं।

श्रीमान जी! इस पत्र के माध्यम से मैं आपका ध्यान आपकी सरकार और मंत्रालय के ऐसे फैसले की तरफ लाना चाहता हूं, जिसमें मुझे नीतिगत स्तर पर अमल लाने में कुछ त्रुटियां नजर आ रही हैं। इस फैसला का नुकसान आम आदमी और हिमाचल प्रदेश के छात्रों को ही उठाना पड़ रहा है। लेकिन उस बात पर आने से पहले मैं यह साफ़ कर देना चाहता हूं कि मैं किसी राजनीतिक या शैक्षणिक संस्था से नहीं जुड़ा हूं। इस मामले का मैंने अपने विवेक और अनुभव से स्वतः संज्ञान लिया है।

मंत्री जी! कैबिनेट की मीटिंग के एक फैसले के तहत सरकार ने यह निर्णय लिया है कि जो छात्र पॉलिटेक्निक की परीक्षा या इंजिनियरिंग की राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली परीक्षा में नहीं बैठेंगे, उन्हें बाद में प्रदेश के किसी भी संस्थान में दाखिला नहीं दिया जाएगा। या यूं कहा जाए कि इन परीक्षाओं में बैठना अनिवार्य कर दिया गया है, भले ही छात्र को बाद में शून्य अंक ही क्यों न आएं। नीतिगत रूप से आपका यह निर्णय सही हो सकता है, लेकिन प्रदेश की भौगोलिक और ग्रामीण परिस्थितियों को देखते हुए इस फैसले के दुष्परिणामों से आपको अवगत कराना चाहता हूं।

‘नंबर मायने न रखते हों, ऐसे टेस्ट का क्या फायदा?’

श्रीमान! प्रदेश में कई ऐसे परिवार हैं जो खुद उच्च शिक्षित नहीं हैं और न ही स्कूल लेवल के बाद सही से जानते हैं कि बच्चे को आगे क्या शिक्षा दी जाए। जो भी टेस्ट आपने अनिवार्य किए हैं, इनके फॉर्म अक्टूबर नवंबर में भर दिए जाते हैं। यानी अगर कोई दसवी या बारहवीं कक्षा में पढ़ रहा हो तो उसे स्कूल के बाद तकनीकी शिक्षा के लिए अगले सत्र में ऐडमिशन के लिए यह फॉर्म नवंबर-अक्टूबर में भरने होंगे। कई बार उन घरों के बच्चे, जिनके घर में शिक्षा से जुड़ा माहौल न हो, उस समय ये फॉर्म अनिभज्ञता या जागरूकता की कमी या सेशन में व्यस्त रहने के कारण नहीं भर पाते। परन्तु बाद में जब वे अपनी स्कूली शिक्षा पूरी कर लेते हैं, तब जाकर ही कहीं ऐडमिशन के लिए सोचते हैं। इधर-उधर पता करते हैं तो उन्हें पता चलता है की वे किसी निजी संस्थान में दाखिल ले सकते हैं। परन्तु आपके इस रूल के कारण ऐसे छात्र प्रदेश में अपने घरों के आसपास शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाएंगे। इसके लिए उनके गरीब अभिवावकों को उन्हें बाहरी प्रदेशों में भेजना होगा। इसके लिए उन्हें वहां हॉस्टल की फीस या रहने के लिए अलग से खर्च वहन करना होगा। क्या यह उनके साथ ज्यादती नहीं है?

आपके रूल से या तो बच्चे का एक साल खराब होगा या कोई गरीब जो अपने घर के आसपास बच्चे को शिक्षा दे सकता है, उसे प्रदेश के बाहर भेज कर अनावश्यक खर्चे के बोझ तले दबना पड़ेगा। और उसे टेस्ट में सिर्फ बैठना अनिवार्य करना, भले ही अंक शून्य या नेगेटिव हों, कहां तक व्यावहारिक है?

श्रीमान जी! अब मैं आपका ध्यान तकनीकी शिक्षा के डिग्री कोर्स की तरफ लाता हूं। मैं आज आईआईटी दिल्ली से पीएचडी कर रहा हूं, लेकिन मैंने स्कूल पास करके इंजिनियरिंग में जाने के लिए एक साल कोचिंग भी ली थी। इसके बावजूद मैंने IIT-JEE का फॉर्म नहीं भरा था। मुझे लगता था कि मेरी तैयारी उस लेवल की नहीं है तो मैं क्यों अपने पैसे फालतू में बर्बाद करूं। श्रीमान! आज वही फॉर्म, जिसका टेस्ट आपने अनिवार्य किया है, एक हजार रुपये के आसपास का हो गया है। हो सकता है किसी गरीब का बच्चा उसे इसलिए नहीं भरता हो कि प्रतिस्पर्धा के हिसाब से मेरी तैयारी नहीं है तो मैं क्यों पैसे बर्बाद करूं। मान लीजिए बाद में उस बच्चे के घर वालों को लगता है कि हम कैसे न कैसे पैसे जोड़कर या बैंक से लोन लेकर अपने बच्चे को प्रदेश के किसी कॉलेज से इंजिनियरिंग करवा देंगे। ऐसे में आपका बनाया रूल उस बच्चे के भविष्य के आड़े आ जाएगा।

मंत्री जी, मेरे कहने का मतलब है कि आपके इस रूल से शिक्षा की गुणवत्ता में कोई वृद्धि नहीं हो रही। गरीब या जो लोग जागरूक नहीं हैं, उन परिवारों के बच्चों पर प्रदेश से बाहर जाकर शिक्षा ग्रहण करने का अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ रहा है और कुछ तो शिक्षा से महरूम रह जा रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि इसका कारण वे टेस्ट हैं, जिनमें बैठना आपने अनिवार्य कर रखा हैं। वह भी इस अजीब तर्क के साथ कि मार्क्स कितने भी आएं, कोई फर्क नहीं पड़ेगा, बस एग्जाम दीजिए।

मैं उम्मीद करता हूं कि आपका पूरा ध्यान प्रदेश में निजी कॉलेजों की गुणवत्ता सुधारने पर रहेगा। लेकिन आपके इस फैसले से सिर्फ बाहरी राज्यों की तरफ पलायन बढ़ रहा है और यह गारंटी नहीं है वहां अधिक पैसे खर्च करके भी इन बच्चों को क्वॉलिटी एजुकेशन मिले।

भवदीय,
Aashish Nadda (PhD Research Scholar)
Center for Energy Studies
Indian Institute of Technology Delhi
E-mail  aksharmanith@gmail.com

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