- आदर्श राठौर।।
हिमाचल प्रदेश में लगातार हो रहे हादसों की खबरें बेचैन कर रह रही हैं। हम में से बहुत से लोगों के लिए ये खबरें सिर्फ खबरें हैं और मरने वालों की संख्या महज आंकड़ा। हम तो शोक जताते हैं कि 12 मर गए या 2 मर गए। मगर जिनका एक भी मरा, उस परिवार का हाल देखकर सोचिए। या उस बंदे के बारे में ही सोचकर देखिए, जो मौत के मुंह में समा गया। हम सभी के कई सपने हैं। हम सभी कल के बारे में या एक महीने बाद के बारे में सोचते हैं कि ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे। मगर बेमौत मारे जाएं तो सोचिए कितना बुरा होगा। हमारे सपने धरे के धरे रह जाएंगे। हमारे बाद हमारे प्रियजनों की जो बुरी हालत होगी, सो अलग।
सवाल उठता है कि हादसे हो क्यों रहे हैं? मैंने इस बारे में कई शोध और लेख पढ़े। मैंने हादसों वाली कुछ जगहों पर जाकर देखा, वहां की तस्वीरें देखीं और अखबारों में घायलों के बयान पढ़े, प्रत्यक्षदर्शियों के बयान टीवी पर देखे। मैंने पाया कि हादसों के लिए मानवीय गलतियां तो जिम्मेदार थी हीं, मगर सबसे ज्यादा दोषी हैं यहां की सड़कें। मैदानी इलाकों में अगर मानवीय भूल से हर गाड़ियों का संतुलन बिगड़े तो नुकसान इतना नहीं होता। आसपास के खाली या खेत वाले इलाकों में गाड़ियां चली जाती हैं औऱ कैज़ुअल्टी उतनी नहीं होती। मगर पहाड़ों में तो बचने का सीन ही नहीं होता।आप जानते हैं कि पहाड़ों की सड़कें वैसे ही खतरनाक होती हैं। एक तरफ पहाड़ी होती है तो दूसरी तरफ खाई होती है। ऐसे में जरा सी भी लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है। पहाड़ी से टकराए तो भी हादसा, खाई में गिरे तब भी काम तमाम।
मगर इन सड़कों की स्थिति भी ऐसा नहीं है, जैसी कि पहाड़ी राज्यों की सड़कों की होनी चाहिए। यहां जरूरी है कि वैली साइड में नाली खुदी हो, ताकि बारिश का पानी सड़क से होकर न बहे और भूस्खलन की वजह न बने। साथ ही घाटी की तरफ रिफ्लेक्टर, क्रैश बैरियर और पैरापिट लगे होने चाहिए। पहले सड़क किनारे सीमेंट के पैरापिट बनाए जाते थे या फिर तारकोल के खाली ड्रम लगा दिए जाते थे। ये ज्यादा रोक तो नहीं लगाते, मगर फिर भी पता चल जाता था कि सड़क कहां खत्म हो रही है। अब क्रैश बैरियर्स लगाए जा रहे हैं, ताकि गाड़ियां टकराएं तो उनकी वेलॉसिटी को सोख सकें और नीचे गिरने से रोक सकें। कम रफ्तार पर चल रहीं छोटी गाड़ियों को तो ये बैरियर रोक सकते हैं, मगर तेजी से चल रही बस को ये क्रैश बैरियर क्या, बड़ी दीवार भी नहीं बचा सकती।
मैंने पाया कि ज्यादातर हादसे ऐसी जगहों पर हुए, जहां पर सड़क अचानक तंग (संकरी) हो गई थी और वहां पर कोई भी रिफ्लेक्टर या चूने का पत्थर यह बताने के लिए नहीं लगा था कि आगे सड़क कहां खत्म हो रही है या उसकी चौड़ाई कितनी है। यहीं पर मानवीय भूलें खतरनाक साबित हुईं। यही नहीं, सड़कें बनी भी ढंग से नहीं हैं। नियम कहता है कि सड़कों की प्रॉपर बैंकिंग होनी चाहिए। यानी लेफ्ट साइड का तीखा मोड़ हो सड़क राइड साइड से ऊंची और लेफ्ट साइड से नीची होनी चाहिए। राइट साइड के मोड़ में ठीक इसका उल्टा होना चाहिए। मगर बैंकिंग का तो मानो कॉन्सेप्ट ही पता नहीं है हमारे इंजिनियर्स को। यही वजह होती है कि गलत बैंकिंग या बैंकिंग न होने की वजह से सेंट्रीफ्यूगल फोर्स काम करती है और गाड़ियां स्किड होकर हादसों का शिकार हो जाती हैं।
इसके अलावा अगर सड़क टूटी-फूटी या कच्ची हो तो स्किड होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं, क्योंकि लूज़ रोड़ी फ्रिक्शन (घर्षण) को कम करती है। इसी वजह से आपने देखा होगा कि बाइक वगैरह रेत पर मोड़ वगैरह में फिसल जाया करती है। बसें नई हों या पुरानी, बड़ी हो या छोटी, महंगी हो या सस्ती, बाइक हो या कार… अगर सड़कों की हालत की ठीक नहीं होगी, तो हादसे होने की आशंका बढ़ जाती है। सड़कों को पक्का करने में इतना घटिया मटीरियल यूज होता है कि उस साल की बरसात के बाद हालत वैसी ही हो जाती है। ऊपर से ठेकेदारों से जवाबदेही भी नहीं ली जाती, जबकि उनकी जिम्मेदारी रख-रखाव की भी बनती है।
मैं पूरी ईमानदारी से साथ कहना चाहता हूं कि मैंने हिमाचल के जितने भी रोड देखे, उनमें से 80 फीसदी की हालत बेहद बुरी है। आप भी अपने दिल पर हाथ रखकर अपने इलाके की सड़कों को जरा याद कीजिए। मेरा दावा है कि ज्यादातर सड़कों की हालत खस्ता ही मिलेगी। इन सड़कों की बदहाली के लिए कौन जिम्मेदार है? वही लोग, जिनके कंधों पर इसकी जिम्मेदारी होती है। सड़कों का रख-रखाव किसके जिम्मे होता है? यह जिम्मेदारी होती है लोक निर्माण विभाग यानी PWD के पास, जो हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने अपने पास रखा है।
पिछले दिनों किसी नेता ने सड़कों की इस खस्ताहाली के लिए मुख्यमंत्री को दोष दिया तो उन्होंने कहा- ऐसी बातें करने वालों को पता नहीं है कि सड़कें कई तरह की होती हैं। कुछ राज्य के अधीन होती हैं तो कुछ केंद्र के। वह किन सड़कों की बात कर रहे हैं। मुख्यमंत्री भूल गए कि नैशनल हाइवे हों या स्टेट हाइवे, सबकी हालत खस्ता है। वह भूल गए कि सभी सड़कों की खस्ताहाली का जिम्मा केंद्र पर छोड़ने से बात नहीं बनेगी। सड़कों की मेनटेनेंस का जिम्मा भी उनके ही महकमे के पास होता है। और ऐसा नहीं है कि सिर्फ NH की खस्ताहाल हैं, अन्य सड़कों की दुर्दशा भी किसी से छिपी नहीं है। किन्नौर, चंबा और ठियोग में हुए हादसे किसी एनएच पर नहीं हुए।
अगर इन हादसों के लिए मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को न पूछा जाए तो और किसे पूछा जाए? वही तो मंत्री हैं। याद हो कि पिछली बीजेपी की सरकार के दौरान यह महकमा बीजेपी के प्रदेश के दूसरे नंबर के नेता गुलाब सिंह ठाकुर के पास था। यह इतना अहम विभाग है कि एक सीनियर नेता को दिया गया था। मगर न जाने क्यों मुख्यमंत्री ने यह अहम विभाग अपने पास रखा है। तरह-तरह के कामों में व्यस्त रहने वाले मुख्यमंत्री इन महकमों के लिए कितना वक्त निकाल पाते होंगे, आप अंदाजा लगा सकते हैं। तो इसके लिए उन्होंने मुख्य संसदीय सचिव की जिम्मेदार विनय कुमार को दी है। मगर मैंने इन हादसों पर विनय कुमार के बयान पढ़े तो वे भी टाल-मटोल के सिवा कुछ नहीं लगे।
प्रदेश की अधिकतर सड़कों की हालत की जिम्मेदारी मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह और विनय कुमार दोनों की बनती है। उन्हें यह भी ख्याल रखना चाहिए कि राज्य सरकार की जिम्मेदारी के तहत आने वाली सड़कों की संख्या केंद्र की योजनाओं से बनीं सड़कों के मुकाबले ज्यादा है। इसलिए यह उनका फर्ज है कि कम से कम राज्य सरकार के अंडर आने वालीं सड़कें तो दुरुस्त हों। मगर नहीं, मुख्यमंत्री फंड न होने की दुहाई देते रहते हैं। अगर फंड नहीं है तो हर जगह फालतू में घोषणाएं करने के लिए कहां से फंड आ रहा है?
जो महकमे मुख्यमंत्री ने अपने पास रखे हों, सीधे तौर पर उनके लिए वह खुद उत्तरदायी हैं। ध्यान दिला दें कि एजुकेशन विभाग भी सीएम ने अपने पास रखा है और इसकी जिम्मेदारी सीपीएस नीरज भारती को दी है। ऐसी-ऐसी जगहों पर कॉलेज खोले जा रहे हैं, जहां पर आसपास के सरकारी कॉलेज खाली पड़े हुए हैं। ऐसी-ऐसी जगहों पर स्कूल खोले जा रहे हैं, जहां के आसपास के स्कूलों में न बच्चे हैं न अध्यापक। ऐसा नहीं कि मौजूदा स्कूल-कॉलेजों को ही अपग्रेड कर दिया जाए, ताकि बच्चों को एक ही जगह पर क्वॉलिटी एजुकेशन मिले। मगर ऐसी विज़नहीन घोषणाओं के लिए फंड है, मगर प्रदेश की उन जीवन-रेखाओं को सुधारने के लिए पैसा नहीं है, जो काल का सबब बन गई हैं।
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मुझे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह भाषण याद आ रहा है, जो उन्होंने मंडी और सुजानपुर में दिया था। चुनाव से पहले उन्होंने हिमाचल की दुखती हुई रग को पकड़ा था और कहा था कि हादसों से होने वाली मौतें मुझे झकझोर देती हैं। कोई ऐसा सिस्टम होना चाहिए कि ये हादसे कम हों। उम्मीद थी कि मोदी यहां के लिए वैकल्पिक परिवहन व्यवस्था का इंतजाम करेंगे, मगर ऐसा अब तक कुछ होता नहीं दिख रहा। (विडियो देखने के लिए नीचे विडियो में 24 मिनट 54 सेकंड में जाएं या यहां क्लिक करें।)
पहले से मौजूद ट्रेन रूट्स को आगे बढ़ाने के लिए सर्वे के लिए बजट तो जारी किए जा रहे हैं, मगर काम युद्ध स्तर पर नहीं हो रहा। यह भी गारंटी नहीं है कि सर्वे की रिपोर्ट अच्छी आए और रेलवे लाइन बिचाने का काम शुरू हो जाए। मगर प्रदेश के सांसदों को मोदी से मिलकर वह भाषण याद दिलाना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि बात बजट या फिजिबिलटी की नहीं, लोगों की सुरक्षा और सुविधा की है। उन्होंने कहा था कि टूरिज़म के लिए रेलवे का विकास करना है। उन्हें अपनी बात पर कायम रहना चाहिए। यह सही है कि पूरे प्रदेश को रेल से नहीं जोड़ा जा सकता। मगर अहम स्टेशनों को तो जोड़ा ही जा सकता है। इस दिशा में एक पहल तो की ही जा सकती है। बाकी सड़कों पर तो राज्य और केंद्र, दोनों को ही ध्यान देना होगा। इसके बिना कुछ नहीं हो पाएगा।
दुख की बात यह है कि हादसों पर हादसे होते रहते हैं, एफआईआर होती है और ‘चालक की लापरवाही’ का मामला बनाकर फाइल क्लोज़ कर दी जाती है। मगर वह लापरवाही किस तरह से जानलेवा बन गई, इस पर कभी बात नहीं होती। जब बात ही नहीं होगी, कोई गलती ही नहीं पकड़ी जाएगी तो उसका सुधार कैसे होगा? हादसों के बाद होश में आकर कोई ठोस नीति अपनाई जानी चाहिए थी, मगर सरकार ने एक ही नीति पर चलने की ठानी हुई है। वह नीती है- मुआवजा नीति। मृतकों के परिजनों और घायलों को मुआवजा और आगे बढ़ो। मानो रिश्वत दी जा रही हो कि भैया, हो गया जो होना है, अब शोर मत मचाना। मेरी गुजारिश है मुख्यमंत्री से कि किसी सीनियर मंत्री को PWD दें या फिर खुद पूरा ध्यान इस पर फोकस करें। सभी सड़कों का एक्सपर्ट्स द्वारा मुआयना करवाया जाए और जहां जरूरी हो, वहां पर सुधार किए जाएं। जहां पर मोड़ों को चौड़ा करना है, वहां चौड़े किए जाएं। जहां पर बैंकिंग नहीं है, वहां बैकिंग करवाई जाए। जहां रिफ्लेक्टर और डिवाइडर नहीं हैं, वहां इनका इंतजाम किया जाए। जहां क्रैश बैरियर्स की जरूरत है, वहां क्रैश बैरियर्स लगाए जाएं। यह काम युद्ध स्तर पर होना चाहिए।
साथ ही प्रदेश के परिवहन मंत्री से भी अपील है कि बसों की स्पीड लिमिट तय की जाए। इनमें उसी तरह से स्पीड गवर्नर लगाए जाएं, जैसे स्कूल बसों में होते हैं ताकि चालक चाहकर भी एक लिमिट से ज्यादा स्पीड में बस न चला पाएं। यह सरकारी बसों ही नहीं, निजी बसों और अन्य भारी वाहनों में भी जरूरी किया जाना चाहिए। इस बारे में नीति बना दी जानी चाहिए। साथ ही सरकारी वाहनों के चालकों की प्रॉपर ट्रेनिंग होनी चाहिए और ओवरस्पीडिंग करने वालों को तुरंत सस्पेंड कर दिया जाना चाहिए। प्राइवेट वाहन चालकों के लिए भी ट्रेनिंग का इंतजाम होना चाहिए और नियम तोड़ने पर उनके लाइसेंस को जब्त करने का प्रावधान करना होगा। पुलिस को इसके लिए सहयोग करना होगा और युद्ध स्तर पर तब तक जुटे रहना होगा, जब तक लोग रोड सेफ्टी को आदत में शुमार न कर दें। मेरे दिमाग में तो इस वक्त यही सुझाव आ रहे हैं और ज्यादा मैं सोच भी नहीं पा रहा। मन में गुस्से और दुख के मिले-जुले भाव हैं। इसी मनोस्थिति में लिखकर इन हिमाचल को भेज रहा हूं ताकि पाठक शायद और भी अच्छे सुझाव दे दें।
(लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं और कई टीवी चैनलों में काम करने के बाद इन दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के वेब संस्करण सेवाएं दे रहे हैं। मूलत: हिमाचल प्रदेश के जोगिंदर नगर से ताल्लुक रखते हैं और प्रदेश से जुड़े विषयों पर लिखते रहते हैं। उनसे aadarshrathore@gmail.com के जरिए संपर्क किया जा सकता है।)