खोखला हो चुका है हिमाचल, कभी भी भरभराकर ढह सकता है

Image courtesy: Himachal Watcher

आई.एस. ठाकुर।।शिमला में पानी की कमी के कारण लोग परेशान हैं, इसके लिए जयराम सरकार दोषी है। कसौली में अवैध कब्जे हटाते कर्मचारियों की हत्या हो गई, जयराम सरकार दोषी है। सड़कों की खराब हालत के कारण हो रहे बस हादसों में लोग मर रहे हैं, जयराम सरकार दोषी है। तबादले हो रहे हैं, जयराम सरकार कर्मचारियों को परेशान कर रही है। सबसे बड़ी बात- जयराम ने पांच महीनों में ही हिमाचल को बर्बाद कर दिया है।”

ऊपर लिखी बातें आपको हिमाचल के कुछ लोगों से सुनाई पड़ जाएंगी या सोशल मीडिया पर दिख जाएंगी। मगर कोई ये नहीं पूछता शिमला में ऐसे हालात क्या पांच महीने में पैदा हो गए? कसौली में अवैध निर्माण किसके कार्यकाल में हुए थे? सड़कों में हादसे पांच महीने में ही हुए क्या? जयराम की सरकार आने से पहले किसी का तबादला नहीं हुआ? और सबसे बड़ा सवाल ये कि जयराम ने पांच महीनों में हिमाचल बर्बाद किया है या इसके पहले के 47 सालों (पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने से लेकर आज तक) में हुए काम का असली चेहरा हमारे सामने आया है?

मेरे ज़हन में ये सवाल एक घटना के बाद आए। कल मैंने अचानक ऐसी ही कुछ टिप्पणियां पढ़ने के बाद घर पर कहा कि जबसे जयराम ठाकुर की सरकार आई है, तबसे हिमाचल प्रदेश से नकारात्मक खबरें कुछ ज्यादा ही आ रही हैं। मानो सबकुछ कलैप्स हो (ढह) रहा हो। मेरा इतना कहना था कि मेरी बिटिया ने कहा- पापा, चलो मान लिया कि अभी ढह रहा है, मगर यह खोखला भी क्या अभी ही हुआ?

बेटी ये कहकर अपने काम में लग गई और मैं सोच में पड़ गया। बेटी की बात में दम तो था। कोई चीज़ ढहती तभी है जब वह खोखली हो। मगर हिमाचल क्या वाकई खोखला हो चुका है? क्या इसीलिए सब कुछ ढहता हुआ प्रतीत हो रहा है? और अगर यह वाकई खोखला हो चुका है इसे कमजोर करने में, इसे अंदर से खोखला करने के लिए जिम्मेदार कौन है?

देवभूमि के टैग की आड़ में छिपा सच
एक दौर था जब कहीं से जीन्स फट जाया करती थी, तब लोग रफू नहीं करवाते थे बल्कि किसी कंपनी के टैग वाला स्टिकर सिलवा देते थे। हिमाचल प्रदेश में भी ऐसा हुआ। सरकारों ने अपनी कमजोरियों, अक्षमताओं और नकारेपन के लूपहोल्स को भरने के लिए ‘देवभूमि’ का टैग लगाया। नतीजा ये रहा कि हम जिस भी क्षेत्र की बात करते, वहां ‘देवभूमि’ का टैग लगा मिलता। इस देवभूमि के टैग के नाम पर हिमाचल की जनता को उल्लू बनाया गया है क्योंकि आम हिमाचली दिल से मानता है कि हिमाचल देवभूमि है। मगर राजनेताओं और कुछ अक्षम अधिकारियों ने इसे एक टूल की तरह इस्तेमाल किया है।

 

उदाहरण के लिए पिछले दिनों एक पत्रकार मित्र ने बताया कि साल भर पहले बाहरी राज्य की पर्यटक के साथ स्थानीय व्यक्ति द्वारा कथित रूप से की गई छेड़छाड़ के मसले पर जब उसने एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी से तीखे सवाल किए तो उसने ऑफ द रिकॉर्ड कहा- जाने दो न जनाब, खामखा देवभूमि बदनाम हो जाएगी। नतीजा यह रहा कि वह युवती अपनी शिकायत वापस लेकर चली गई। ठीक इसी तरह से अपने हर भाषण में पांच बार ‘देवभूमि हिमाचल’ का जिक्र करने वाले राजनेताओं ने प्रदेश का बेड़ा किस तरह गर्क किया है, वह बताने की जरूरत नहीं है। मगर फिर भी कुछ उदाहऱण आगे हैं।

शिमला में पानी का संकट क्यों?
अमूमन सभ्यताएं और शहर नदियों किनारे बसा करते थे। मगर शिमला को अंग्रेज़ों ने राजधानी के रूप चुना, जिसके आसपास कोई बड़ा प्राकृतिक जल स्रोत या जलधारा नहीं है। फिर बी उन्होंने इस जगह को इसलिए चुना क्योंकि उन्हें लगता था कि यहां का मौसम काफी हद तक उनके यहां से मेल खाता है। इसके लिए उन्होंने यहां रकने के लिए लगभग 18000 लोगों की आबादी के हिसाब से पानी की व्यवस्था की और प्रॉजेक्ट लगाकर काफी दूर से पानी लाया।

मगर इसके बाद देश आजाद भी हो गया, हिमाचल केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद पूर्ण राज्य बन गया, पूर्ण राज्य बने 47 साल हो गए और इस शहर की पानी की व्यवस्था अभी भी बहुत हद तक अंग्रेज़ों द्वारा स्थापित परियोजना पर निर्भर है। फिर सवाल उठता है कि आखिर इन 47 सालों में बारी-बारी से आई बीजेपी और कांग्रेस की सरकारों ने क्या किया? ‘देवभूमि’ की राजधानी में अब लगभग ढाई लाख लोग रहते हैं। मगर कोई ऐसा सूरमा पैदा नहीं हुआ, जिसने ये सोचा हो कि आने वाले 50 सालों बाद क्या हालात होंगे।

दरअसल नेता विज़नरी होना चाहिए। प्रधान विज़नरी न हो तो चलेगा, सीएम की सोच ज़रूर दूरदर्शिता भरी होनी चाहिए। पांच बार मुख्यमंत्री बनना या तीन बार मुख्यमंत्री बनना बहादुरी का काम नहीं है। अगर आपके अंदर दूरदृष्टि नहीं है तो भले ही रिकॉर्ड बनाकर उसका बोर्ड गले में टांगकर घूमिए, आने वाले पीढ़ियां आपको एक औसत और सत्तालोभी नेता के तौर पर ही देखेगी, न कि दूरदर्शी नेता के तौर पर याद करेगी।

सोचिए शिमला में साल 2015 में गंदे पानी से पीलिया होने के कारण 32 लोग मर गए, मगर किसी पर कोई कार्रवाई नहीं। सिर्फ पानी खराब होने से 32 लोगों की जान चली गई। नंबरों पर मत जाइए, इन 32 में से आप खुद या आपका कोई अपना भी हो सकता था। और उस समय किसकी सरकार थी? और उस सरकार ने उस समय कोई योजना क्यों नहीं बनाई? अगर बनाई होती तो आज हालात अलग होते। और ये पिछली ही नहीं, उससे पिछली और उससे भी पिछली सरकारों का भी दोष है।

जंगलों को कटवाते रहे ये नेता
47 सालों की लापरवाही का हिसाब-किताब किया जाए तो नेताओं की नाकामी का एक और उदाहरण आजकल देखने को मिल रहा है। आज हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के आदेश पर शिमला में हज़ारों सेब के पेड़ काटे जा रहे हैं। हज़ारों….. जी हां, आपको लग रहा होगा कि हाई कोर्ट ने ये कैसा अजीब कदम उठा दिया, जब पेड़ लगाने की जरूरत है तो पेड़ कटवाए जा रहे हैं। दरअसल हाई कोर्ट का आदेश तमाचा है उन नेताओं के गाल पर, जो पिछले 47 सालों से आंखें मूंदकर बैठे रहे और बार-बार जीतते रहे। उनका इस इलाके में प्रभुत्व ही इसलिए बना रहा क्योंकि इन्होंने वन विभाग की आंखों पर पट्टी बांध दी ताकि उनके लोग देवदार के पेड़ काट लें, जंगलों को साफ कर दें, सरकारी जमीन कब्जा लें और कोई कुछ न देख सके।

शिमला का तापमान बढ़ा क्यों हैं? देवदार की कमी एक सेब का पेड़ पूरी कर सकता है क्या? अवैध कब्जे होते रहे, सेबों से लोग कमाई करते रहे, वे वन विभाग की आंखों पर पट्टी बांधने वाले अपने नेता को जिताते रहे और अब जब उनके अपराध पर हाई कोर्ट की नजर पड़ी, तब वे विक्टिम कार्ड खेल रहे हैं। चिल्ला रहे हैं कि हाय, हम तो गरीब हैं, हमारे पेड़ काट दिए। आपके काहे के पेड़? जब पूरे देश और प्रदेश के लिए कानून एक है तो आपको अवैध कब्जे करने की छूट क्यों दी जाए?

आप शायद भूल गए होंगे कि पिछली वीरभद्र सरकार पांच बीघा तक के सरकारी जमीन पर अवैध कब्जे नियमित करने के लिए कितनी बेताब थी। उससे पहले की सरकारों ने भी अवैध कब्जों को नियमित किया है। यही नहीं, शिमला में कितने ही अवैध भवनों को नियमित किया गया। किसने और क्यों किया? 47 सालों से ये खेल चल रहा है। शिमला के आसपास के पहाड़ नंगे यूं नहीं हो गए। रातोरात ये काम नहीं हुआ, बल्कि आज जनता के हितैषी बन रहे नेताओं ने जनता को मुफ्तखोरी और चोरी-चकारी की ये आदत डाली है। और तो और, तारा देवी के जंगल कट गए थे रातोरात और वन मंत्री ने कहा था- सिर्फ झाड़ियां कटी थीं। ऐसी हरकतों से हिमाचल खोखला नहीं होगा तो और क्या होगा?

सिस्टम की नाकामी का संक्रमण
कसौली में जिस होटल को गिराते समय गोली चली, उसे बनाने वाले को अवैध निर्माण की हिम्मत कहां से मिली थी? जब वह अवैध निर्माण कर रहा था, विभाग क्या कर रहा था? उसके जैसे हजारों लोगों ने ये काम इसलिए किया क्योंकि 47 सालों में यहां के नेताओं ने अवैध निर्माण को मुद्दा ही नहीं समझा। जब-जब कोर्ट कुछ करने लगता, सरकार में बैठे ये राजनेता नियम बदल देते और अवैध को वैध कर देते। इससे हर शख्स को लगता कि यार सही है, मुझे भी अवैध निर्माण कर लेना चाहिए, मुझे भी अवैध कब्जा कर लेना चाहिए, कल को रेग्युलर हो ही तो जाएगा।

यही कारण रहा कि अधिकारी भी ढीले पड़ गए। उन्हें लगता है कि कौन ऐसी-तैसी करवाए, क्यों कोई किसी का बुरा बने, कल को सरकार रेग्युलर तो कर ही देगी अवैध निर्माण या कब्जों को। यही सोच पेड़ काटने वालों, सरकारी जमीन पर सेंध लगाने वालों, नक्शे को नजरअंदाज़ कर कंस्ट्रक्शन करने वालों और हर कायदा कानून तोड़ने वालों की हिम्मत बढ़ाती रही है।

क्रशर और अवैध खनन कौन कर रहा है?
पिछले दिनों मौजूदा सरकार के एक कद्दावर नेता के बेटे के क्रशर पर अवैध खनन का आरोप लगा। हाल ही में एक पूर्व मंत्री के बेटे का कथित तौर पर अवैध रुप से चल रहा क्रशर बंद किया गया। ‘देवभूमि’ के विकास के लिए बड़ी-बड़ी बातें करने वाले ये नेता और इनके परिजन ही जब हिमाचल के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में लगे हुए हैं, क्या आप इनसे उम्मीद रख सकते हैं कि ये बाकी अवैध खनन करने वालों रोकेंगे या उनके खिलाफ कार्रवाई करेंगे? अपने रिश्तेदारों के होटलों को सील होने से बचाने के लिए जब ये पूरा कानून बदल सकते हैं तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि जब अवैध कारोबारी मिलकर इन्हें ‘मनाते’ होंगे तब ये क्या करने को तैयार नहीं हो जाते होंगे।

हिमाचल की खड्डें और नदियां बर्बाद हो चुकी हैं। यह सही है कि हिमाचल विकासशील है और इसे कंस्ट्रक्शन के लिए रॉ मटीरियल चाहिए। मगर उसके लिए खनन का काम वैज्ञानिक ढंग और सीमित तरीके से क्यों नहीं हो सकता? लेकिन ऐसा तभी हो सकता है जब क्रशर आदि लगाने का उद्देश्य प्रदेश की और जनता की जरूरतें पूरी करना हो। जब क्रशर लगाने का उद्देश्य नोट छापना हो, अपनी जेबें भरना हो तो सारे नियम ताक पर रख ही दिए जाएंगे।

तबादला नीति क्यों नहीं बनी
अक्सर हल्ला मचलता है कि फ्लां सरकार तबादले कर रही है। विपक्षी जब खुद सत्ता में होते हैं, तब तबादले नहीं होते क्या? नेताओं और विधायकों के नोट पर बड़े-बड़े ईमानदार पुलिस अधिकारियों को इधर से उधर नहीं किया जाता क्या? अध्यापकों और डॉक्टरों को ट्रांसफर नहीं किया जाता? और क्या 47 सालों से यही काम नहीं हो रहा? अब तक आप खुद क्यों कोई स्थायी तबादला नीति नहीं बना पाए? बीजेपी और कांग्रेस दोनों इस सवाल से नहीं बच सकतीं क्योंकि वे दोनों बारी-बारी सत्ता में रही हैं।

कानून व्यवस्था की पतली हालत
आज से ठीक एक साल पहले जून महीने में मंडी में वनरक्षक होशियार सिंह का शव पेड़ पर लटका हुआ मिला। पुलिस ने पहले हत्या का मामला बनाया और फिर आत्महत्या का मामला बना दिया। फिर जांच केंद्र के डेप्युटेशन से लौटे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को सौंपी गई और इससे पहले कि वह कुछ करते, उनसे जांच लेकर वापस सीआईडी को दे दी गई। सीआईडी कुछ नहीं कर पाई और फिर जांच हाई कोर्ट ने सीबीआई को सौंप दी। यह दिखाता है कि सरकारें किस तरह से पुलिस अधिकारियों को तंग करती हैं और एक तरह से जांच को प्रभावित करती हैं।

इसी तरह शिमला के गुड़िया केस को पुलिस ने शुरू में ही ऐसे बिगाड़कर कर रख दिया कि अब तक केस ट्रैक पर नहीं आया है। यह तो भगवान जाने या कोर्ट जाने की अब सीबीआई ने जिस चरानी को पकड़ा है, वह अकेला ही दोषी है या नहीं। मगर आज अगर सीबीआई की जांच पर भी सवाल उठ रहे हैं तो यह सीबीआई नहीं, बल्कि हिमाचल पुलिस की करतूतों के कारण उठ रहे हैं जिसने इस मामले में इतने झूठ, इतने खेल, इतनी साजिशें की कि आज कई पुलिस अधिकारी हत्या के आरोप में जेल में बंद हैं और जनता का पूरे महकमे से विश्वास उठ गया है।

इससे पता चलता है कि इन पुलिसवालों ने पहले न जाने कितने ही लोगों को बिना कसूर अंदर डाल दिया होगा और कितने ही मामलों को यूं ही रफा-दफा कर दिया होगा। यह भला हो सोशल मीडिया का जो गुड़िया केस में लोग जागरूक हुए, वरना पिछले मुख्यमंत्री तो उन पुलिस अधिकारियों की पीठ थपथपा चुके थे, जिन्होंने सीबीआई जांच में अभी तक निर्दोष पाए गए नेपालियों और कुछ अन्य लोगों को जेल में ठोक दिया था। इससे पता चलता है कि पहले की सरकारें और उनके मुखिया कितने नकारे थे कि उनके नीचे आने वाली पुलिस कुछ भी सच-झूठ बोलती थी और वे उसे मान लेते थे।

सोचिए, ऐसा खेल कबसे चल रहा होगा और संभव है कि आज भी चल रहा हो। अगर आज पुलिस महकमा जनता का विश्वास खो चुका है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? प्रदेश पर अब तक बारी-बारी राज करने वाली पार्टियां और नेता क्या जिम्मेदारी लेंगे? अधिकतर केस पुलिस ऐसे ही हवा में सॉल्व कर देने का दावा करती है। थोड़ा सा केस पेचीदा हुआ तो उसकी हवा निकल जाती है। उसे वैज्ञानिक सबूतों को जुटाने और उनके आधार पर इंटरप्रेटेशन करने का रत्ती भर अनुभव नहीं है। यही गुड़िया और होशियार सिंह जैसे केसों में देखने को मिला। मगर क्या किसी ने पुलिस का स्तर सुधारने के लिए वाकई प्रयास किए?

शिक्षा और स्वास्थ्य पर कोई नीति नहीं
हिमाचल प्रदेश साक्षरता में बेशक शानदार काम कर रहा है। मगर शिक्षा में नहीं। साक्षरता- यानी अक्षरों का ज्ञान। पढ़ना-लिखना आ जाना। मगर शिक्षा के मायने बौद्धिक विकास से हैं, ज्ञान प्राप्ति से हैं। शिक्षा तो तभी मिलेगी जब क्वॉलिटी होगी। मगर अब तक हर सरकार का ध्यान आंख मूंदकर घोषणाएं करना हैं। फ्लाणे गांव के चमचे टौंकू राम ने माग की कि गांव के प्राइमरी स्कूल को मिडल स्कूल बनाया जाए और नेता जी ने भाषण में महाराजा की तरह ऐलान कर दिया-  तथास्तु।

नए स्कूलों की स्थापना, कॉलेजों की स्थापना, शिक्षण संस्थानों का अपग्रेडेशन आंख मूंदकर किया गया। यह नहीं देखा गया कि कहां जरूरत है, कहां कितने छात्र हैं, क्या बनना चाहिए। कहीं खड्डों के पास कॉलेज खोल दिए, कहीं जंगलों में स्कूल खोल दिए तो कहीं भांग से पटी घासनियों के पास आईआईटी जैसे संस्थान की स्थापना कर दी गई।स्कूल खोले गए, कॉलेज खोले गए मगर टीचिंग स्टाफ की भर्तियां नहीं की गईं।

स्कूलों का बेड़ा गर्क
मान लीजिए एक स्कूल में 30-30 छात्रों वाली 5 क्लासें हैं। हर क्लास के 6 सब्जेक्ट हैं और स्कूल में 6 मास्टर हैं। अब होता ऐसा है कि पास में ही एक और स्कूल खोल दिया जाता है और पुराने स्कूल से आधे बच्चे उस नए स्कूल में चले जाते हैं। टीचर भी तीन-तीन बांट दिए जाते हैं। और अब क्या है कि एक वक्त में तीन टीचर तीन ही क्लास ले सकते हैं। बाकी की दो क्लासों के छात्र उस समय लुड्डी डाल रही होते हैं। फिर रिजल्ट खराब होता है तो भी मास्टर दोषी माने जाते हैं।

फिर रिजल्ट खराब होने पर माता-पिता बच्चों को प्राइवेट या दूसरे स्कूल ले जाते हैं और नए स्कूल या फिर पुराने वाले में छात्रों की संख्या कम हो जाती है और दो-तीन साल में वो दोनों स्कूल बंद होने की कगार पर पहुंच जाते हैं। अजी ऐसी ही घोषणाएं तो हुई हैं। मंचों से ऐलान करके तालियां बटोरने वालों से हिसाब लिया जाना चाहिए कि इतने स्कूल बंद क्यों हो गए हैं।

अस्पताल खुद बीमार, लगी है ‘धारा 144’
एम्स तो भगवान जाने कब बनेगा मगर आईजीएमसी और टांडा मेडिकल कॉलेज, ये वो अस्पताल हैं जो छोटी-मोटी बीमारियां देख सकते हैं और यहां डॉक्टर भी मिल जाते हैं। लेकिन गंभीर बीमारी हो गई तो पीजीआई से इधर आपको इलाज नहीं मिलेगा। और इन दो बड़े अस्पतालों में भी प्रेशर इसलिए है क्योंकि जोनल और सिविल अस्पतालों में कई-कई पद खाली हैं। कम्यूनिटी और प्राइमरी हेल्थ सेंटरों की तो बात ही न की जाए तो बेहतर है।

और ये आज ही नहीं, जबसे मैंने होश संभाला है, तभी की समस्या है। हिमाचल के हर अस्तापल में धारा 144 लगी हुई है। आपको कभी भी चार डॉक्टर एकसाथ ड्यूटी पर नहीं मिलेंगे। बाकी स्टाफ की भी कमी है। ये अस्पताल भी ऐसे हैं कि दवाइयां मिलने में भी दिक्कत हो जाए। ये सिर्फ रेफरल सेंटर हैं।

बड़ी-बड़ी बातें करने वाले स्वास्थ्य मंत्री रहे और कई-कई बार हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि आपने क्या प्लान बनाया इस इस समस्या को स्थायी तौर पर दूर करने के लिए।

टूरिजम सेक्टर का बंटाधार
हिमाचल की आय का बड़ा स्रोत है पर्यटन। बड़े-बड़े दावे करने वाले नेताओं से पूछा जाए कि आप इतने साल सत्ता में रहे, आपने कौन सा ऐसा प्लान बनाया टूरिज़म के लिए जिसने रोजगार के अवसर और पर्यटकों की सुविधाएं बढ़ाई हों।

हिमाचल की तो मिट्टी भी बिक जाए। मगर यहां के शिल्प, यहां के घेरलू उद्योगों और हस्तकला आदि को लेकर जमीन पर कुछ नहीं हुआ। पर्यटन के लिए नई जगहें विकसित नहीं की गईं और पुरानी जगहों को ढंग से डिवेलप नहीं किया गया। शिमला, मनाली, धर्मशाला में जाम की हालत देखिए आप, पार्किंग तक की जगह नहीं है।

ये तो कुदरत की देन है जो टूरिस्ट खुद हिमाचल चले आते हैं। ऊपर से कश्मीर में हालात खराब न हों तो कोई हिमाचल न आए। लोग सीधे श्रीनगर पहुंचें। उसी तरह जैसे वे लेह-लद्दाख जाते हैं।

बातें और भी हैं। हर सेक्टर का यही हाल है। जहां भी आप देखें, यही मिलेगा। शहरों में कूड़े के निपटारे की व्यवस्था नहीं है। गांवों में पानी नहीं है और जो है, वह गंदा पानी है। अनट्रीटेड वॉटर। आवारा पशुओं की समस्या से निपटने की स्थायी योजना नहीं है। किसानों और बागवानों को को प्रोत्साहित नहीं किया गया। हिमाचली कई सालों से रो रहे हैं कि बंदरों और सुअरों से बचाओ मगर कोई ठोस कदम किसी ने नहीं उठाए। जंगलों में आग लगती है हर साल मगर कोई ठोस कानूनी कार्रवाई आग लगाने वालों के खिलाफ नहीं हो पाती। चीड़ के जंगलों को क्रमबद्ध तरीके से हटाकर ईको फ्रेंडली पौध लगाने का कोई प्लान नहीं। बस वादे करो, बातें करो, भाषण दो और चुनाव लड़ो।

खोखला हो चुका है हिमाचल
यही कारण हैं कि हिमाचल बाहर से तो शांत दिखता है, मगर अंदर से खोखला हो चुका है, यहां के नकारा और करप्ट सिस्टम के कारण। हमें लगता है कि हिमाचल बहुत शांत है, सब प्रदेशों से अलग है। मगर हमें ऐसा इसलिए लगता है कि हम इसकी तरफ देखते हैं तो देवभूमि का टैग नजर आता है। अगर हम इस टैग को हटाएंगे तो देखेंगे कि हमारी देवभूमि को इन दीमकों ने साल दर साल खोखला कर दिया है। यह किसी भी दिन गिरकर जमीन में मिल जाएगी। और इसका ढहना भी शुरू हो चुका है। संयोग है कि जयराम सरकार के आने पर इसकी कलई खुली है।

हर विभाग में कुछ करप्ट लोग बैठे हैं। मगर जिन ईमानदार अधिकारियों और कर्मचारियों के दम पर हिमाचल अभी भी टिका हुआ है, उनके कंधों का बोझ कम करने की ज़रूरत है। और यह जिम्मेदारी हम सभी को निभानी होगी। हमें देखना होगा कि कौन हैं वे साजिशकर्ता, जो खुद हमारे प्रदेश को पहले खोखला कर चुके हैं और अब उनकी टांग खींचने मे लगे हैं जो आज इसे भरभरा कर बिखरने से रोकने में जुटे हुए हैं।

नए सीएम की जिम्मेदारी कम नहीं होती
हिमाचल के लोग अपने प्रदेश की तुलना अक्सर यूपी-बिहार से करते हैं और खुश होते हैं कि अपना हिमाचल बेस्ट है। मगर तुलना बेहतर जगहों से होनी चाहिए। हो सकता है हम अपने देश में कई मामलों में बेस्ट हों। मगर अब भी हम सर्वश्रेष्ठ नहीं हैं। हमारी प्रतियोगिता अपने से कमजोर लोगों से नहीं, अपने से मजबूत लोगों से होनी चाहिए। हम अगर हिमाचल को स्विट्जरलैंड कहते हैं तो ऐसा मान लेने से नहीं हो जाएगा। उसके लिए प्रयास करने पड़ेंगे।

सबसे बड़ी जिम्मेदारी नए मुख्मंयत्री जयराम ठाकुर के ऊपर है। अगर मैं यह कह रहा हूं कि हिमाचल की दशा-दिशा खराब करने के लिए पहले के राजनेता और तंत्र जिम्मेदार है तो इससे जयराम ठाकुर और उनकी सरकार की जिम्मेदारियां कम नहीं हो जातीं। पिछले पांच महीनों में मैंने देखा है कि जयराम सरकार कैसे काम कर रही है। संतुलन बनाकर, कदम-कदम नापकर, मानो सबको खुश करने की कोशिश की कोशिश की जा रही है। मगर ऐसे चलेंगे तो हिमाचल कभी भी वह रफ्तार नहीं पकड़ पाएगा जो उसे पकड़नी चाहिए।

हिमाचल का पुर्ननिर्माण करने वाला सीएम चाहिए
हिमाचल अब तक जो मुख्यमंत्री देख चुका है, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि सही मायनों में अगर हिमाचल को आगे बढ़ाना है तो इमेज कॉन्शस यानी अपनी छवि की चिंता करने वाला मुख्यमंत्री नहीं, बेबाक फैसले करने वाला दमदार मुख्यमंत्री चाहिए। हिमाचल को सरकार रिपीट करवाने के लिए चिंता करने वाला सीएम नहीं, अपने काम से पिछली सरकारों के काम को बौना साबित करने वाला सीएम चाहिए। नकारा अधिकारियों के सुझाव लेने वाला नहीं, काबिल अधिकारियों को निर्देश देने वाला सीएम चाहिए।

सिर्फ ईमानदारी से काम नहीं चलेगा, रौबदार सीएम चाहिए जिसके आगे निकम्मे और निठल्ले राजनेता और अधिकारी थर-थर कांपें। हिमाचल को चाहिए सिंगापुर के पहले प्रधानमंत्री ली कुआन यू जैसा नेता, जो कठोर से कठोर फैसले लेने का दम रखे। तभी कम आबादी वाला हिमाचल सिंगापुर की तरह कमाल कर पाएगा।

अगर जयराम ठाकुर इन पैमानों पर खरे उतर पाते हैं तो उनकी छवि खुद ब खुद बेहतर बनी रहेगी और सरकार रिपीट करवाने की भी चिंता उन्हें नहीं करनी होगी। हिमाचल प्रदेश की जनता परिपक्व है। इसीलिए उसने इस बार स्पष्ट राजनीतिक संदेश देकर उन लोगों को खारिज कर दिया, जिनके शासन से वह ऊब चुकी थी। अब अगर मौका मिला है तो मुख्यमंत्री को इस मौके को भुनाना चाहिए। जयराम के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, पाने के लिए बहुत कुछ। वह प्रदेश के हर हिस्से की जनता का प्रेम तभी हासिल कर पाएंगे, जब वह हिमाचल के पुनर्निर्माण के लिए किसी बात की चिंता किए बगैर जुट जाएंगे।

किसी की मजाल नहीं होगी जो जनहित में कठोर फैसले लेने वाले सीएम को कुछ कहे। न पार्टी, न आलाकमान और न कोई और नेता। इतिहास सबको संतुष्ट करने वालों को याद नहीं रखता। इतिहास याद रखता है उन लोगों को जो कड़े फैसले लेने का दम रखते हों। जिन्हें सही रास्ते पर चलते हुए किसी के नाराज हो जाने की परवाह न हो। जिन्हें न पद का मोह हो, न कद का। जो अपने लक्ष्य के समर्पित हों। जिनके लिए सत्ता जनता के लिए कुछ करने का माध्यम हो। और आज हिमाचल प्रदेश नए मुख्यमंत्री की ओर देख रहा है। वह उम्मीद कर रहा है कि शायद अब कुछ बदले।

इससे पहले कि हिमाचल ढह जाए,  मुख्यमंत्री को इसका पुनर्निर्माण करना होगा। मुख्यमंत्री को कानून-व्यवस्था, पुलिस, शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रकृति, पर्यटन, पानी, यातायात… हर क्षेत्र के सुधार के लिए कदम उठाने होंगे। हर बड़े बदलाव की मॉनिटरिंग खुद करनी होगी। अपनी सरकार या पार्टी से जुड़े लोग अगर कुछ गलत करेंगे तो उन्हें बचाने के बजाय सबसे पहले उनके ऊपर कड़ी कार्रवाई करके उदाहरण पेश करना होगा। साथ ही उन्हें पहले की सरकारों की कमियों से हुए नुकसान की भरपाई करनी होगी। समय लगेगा, मगर यह असंभव नहीं है। देखना होगा कि मुख्यमंत्री के अंदर कितनी इच्छाशक्ति है।

(लेखक हिमाचल प्रदेश से जुड़े विषयों पर लिखते रहते हैं, उनसे kalamkasipahi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

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