हिमाचल प्रदेश की कहानी का आगाज हुआ था जनवरी 1947 में। राजा दुर्गाचंद (बघाट) की अध्यक्षता में शिमला हिल्स स्टेट्स यूनियन की स्थापना की गई। इसका सम्मेलन जनवरी 1948 में सोलन में हुआ। इसी सम्मेलन में हिमाचल प्रदेश के निर्माण की घोषणा की गई। दूसरी तरफ प्रजा-मंडल के नेताओं का शिमला में सम्मेलन हुआ, जिसमें डॉ. यशवंत सिंह परमार ने इस बात पर जोर दिया कि हिमाचल प्रदेश का निर्माण तभी संभव है, जब प्रदेश की जनता तथा राज्य के हाथों में शक्ति सौंप दी जाए। शिवानंद रमौल की अध्यक्षता में हिमालयन प्लांट गर्वनमेंट की स्थापना की गई, जिसका मुख्यालय शिमला में था।
दो मार्च, 1948 ई. को शिमला हिल्स स्टेट्स के राजाओं का सम्मेलन दिल्ली में हुआ। राजाओं की अगुवाई मंडी के राजा जोगिंदर सेन कर रहे थे। इन राजाओं ने हिमाचल प्रदेश में शामिल होने के लिए 8 मार्च 1948 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस तरह 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल प्रदेश राज्य का निर्माण किया गया।
मंडी, महासू, चंबा और सिरमौर चार जिलों में बांटकर प्रशासनिक कार्यभार एक मुख्य आयुक्त को सौंपा गया। बाद में इसे ‘ग’ वर्ग का राज्य बनाया गया। भाखड़ा-बांध परियोजना का कार्य चलने के कारण राजा आनन्द चंद के अधीन बिलासपुर रियासत को अलग प्रदेश के रूप रखा गया था। एक जुलाई, 1954 को कहलूर रियासत को हिमाचल प्रदेश में शामिल करके प्रदेश का पांचवां जिला बिलासपुर नाम से बनाया गया। एक मई, 1960 को छठे जिले के रूप में किन्नौर का निर्माण किया गया। इसमें महासू जिले की चीनी तहसील तथा रामपुर तहसील के 14 गांव शामिल किए गये।
कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल, स्पीति, शिमला आदि अभी भी पंजाब में थे। 1965 में हिमाचल तथा पंजाब के पर्वतीय क्षेत्रों का एकीकरण करते हुए पंजाब राज्य पुनर्गठन का प्रस्ताव लाया गया लेकिन पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरों किसी भी दशा में पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र को हिमाचल में शामिल किये जाने के विरुद्ध थे। कैरों हिमाचल को पंजाब में मिलाकर महापंजाब या विशाल पंजाब (ग्रेटर पंजाब) बनाना चाहते थे। उनकी इस अव्यावहारिक सोच तथा घोर विरोध के कारण डॉ. परमार और कैरों के बीच काफी कड़वाहट आ गई थी।
आखिरकार पंजाब राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर 1 नवंबर, 1966 को पंजाब राज्य का पुनर्गठन हुआ। इसके बाद पंजाब के कांगड़ा, कुल्लू, शिमला और लाहौल-स्पीति जिलों के साथ ही अंबाला जिले का नालागढ़ उप-मंडल, जिला होशियारपुर की ऊना तहसील का कुछ भाग और जिला गुरुदासपुर के डलहौजी व बकलोह क्षेत्र को हिमाचल में शामिल कर दिया गया।
इसके बाद शुरू हुआ भिन्न-भिन्न राजनीतिक दलों से बनी ‘पहाड़ी एकीकरण समिति के ध्वज तले हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने का अभियान जिसका नेतृत्व डॉ. परमार ने किया। फिर जुलाई 1970 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की घोषणा की और दिसंबर 1970 को संसद ने इस आशय का बिल पारित कर दिया। इस तरह से हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा 25 जनवरी 1971 को मिला। हिमाचल को भारत का अठारहवां राज्य घोषित किया गया।
1 नवम्बर 1972 को कांगड़ा जिले को विभाजित कर तीन नए जिले कांगड़ा, ऊना और हमीरपुर बना दिए गए। महासू जिले को विभाजित कर सोलन और शिमला बनाये गए। इस तरह से आधुनिक हिमाचल अपने रूप में आया। डाक्टर परमार कांगड़ा की तहसीलों उना और हमीरपुर को अलग-अलग छोटे जिले बनाने के समर्थन में नहीं थे। वह इन दोनों को मिलाकर शिवालिक के नाम से एक जिला बनांना चाहते थे जिसका हेडक्वॉर्टर बड़सर होता। मगर निचले हिमाचल के नेताओं के दबाब के चलते वह अपनी इस सोच को सिरे नहीं चढ़ा पाए।
हिमाचल प्रदेश बहुत पहले ही अलग राज्य बन गया और इस वजह से आज तरक्की की राह पर तेजी से आगे बढ़ रहा है। उत्तराखंड को यह सुख मिलने में बहुत देर लग गई। डॉक्टर परमार की कोशिश आज के उत्तराखंड के हिस्सों को भी मिलाकर पहाड़ी राज्य बनाने की थी। उनका यह सपना तो पूरा नहीं हो पाया मगर आज भी उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के लिए आंदोलन करने वाले डॉक्टर परमार का नाम बड़ी इज्जत से लेते हैं। डॉक्टर परमार को उत्तराखंड में विशेष सम्मान प्राप्त है।
(संकलन: आशीष नड्डा)
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