लाहौल स्पीति के मडग्राम में होने वाला योर मेला 28 फरवरी से शुरू होने जा रहा है। लाहौल-स्पीति से जुड़े मुद्दे उठाने वाले पेज Lahaul Spiti ने अपनी पोस्ट में बताया है कि जनजातीय विकास विभाग और डिस्ट्रिक्ट ऐडमिनिस्ट्रेशन लाहौल की लोक संस्कृति के संरक्षण के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। आलम यह है कि लोगों में प्रसिद्ध इस मेले पर सरकार पैसा नहीं खर्च करती है। स्थानीय लोग ही अपने दम पर कई सालों से इस मेले का आयोजन कर रहे हैं।
फेसबुक पेज ने जो पोस्ट शेयर की है, उसका टेक्स्ट हम नीचे यथावत दे रहे हैं:
‘लाहौल स्पीति के अंचल-अंचल में लोक संस्कृति, लोक नृत्य, लोक गीत और लोक साहित्य अनन्य आयामों में बिखरा पड़ा है। शायद इसी परिप्रेक्ष्य में कहा भी गया है, ‘चार कोस पे पानी बदले, आठ कोस पे वाणी।’ यही बदलती हुई वाणियां, मसलन वे बहु बोलियां हैं, जो सांस्कृतिक विविधता के विविध लोकरूपों में आयाम रचती हैं।
मगर जनजातीय विकास विभाग और जिला प्रशासन लाहौल के लोक संस्कृति और लोक नृत्य के संरक्षण के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं। मङ्ग्राम योर में सरकार ने एक रुपया भी आजतक नहीं खर्च किया मगर गाँव के लोग अपने दम से इतने सालों से योर मेला आयोजित कर रहे हैं।
हमें अपनी ज्ञान परंपरा और इतिहास बोध भी इसी लोक संस्कृति से होता है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनेताओं और नौकरशाहों की सांस्कृतिक चेतना विलुप्त हो रही है। इन दोनों ने लाहौल में जो सांस्कृतिक बहुलता है, उसे सर्वथा नजरअंदाज कर सांस्कृतिक सरोकारों का मुंबइया फिल्मीकरण कर दिया। वैचारिक विपन्नता का यह चरम, इसलिए और भी ज्यादा हास्यास्पद व लज्जाजनक है, क्योंकि जिलें में ज्यादातर जनजातीय अधिकारी हैं, जो जनजातीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ध्वजा फहराने का दंभ भरती हैं।
हमारी लोक संस्कृतियां ही हैं, जो अवाम को संस्कृति के प्राचीनतम रूपों और यथार्थ से परिचित कराती हैं। हजारों साल से अर्जित जो ज्ञान परंपरा हमारे लोक में वाचिक परंपरा के अद्वितीय संग्रह के नाना रूपों में सुरक्षित है, उसे उधार की छद्म संस्कृति द्वारा विलोपित हो जाने के संकट में डाला जा रहा है। इस संकट को भी वे राज्य सरकारें आमंत्रण दे रही हैं, जो संस्कृति के संरक्षण का दावा करने से अघाती नहीं हैं।’