बीजेपी सरकार का घोटाला दबाकर नैतिकता का ढोंग करते रहे शांता कुमार?

आई.एस. ठाकुर।। यह चौंकाने वाली बात है कि जिन शांता कुमार को हम हिमाचल ही क्या, पूरे भारत का सबसे बेबाक और ईमानदार नेता मानते आए थे, वास्तव में वह नैतिकता का लबादा ओढ़कर बैठे रहे। यह बात जानकर बहुत ही दुख हुआ कि शांता कुमार ने देश और अपने आदर्शों से ज्यादा तरजीह अपनी पार्टी को दी और सरकार में हुए भ्रष्टाचार पर कुंडली जमाकर बैठे रहे। यह सब उस समय हुआ, जब 2003 में देश में बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार थी।

शांता कुमार ने हाल ही में आत्मकथा जारी की है। उसमें उन्होंने बताया है कि साल 2003 में ग्रामीण विकास मंत्री रहे वेंकैया नायडू के मंत्रालय में 300 करोड़ का घोटाला हुआ था। अपनी पिछली किताब में भी वैसे तो शांता कुमार इसका जिक्र कर चुके हैं लेकिन उन्होंने पहली बार वेंकैया नायडू का नाम लिखा है और ये भी विस्तार से लिखा है कि क्यों उन्होंने इस बारे में खुलकर कुछ नहीं किया।

शांता कुमार लिखते हैं कि जब उन्होंने घोटाले को दबाने से इनकार किया तो बड़े नेताओं के दबाव में उनसे ग्रामीण विकास मंत्री पद छीन लिया गया था। शांता बताते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, आरएसएस, संसदीय कार्य मंत्री रहे प्रमोद महाजन सहित किसी भी नेता ने उनका साथ नहीं दिया था।

शांता लिखते हैं कि उन्होंने उस वक्त पार्टी छोड़कर लोकसभा में प्रमाणों सहित घोटाले का खुलासा करने का मन बना लिया था, लेकिन पत्नी संतोष शैलजा ने ऐसा करने से रोक लिया। पत्नी ने समझाया कि मैंने पूरा जीवन जिस पार्टी के लिए लंबा संघर्ष किया, उसे इतनी बड़ी हानि होगी कि मैं स्वयं उसके लिए खुद को कभी क्षमा नहीं कर सकूंगा।

और इस तरह शांता कुमार की नैतिकता देश के प्रति खत्म हो गई थी। उनकी वफादारी पार्टी के प्रति पैदा हो गई थी। भले ही देश का 300 करोड़ रुपया गबन कर लिया जाए, गबन करने वाला नेता सुरक्षित रहे, उसे बचाने वाले नेता फिर सत्ता में आ जाएं और भले इससे बड़ा घोटाला कर लें, लेकिन शांता कुमार की अंतरात्मा ने पार्टी के प्रति वफादारी निभाना ही उचित समझा।

आत्मकथा में वह लिखते हैं, “आखिरकार अटल जी ने मुझसे इस्तीफा ले लिया, लेकिन मैंने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। कभी सार्वजनिक रूप से इस बारे में बात नहीं की थी। संघ पर से भी विश्वास हिल गया था। संघ ने भी सहायता नहीं की।”

हैरानी की बात है कि शांता किन सिद्धांतों से समझौता न करने की बात कर रहे हैं? क्या 300 करोड़ के घोटाले की बात छिपाना सिद्धांतों से समझौता करना नहीं था? शायद उस समय उन्हें भी राजनीति में प्रासंगिक बने रहने का मोह हो गया था। वरना सिद्धांतों से समझौता न करने का मतलब होता- देश और जनहित में उस घोटाले को सामने लाना।

वैसे तो कोई आदमी परफेक्ट नहीं होता, मैं भी नहीं हूं और शांता कुमार भी नहीं हैं। लेकिन आए दिन वह दूसरों को आदर्शों का सबक पढ़ाते रहे हैं। वह बताते रहे हैं कि कैसे भ्रष्टाचार इस देश को खोखला कर रहे है। वह यह कहने की हिम्मत रखते हैं कि उनकी पार्टी की सरकार के दौरान भी भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ। वह व्यापमं घोटाले को लेकर उठते सवालों को लेकर भी चिट्ठी लिख देते हैं। लेकिन खुद कुछ साल पहले उन्होंने जो किया था, वह बेहद दुखद और शर्मनाक था। बाकियों के लिए नहीं, लेकिन शांता कुमार जैसे व्यक्तित्व के लिए तो था ही।

पिछले कुछ सालों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के दौरान जो कुछ फैसले लिए गए, जिस तरह से अलग-अलग राज्यों में विधायकों की खरीद-फरोख्त, दल-बदल से सरकारें बनीं, उस पर शांता कुमार ने कभी उस पर कुछ नहीं कहा। मार्गदर्शक होकर भी उन्होंने एक मार्गदर्शक की तरह एक भी हिदायत अपनी पार्टी और उसकी सरकार को नहीं दी। उल्टा हर मोर्चे पर उसका बचाव किया और तारीफें कीं। यह बताता है कि शांता कुमार की वफादारी देश और देशवासियों से ज्यादा पार्टी के लिए रही।

मगर हम जैसे लोगों का आपसे सवाल करने का हक बनता है। इतना कुछ हासिल कर लिया आपने, जीवन भर आपने दूसरों को प्रेरित ही किया, फिर आज भी क्यों खुलकर कुछ कहने से इतना डर? आपकी निष्ठा पार्टी के प्रति है या देश के प्रति? सिर्फ आत्मकथा में सच लिख देने से आपका अपराध कम नहीं हो जाता। आपने गलत किया है और इसका मलाल आपको हो न हो, उस जनता को जरूर रहेगा जो आपकी ईमानदारी, बेबाकी, हिम्मत और सत्यवादिता की मिसाल दिया करती थी। आपने हमें निराश किया है।

ये लेखक के निजी विचार हैं

(लेखक लंबे से समय हिमाचल और देश-दुनिया के विषयों पर लिख रहे हैं, उनसे kalamkasipahi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

संदर्भ: शांता कुमार ने आत्मकथा में लिखा है-

शांता लिखते हैं कि वर्ष 2003 में ग्रामीण विकास मंत्री वेंकैया नायडू को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उनका ग्रामीण विकास मंत्रालय मुझे दिया गया। कुछ दिन बाद तमिलनाडु के दो सांसद मिलने आए। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में आंध्र प्रदेश को 90 करोड़ स्वीकार किए गए थे, लेकिन मंत्रालय से जब पत्र जारी हुआ तो 90 करोड़ का 190 करोड़ कर दिया गया।

तीन वर्ष से आंध्रप्रदेश को प्रति वर्ष 100 करोड़ अधिक जा रहा है। लोकसभा में भी यह प्रश्न लगने नहीं दिया गया। शांता ने लिखा है कि उन्होंने आरोपों के आधार पर जब जांच की आरोप सही निकले। जांच में पाया गया कि योजना आयोग की फाइल में स्वीकृत राशि 90 करोड़ थी। मंत्रालय से जब धन भेजा गया तो 190 करोड़ भेजा गया। अधिकारियों से जब पूछा तो उनके पास कोई जवाब नहीं था।

शांता ने लिखा है कि उन्होंने 300 करोड़ के घोटाले की फाइल संसदीय कार्य मंत्री प्रमोद महाजन को भी दिखाई। उन्होंने मुझे बताया कि इस विभाग के उस समय जो मंत्री थे, वह अब पार्टी के अध्यक्ष हैं। इसलिए चिंता छोड़ो और यह सब भूल जाओ। फिर मैंने फाइल प्रधानमंत्री को भी दिखाई। अटल जी हैरान होकर कहने लगे यह क्या हो रहा है। फिर चुप हो गए। लालकृष्ण आडवाणी, योजना आयोग के अध्यक्ष केसी पंत को भी यह बात बताई। किसी के पास कोई उत्तर नहीं था।

शांता ने किताब में लिखा है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष वेंकैया नायडू मुझसे नाराज थे, क्योंकि मैंने उनके प्रदेश को हर साल मिलने वाला 100 करोड़ रोक दिया था। मेरे खिलाफ अपनी ही पार्टी के हिमाचल और देश से कुछ नेता एकजुट हो गए। मुझ पर अनुशासनहीनता के आरोप लगाकर अटल जी पर मेरा इस्तीफा देने का दबाव बनाया गया।

 

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