यह लेख 18 जनवरी 2018 को प्रकाशित हुआ था। यह हमें एक पाठक ने भेजा था जो उस समय हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तावित संस्कृत विश्वविद्यालय को लेकर छपे एक लेख- “संस्कृत विश्वविद्यालय क्यों खोलना चाहती है हिमाचल सरकार?” का जवाब था। दूसरी क्लास के बच्चों को संस्कृत पढ़ाए जाने के प्रस्ताव पर छिड़ी बहस के बीच हम इसे पुनः प्रकाशित कर रहे हैं।
मनोज चौधरी।। आज सुबह ही इन हिमाचल पर लेख पढ़ा जिसमें हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा संस्कृत विश्वविद्यालय खोलने के प्रयास की आलोचना की गई थी। लेखक ने जो तर्क दिए थे, उनमें से कुछ तो अच्छे हैं मगर लगता है कि उन्होंने दूसरे पहलू को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है।
लेखक का कहना सही था कि भाषा इसलिए विलुप्त होती है क्योंकि वह बोलचाल से गायब हो जाती है और उसकी जगह अन्य प्रचलित भाषाएं ले लेती है। कई सारी भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं आज और वैश्वीकरण के दौर में जिस तरह से अंग्रेजी पूरी दुनिया में बोली जा रही है, भाषाओं के लुप्त होने की रफ्तार बढ़ी है और आने वाले समय में और भाषाएं भी लुप्त हो जाएंगी।
अन्य देशों से सीखना चाहिए हमें
मगर हमें सीखना चाहिए चीन, कोरिया, रूस, जापान, जर्मनी, फ्रांस और स्पेन समेत कई देशों से जिन्होंने अपनी भाषाओं को बरकरार रखा है। जहां तक बात है संस्कृत की, हमें यह मानना पड़ेगा कि संस्कृत आज से लुप्तप्राय नहीं है, बल्कि बहुत पहले से ही यह कभी व्यापक जनसमूह की भाषा नहीं रही। यह भाषा अपने आदिकाल से समानांतर चलती आ रही है और एक वर्ग ही इसे इस्तेमाल करता आ रहा था। दूसरी तरफ कई भाषाएं और बोलियां बनती-बिगड़ती रहीं और नई भाषाएं उनकी जगह लेती रहीं। ऐसे ही, जैसे कि हिंदी एक नई भाषा के रूप में उभरी।
जनभाषा न रहकर भी महत्वपूर्ण रही है संस्कृत
तो बहुत से पाठक जो टिप्पणियां कर रहे थे कि संस्कृत आज लुप्त हो रही है, यह बात सही नहीं है। यह पहले कभी भी व्यापक स्तर पर जनभाषा नहीं रही। मगर हिंदू, बौद्ध, जैन समेत कई धर्मों की भाषा यही रही है। देवनागरी के अलावा अन्य लिपियों में भी यह लिखी जाती रही मगर भाषा बरकरार रही। लेखक का कहना सही है कि सरकारी तौर पर पहचान मिलने के बावजूद इसे सरकारी कामकाज में इस्तेमाल नहीं किया जाता और कई कार्यक्रम चलाए जाने के बवाजूद व्यापक स्तर पर लोग इसे बोलचाल में इस्तेमाल नहीं कर रहे।
संस्कृत को लेकर कुछ समस्याएं तो हैं
इसकी भी व्यावहारिक दिक्कते हैं क्योंकि भारत में कई बोलियां और क्षेत्रीय भाषाएं हैं। अपनी बोलियों से उठकर कोई पहले अपने राज्य में प्रचलित भाषा सीखे या अंग्रेजी सीखे या फिर संस्कृत? उदाहरण के लिए हिमाचल का एक बच्चा कांगड़ी बोलता था। स्कूल में जाकर उसने हिंदी सीखी। फिर इंग्लिश सीखी। साथ में उसे और विषय भी तो पढ़ने हैं। फिर जब संस्कृत एक विषय के तौर पर आता है तो उसे धातु और शब्द आदि को रटना पड़ता है। अध्यापकों का रवैया ऐसा होता है कि इस रटने-रटाने से नफरत ही हो जाती है। फिर जहां विकल्प मिलते हैं तो संस्कृत के अलावा आर्ट्स या होमसाइंस का रुख करने लग जाते हैं बच्चे। फिर कैसे आप संस्कृत की तरफ बच्चों की रुचि जगाएंगे?
और मान लीजिए मैं संस्कृत में पढ़ाई करता हूं, एमए, एमफिल कर लेता हूं तो सभी को टीचर या अकादमिक क्षेत्रों में नौकरी तो मिलेगी नहीं। मैं किसी सस्कृत विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृत या अन्य विषयों में पढ़ाई करता हूं तो उसके बाद मेरे लिए रोज़गार के अवसर क्या हैं? जरूरी नहीं कि मैं धार्मिक रीति-रिवाजों को अंजाम देने वाला पुरोहित बन जाऊं। यह जरूर है कि मैं संस्कृत को जानूं और ग्रंथों के अध्ययन में मुझे सुविधा होगी। मगर व्यावहारिक दिक्कतें तो होंगी की।
फिर रास्ता क्या है?
मैंने देखा है कि जितने भी संस्कृत विश्वविद्लाय हैं, वहां पर एक जैसे कोर्स हैं। इसलिए अगर सरकार हिमाचल प्रदेश में संस्कृत यूनिवर्सिटी खोलती है तो उसे कोर्स अलग ढंग से डिजाइन करने होंगे। और फॉरमैलिटी के लिए एक और खोल देनी हो तो पहले के संस्थानों जैसी तो कोई फायदा नहीं है। उदाहरण के लिए उसे ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि छात्र इंडो-यूरोपियन स्टडीज़ पर काम करें। उदाहऱण के लिए इटैलियन और संस्कृत में कितनी समानताएं हैं, या अन्य भाषाओं में क्या-क्या समानताएं हैं। उस लिहाज पर काम करें। इससे यूरोपीय देशों के लोगों में भी इस यूनिवर्सिटी की तरफ आकर्षण पैदा होगा। और यहां से छात्र निकलेंगे, उनके लिए उन यूरोपीय देशों के विश्वविद्यालयों में भी जगह मिलेगी। दुनिया भर की यूनिवर्सिटीज़ में इसके सेंटर्स हैं।
अन्य विदेशी भाषाएं भी पढ़ाई जाएं
कहने का अर्थ यह है कि संस्कृत यूनिवर्सिटी को सिर्फ पुरातन ग्रंथों के अध्ययन तक सीमित न रखा जाए। इसे शोध पर आज के समय के आधार पर नया बनाया जाए। साथ ही विदेशी भाषाओं को भी सिखाया जाए यहीं पर। यानी संस्कृत मे तो निपुण हों ही छात्र, कोई विदेशी भाषा जैसे कि इटैलियन, फ्रेंच, जर्मन भी सीखें। ऐसा करेंगे तो संस्कृत में नहीं तो कम से कम उन भाषाओं में तो रोज़गार मिलेगा ही। शोध में मदद मिलेगी सो अलग। वैसे भी दुनिया भर से स्कूलों में संस्कृत पढ़ाई जाने लगी है। हमारे यहां से निकले बच्चे उस देश की भाषा जानेंगे, तभी उनके लिए वहां रोज़गार के अवसर खुलेंगे।
यूरोप में पैदा होगा संस्कृत के लिए आकर्षण
और जहां तक पिछले लेख में लेखक ने कहा है कि रोजगार वाली भाषा को ही प्राथमिकता देनी चाहिए, मैं उनसे पूछना चाहूंगा कि एमबी बीए किसी अन्य विषय में करने वालों के पास कितनी नौकरियां हैं? कितने इंजिनियरिंग करके आज घर बैठे हैं? मेरा मानना है कि जिस कॉन्सेप्ट की मैंने ऊपर बात की है, अगर हिमाचल प्रदेश संस्कृत यूनिवर्सिटी उसी तर्ज पर चलेगी तो यहां से निकलने वाले छात्र यूरोप और पश्चिमी देशों के लिए संस्कृत के ध्वजवाहक होंगे। वे वहां पर संस्कृत के प्रति जिज्ञासा पैदा करेंगे।
स्कूलों में संस्कृत को मिले प्रोत्साहन
बाकी सरकार को भी चाहिए कि स्कूलों में संस्कृत को सहज बनाने के लिए अध्यापकों को ट्रेनिंग दे। अच्छा प्रदर्शन करने वालों को छात्रवृत्ति मिलनी चाहिए और अच्छी खासी मिलनी चाहिए। वरना मुझे याद है कि पठ धातु सही से न सुना पाने पर शास्त्री जी ने हमारी ऐसी धुनाई की थी कि नौवीं क्लास में मैंने संस्कृत छोड़कर उर्दू रख ली थी। खैर, उर्दू सीखने का तो फायदा मुझे हुआ ही मगर मेरे जैसे कई सहपाठी थे जो शास्त्री जी की मार से बचने के लिए संस्कृत छोड़ गए थे। कोई आसान तरीका इजाद किया जाना चाहिए जिससे संस्कृत आसान और रुचिकर लगे बच्चों को।
और आखिर में यह भी बता दूं कि कुछ पाठक टिप्पणी कर रहे ते नासा में संस्कृत को प्रोग्रामिंग के लिए इस्तेमाल किया जाता है या फिर वहां पर शोध हो रहा है। यह सिर्फ अफवाह है और इस तरह की कोई प्रोग्रामिंग नहीं हो रही। जो लोग हीनभावना से ग्रस्त होते हैं, जिन्हें अपने ऊपर विश्वास नहीं होता, वे ही अपनी चीज़ों को बेहतर दिखाने के लिए ऐसे हथकंडे अपनाते हैं। वॉट्सऐप और फेसबुक ने ऐसे अफवाह फैलाने वालों को बल दिया है। और आज की पीढ़ी को पढ़ने-लिखने की आदत तो है नहीं, जो वॉट्सऐफ फेसबुक पर जो कूड़ा आए, उसे सच मान बैठते हैं और फिर कोई टोके तो उसे मानने को तैयार नहीं होते। संस्कृत एक भाषा है, इसे भाषा रहने दिया जाए। फिर भी अगर लोगों की भावनाएं इससे जुड़ी हैं और इसे बनाए रखना है तो उसके लिए प्लानिंग की जरूरत है। अफवाहों और झूठी बातों की नहीं।
(लेखक कांगड़ा के शाहपुर से हैं और एक निजी स्कूल में हिंदी के अध्यापक हैं।)