आदर्श राठौर की फेसबुक टाइमलाइन से साभार।। एक वीडियो देखा जिसमें एक व्यक्ति बता रहा है कि कैसे कुछ लोगों ने उसकी पिटाई की और फिर बकरे की मांग की। यह मंडी जिले के वीडियो सियाज गांव का बताया जा रहा है जहां पर जालपू राम जी ने कथित तौर पर ओबीसी समाज के बरामदे में रखे गुग्गा महाराज के आगे शीश नवाने की कोशिश की तो वहां मौजूद लोगों ने उनकी पिटाई की। कथित तौर पर इसलिए कि जालपू अनुसूचित जाति से हैं।
वीडियो में वह बता रहे हैं कि कैसे उनसे बकरे की भी मांग की गई। बाद में वह किसी तरह वहां से बचकर आए। अब कहा यह जा रहा है कि पुलिस ने मामला तो दर्ज किया है मगर उसमे जाति के आधार पर दुर्व्यवहार और बकरे की मांग का कोई जिक्र नहीं है।
वैसे इस वीडियो में दिख रहे बाकी लोगों को सुनें तो वे कह रहे हैं- सीधे बकरा मांग लेना चाहिए था, पीटने की क्या जरूरत थी। यानी वे स्वीकार कर चुके हैं कि पिटाई करना गलत है मगर बकरा दिया जाना गलत नहीं। इसीलिए वे कह रहे हैं कि अगर कोई ‘अपराध’ हुआ था तो ‘बकरा’ दे देना चाहिए था। यानी उनके हिसाब से ऐसे तथाकथित ‘अपराध’ पर बकरा दिया जाना सही है।
हिमाचल प्रदेश शिक्षा और जीवनस्तर के मामले में भले ही देश के कई राज्यों से आगे है मगर यहां अभी तक जातिवाद और छुआछूत जैसी कुप्रथाएं बनी हुई हैं। ऐसी खबरें तो अक्सर पढ़ने-देखने को मिल जाती हैं कि फ्लां जगह के स्कूल में तथाकथित अगड़ी जातियों के बच्चों ने अनुसूचित जाति के बच्चों के साथ बैठकर मिड डे मील लेने से इनकार किया।
मंडी का ही एक मामला यह था कि जब इस तरह के मामले में प्रशासन ने हस्तक्षेप किया तो अभिभावकों ने अपने बच्चों को ही स्कूल से हटा लिया क्योंकि उन्हें यह मंजूर नहीं था कि वे तथाकथित ‘नीची’ जातियों के बच्चों के साथ खाना खाएं। यानी बच्चों के मन में ही ऊंच-नीच, छुआछूत का बीज बो दिया गया।
इस समस्या से बढ़कर एक और समस्या है- देवताओं के प्रकोप का डर दिखाकर शोषण। हिमाचल प्रदेश के कई मंदिर ऐसे हैं जहां पर दलितों का जाना वर्जित है। हाल ही में सरकाघाट क्षेत्र में एक पंडित ने एक जोड़े की मंदिर से बाहर ही पूजा करवाई थी। मंडी की चौहार घाटी में एक देवता के मंदिर के बाहर बोर्ड में साफ लिखा था कि ‘अनुसूचित जाति के भाइयों’ का आना वर्जित है। और तो और, ये शब्द घोड़े और डंगरों के साथ लिखे गए थे। हालांकि अब इस शब्द को हटा दिया गया है मगर अलिखित नियम बरकरार हैं।
इस मंदिर के अलावा भी बहुत सारे पुराने देवी-देवता ऐसे हैं जिनके पुजारी या कारदार कहते हैं कि देवता को ‘छोत’ या ‘छूत’ लगती है। यानी कोई दलित गलती से मंदिर, मूर्ति या अन्य साजो सामान को छू जाए तो इन लोगों के हिसाब से देवता रुष्ट हो जाता है। बदले में ऐसा करने वाले व्यक्ति से हर्जाने के रूप में बकरे की मांग की जाती है या बकरे की कीमत के बराबर धन की।
फिर डरा हुआ व्यक्ति देवप्रकोप के भय से बकरा दे देता है और फिर उस बकरे की बलि देकर देवता के पुजारी और कारदार चाव से खाते हैं। क्या देवता आदमी-आदमी में भेद कर सकते हैं? अगर वे करते हैं तो उनको देवता माना ही नहीं जाना चाहिए। दरअसल यह देवता की बनाई व्यवस्था नहीं, बल्कि देवता के आसपास रहकर अपना तंत्र चलाने वाले लोगों की बनाई व्यवस्था है। लेकिन हम इसलिए इस पर यकीन कर लेते हैं क्योंकि हमें लगता है कि ये देवता प्रत्यक्ष हैं और अपने गुर के माध्यम से हमसे संवाद करते हैं।
लेकिन देवताओं के इन पुजारियों आदि से पूछा जाना चाहिए दलित को छू लेने से इनकी और इनके मंदिर की पवित्रता नष्ट कैसे हो जाती है जबकि दलित द्वारा लाए गए बकरे को काटकर खाने में इन्हें कोई दिक्कत नहीं?
न जाने कितने ही सालों से लोगों को इस तरह से दबाकर रखने के लिए ये व्यवस्था बनाई गई है। दरअसल जाति व्यवस्था को बनाए रखने में इन लोगों को लाभ नजर आता है। क्योंकि खुद जो लोग जीवन में ऊपर नहीं उठ पाते, उन्हें किसी से तो बेहतर दिखना है। इसलिए वे कुछ लोगों को दबाकर रखना चाहते हैं ताकि उनकी तुलना में वो खुद को श्रेष्ठ समझ सकें। इसके लिए वे देव परंपरा और दैवीय प्रकोप का डर दिखाने से भी बाज नहीं आते। साथ ही बिना कुछ किए शराब पीने और बकरे खाने की सुविधा और कहां मिलेगी?
जब कभी इस तरह के मामले सामने आते हैं, यह कहकर बचाव किया जाता है कि मंदिर पर्सनल मंदिर है और इसमें किसे आने देना है किसे नहीं, यह हमारा अपना अधिकार है। इसी तरह से हो सकता है कै जालपू राम जी के साथ भी यही तर्क दिया जाए कि हमने अपने घर के अहाते में गुग्गा रखा था, कोई भी वहां कैसे आ सकता है। वे कह सकते हैं कि इसमें जाति का कोई ऐंगल नहीं है। हो सकता है वे उल्टा जालपू राम पर अपनी संपत्ति में घुसपैठ या चोरी की कोशिश का आरोप लगाने लग जाएं। बैकफुट पर आकर जालपू राम को ही मामला वापस लेना पड़ जाएगा।
इस तरह के मामलों में पुलिस का रवैया भी टालमटोल वाला होता है। क्योंकि पुलिस में भी तो हमारे समाज के ही लोग हैं। वे भी मानते हैं कि दैवीय शक्तियां छुआछूत मानती हैं। हमारे राजनेता भी इस व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ नहीं करना चाहते हैं क्योंकि यह लोगों की आस्था का विषय है। मगर लोगों की आस्था कुतर्क भरी नहीं हो सकती और अगर कुतर्क भरी मान्यता है तो उस मान्यता को संरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए।
हिमाचल तरक्की के लाख दावे करे, आधुनिकता का लाख दावा करे, यहां पर लोग अभी भी जातिवाद के दलदल में डूबे हुए हैं। बहुत से लोग हैं जो इस भावना से ऊपर उठे हैं तो कुछ उठ रहे हैं। मगर कुछ लोग तो ऐसे हैं कि जाति आधारित पक्षपात और भेदबाव को शुतुरमुर्ग की तरह सच मानने से इनकार कर देते हैं और कहते हैं जातिवाद है ही नहीं। कुछ लोग जब बैकफुट पर आते हैं तो आरक्षण का कुतर्क देकर इस तरह के दुर्व्यवहार को सही ठहराने लगते हैं।
वे भूल जाते हैं कि आप कहां जन्म लेते हैं, इसमें आपका वश नहीं होता। आपके पैदा होने में आपका कोई योगदान नहीं होता और न ही आप यह चुनाव करते हैं कि आप कहां पैदा होने वाले हैं। फिर जन्म के आधार पर दंभ पालने का मतलब क्या है? हो सकता था कि आप दलित परिवार में जन्मे होते। तब आपको इसी तरह का दुर्व्यवहार झेलना पड़ता तो कैसा लगता?
घरों में या निजी स्थानों पर होने वाले भेदभाव को रोकना सरकार के लिए भले सरकार के लिए सीधे-सीधे संभव न हो। मगर सार्वजनिक स्थानों पर होने वाले दुर्व्यवहार को सरकार ही रोक सकती है। मंदिरों, स्कूलों, अस्पतालों, सभाओं और अन्य स्थानों पर अगर किसी तरह के जाति आधारित दुर्व्यवहार का मामला सामने आता है तो पुलिस को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। साथ ही प्रबुद्ध लोगों को भी उन स्थानों पर जाना बंद कर देना चाहिए, जहां के मठाधीश जाति आधारित भेदभाव करते हों। ऐसे मंदिरों का भी बहिष्कार किया जाना चाहिए, जहां का पुजारी या जहां का सिस्टम लोगों का वर्गीकरण करता है, उनका शोषण करता है। फिर वह किसी का बनाया आधुनिक मंदिर हो या सदियों पुराने देवता या द्यो का मंदिर। तभी धर्म और आस्था के इन ठेकेदारों को आईना दिखाया जा सकता है।
(मूलत: मंडी जिले के जोगिंदर नगर के रहने वाले और इन दिनों दिल्ली में कार्यरत पत्रकार आदर्श राठौर की फेसबुक टाइमलाइन से साभार)