जिस दिन आचार्य देवव्रत को हिमाचल प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया था, उस दिन मैंने उनके बारे में थोड़ा रीसर्च किया था। मैंने पाया कि वह एकदम संघ की विचारधारा पर चलने वाले शख्स हैं। मुझे संघ या संघ से जुड़े लोगों से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है और उल्टा कई बातों को लेकर मैं उनसे सहमत भी हूं। कई साल शाखाओं में भी जाता रहा हूं। मगर मुझे तब संघ से दिक्कत होने लगती है, जब यह लोगों की जिंदगियों में घुसपैठ करके अपने हिसाब से चीज़ें चलाना चाहता है।
आचार्य देवव्रत हिमाचल प्रदेश आए और राज्यपाल बने। आते ही उन्होंने राजभवन में चल रहा मयखाना यानी बार बंद करवा दिया। उन्होंने कहा कि सुबह-शाम परिसर में हवन होगा, एक गाय पाली जाएगी और वह भी देसी। अच्छी बात है, उनकी जो इच्छा, वह करें। अगर बाकी राज्यपाल सरकारी पैसे से बार चालू रख सकते हैं तो उसी पैसे से वह हवन कराएं या पकौड़े खिलाएं, उनकी इच्छा। मगर मेरा माथा उस वक्त ठनका था, जब उन्होंने कहा था कि हिमाचल प्रदेश में संस्कृत को अनिवार्य करना और नशाबंदी करना उनका लक्ष्य है, ताकि यह सही मायनों में देवभूमि बन सके।
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कल उन्होंने दोबारा कहा कि हिमाचल प्रदेश में +2 तक संस्कृत अनिवार्य होनी चाहिए। हमारे कुछ हिंदू भाई, जो खुद को भारतीय सस्कृति का झंडाबरदार मानते हैं, बहुत खुश होते होंगे। वे फूले नहीं समाते कि वाह, यह राज्यपाल तो भारतीय संस्कृति को बढ़ावा दे रहा है। मगर इन्हीं लोगों में मैं सवाल पूछना चाहता हूं कि आपने संस्कृत पढ़ी है? जिन्होंने पढ़ी है, उनके कितने नंबर आते थे? और अगर अच्छे नंबर आते थे तो आज उस संस्कृत से उन्हें क्या फायदा हो रहा है?
आचार्य देवव्रत |
जाहिर है कुछ लोग पुरोहित बन गए होंगे, कुछ शास्त्री और कुछ प्रफेसर आदि भी। मगर बाकी लोगों का क्या? ‘पठ धातु’ और ‘मातृ-पितृ’ शब्द याद करने में जिन्हें पसीना आता था, अध्यापकों के डंडों से जिनके नितंब लाल हो जाया करते थे, क्या वे भी ईमानदारी से चाहते हैं कि संस्कृत प्लस टू तक पढ़ाई जानी चाहिए?
संस्कृत का बुनियादी ज्ञान हो, अच्छा है। हमने भी 10वीं कक्षा तक संस्कृत पढ़ी है और हमेशा 90 से ज्यादा अंक हासिल किए। छात्रवृत्ति पाई है संस्कृत के लिए मैंने। मगर मेरा मानना है कि संस्कृत पर फालतू का जोर देने के बजाय किसी अन्य विदेशी भाषा या फिर इंग्लिश पर ही जोर दिया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि जीवन भावनाओं पर नहीं, कठोर इम्तिहानों पर चलता है। आज इंग्लिश का ज्ञान जरूरी है। संस्कृत में न तो कहीं पर बातचीत होती है और न ही कहीं और किसी काम में इस्तेमाल होती है। फिर जीवन के मह्तवूर्ण 5-10 साल क्यों इसपर खपाए जाएं? क्यों न हिंदी या फिर इंग्लिश पर जोर दिया जाए, जिसका चारों तरफ इस्तेमाल हो रहा है।
देवभूमि का मान देवभूमि के रूप में तभी होगा जब यहां के लोग संपन्न होंगे, सफल होंगे। इंग्लिश के ज्ञान के बिना आज के दौर में सफल होना मुश्किल है। संस्कृत में पंडित बनकर शादी या हवन ही करवाया जा सकता है या फिर अध्यापन कार्य मिल सकता है। मगर वह भी कितनों को मिलेगा? मेरी गुजारिश है राज्यपाल महोदय से कि अगर आप प्रदेश के बच्चों के हित के बारे में नहीं सोच पाएं, तो कम से कम उनके अहित की योजना न बनाएं।
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यह तो अच्छा हुआ कि राज्यपाल के हाथ में कुछ नहीं होता, वरना इनका बस चले तो अपनी हर बात को लागू कर ही दें। अच्छी बात यह भी है कि राज्य में कांग्रेस सरकार है, इसलिए इनकी बातों को तवज्जो नहीं मिलेगी। मगर प्रदेश में बीजेपी की सरकार होती और मुख्यमंत्री संघ का करीबी होता तो प्रदेश की ऐसी-तैसी हो जाती औऱ वह भी सिंबॉलिक चीज़ों की वजह से।
बात संघ की इसीलिए हुई, क्योंकि देवव्रत “संघी” हैं और इसी वजह से वह इस पद पर भी हैं। जाहिर है, संघ का अजेंडा लागू करना चाहते हैं। संघ का यह अजेंडा कम से कम व्यावहारिक बिल्कुल नहीं है। संघ को भी वक्त के साथ अपने अंदर बदलाव लाना चाहिए। जबरन किसी बात पर अड़कर कुछ नहीं होगा। वरना तालिबान की कट्टर और स्थिर सोच और आपकी वैसी ही पक्की और पुरातन सोच के बीच कोई फर्क नहीं रहेगा।
लोग भला मानें या बुरा, मगर मैं तो प्रदेश हित की बात करता आया हूं और आगे भी बेबाकी से ऐसा ही करूंगा। भले ही आपको मेरी बातें अभी खराब लग रही हों, मगर इत्मिनान से सोचेंगे तो पाएंगे कि प्रदेश ही नहीं, देश के लिए भी ये बातें सही हैं।
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