- समरेश पालसरा
‘काली भेड़’, कितना प्यारा शब्द है यह। आजकल आए दिन हिमाचल के अखबारों में यह शब्द छप रहा है। कांग्रेस के नेता और खासकर मुख्यमंत्री इस शब्द को ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। ये जो काली भेड़ों का जिक्र चला है, दरअसल यह इंग्लिश के मुहावरे Black Sheep का हिंदी रूपांतरण है। ब्लैक शीप का मतलब हुआ- वह एक सदस्य, जो पूरे ग्रुप या कम्यूनिटी पर कलंक है। नीरज भारती ने कांगड़ा जिला परिषद में अध्यक्ष न बन पाने का ठीकरा किसी काली भेड़ पर निकाला था। इसके बाद कांगड़ा दौरे पर आए मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह जहां भी गए, वहां उन्होंने काली भेड़ का जिक्र किया। बोले कि मुझे काली भेड़ का पता है और कार्रवाई होगी, मैं ऊन काटूंगा.. वगैरह-वगैरह।
कहा जाता है कि किसी की खिल्ली उड़ाने से अपने गिरेबान में जरूर झांक लेना चाहिए। जो भी शख्स आज प्रदेश में राजनीतिक आरोपबाजी के लिए इसे इस्तेमाल कर रहा है, वह आईना देखे तो खुद को भी काली भेड़ पाएगा। तो क्या इस मुहावरे को इस्तेमाल करने से पहले आईना देखा गया? मुझे लगता है कि नहीं। इस प्रदेश का हर वह राजनीतिक शख्स काली भेड़ है, जिसने जनता और प्रदेश के लिए कुछ करने के बजाय अपने हित के लिए चमचागिरी को अपना धर्म बना लिया है। कांग्रेस और बीजेपी ही नहीं, हर पार्टी में ऐसी काली भेड़े हैं। मैं तो कहता हूं कि रानजीति में ही ऐसी कई काली भेड़े हैं, जिन्होंने राजनीति को बदनाम करके रख दिया है।
चूंकि यह शब्द सत्ताधारी पार्टी के लोगों द्वारा ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है, इसलिए आज बात इसी पार्टी की करूंगा। मैं सोशल मीडिया पर जुड़ा रहता हूं। देखा कि सबसे पहले काली भेड़ शब्द कांग्रेस के युगपुरुष नीरज भारती ने इस्तेमाल किया। वही महान नेता, जिन्होंने सोशल मीडिया पर अभद्र भाषा इस्तेमाल करने में नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। जिन्होंने देश के प्रधानमंत्री तो क्या, अन्य बड़ी हस्तियों तक को नहीं बख्शा। जिसकी भाषा सोशल मीडिया पर मोहल्ले के बीड़ीबाज़ की तरह होती है। जो तर्क देता है कि मैं भाजपाइयों को उन्हीं की भाषा में जवाब दे रहा हूं। यानी राजनीति में वह उच्च मानक स्थापित नहीं करेंगे, बल्कि गिरे हुए स्तर पर जाकर कीचड़ उछालेंगे। यह है हिमाचल की राजनीति का भविष्य। सामने वाला बेवकूफी करे तो आप भी बेवकूफी करेंगे?
खैर, मुख्यमंत्री साहब को चाहिए था कि अभद्र भाषा इस्तेमाल करने वाले अपने विधायक को टोकें। परिवार के मुखिया की तो यही जिम्मेदारी होती है न। मगर जनाब ने हर मंच पर अपने इस बिगड़ैल विधायक की पीठ थपथपाई। वह कहते रहे कि गलत ही क्या है इसमें? मुख्यमंत्री की यह लापरवाही और विधायक की ढिठई क्या पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता को नहीं अखरी? और तो और, अब जब नीरज भारती ने काली भेड़ा का जुमला इस्तेमाल किया, तो मुख्यमंत्री ने खुद ही इसे अपना लिया। दरअसल हिमाचल प्रदेश के ये खामोश रहने वाले नेता और कार्यकर्ता खुद काली भेड़ हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि वे गलत बातों पर खामोश रहकर स्वामिभक्ति दिखा रहे हैं। क्योकि उनके लिए प्रदेश और जनता बाद में, अपने हित पहले हैं।
प्रदेश में हो रही वाहियात राजनीति और परिवारवाद की धूम के लिए वे काली भेड़ें जिम्मेदार हैं, जो अपनी ऊन (अपना सबकुछ) अपने मालिकों को समर्पित कर देना चाहती हैं। जी हां, कुछ दिन पहले मेरे पड़ोस में रहने वाला 3 साल का बच्चा नर्सरी स्कूल में एक नई कविता (rhyme) सीखकर आया। वह कुछ इस तरह से है- Baa… Baa.. Black Sheep
इसका सार आपको बता देता हूं। काली भेड़ से पूछा जाता है कि क्या तुम्हारे पास ऊन है? भेड़ कहती है कि हां, तीन बैग हैं। एक हिस्सा मेरे स्वामी के लिए है, एक मालकिन के लिए और बाकी का बचा हिस्सा नन्हे बच्चे के लिए है।
ये मालिक-मालकिन और बच्चा क्या आपको किसी राजनीतिक परिवार की याद दिलाता है? आप समझदार हैं। तो इस कविता के हिसाब से काली भेड़ें दरअसल वे कार्यकर्ता और नेता हैं, जिन्होंने संगठन की ऐसी-तैसी करके इस परिवार की चमचागिरी में अपनी ऊन समर्पित कर दी है। हिमाचल प्रदेश में युवा बेरोजगारी से जूझ रहे हैं, सड़कें खस्ताहाल हैं, अस्पतालों में डॉक्टर नहीं हैं, स्कूलों में टीचर नहीं हैं, बच्चे ठंड में फटी टाटों पर बैठ रहे हैं और इधर फालतू की राजनीति हो रही है।
कांग्रेस हो या बीजेपी, दोनों पार्टियों की काली भेड़े शर्म करें। अपनी ऊन को बचाकर रखें और अपने लिए ही इस्तेमाल करें। क्यों ऐसे परिवारों के चक्कर में अपनी ऊन लुटा रहे हो, जो वक्त आने पर आपको काटने से भी पीछे नहीं हटेंगे।
(लेखक भूतपूर्व सैनिक हैं और मूलत: नाहन से हैं। इन दिनों देहरादून में एक निजी सिक्यॉरिटी फर्म चला रहे हैं। इनसे samreshpalsra59@yahoo.co.in पर संपर्क किया जा सकता है।)