पंचायत चुनाव में पार्टीबाजी ग्रामीण विकास एवं भाईचारे के लिए घातक : लेख
- आशीष नड्डा
गुलाबी ठण्ड की शुरुआत से ही प्रदेश की राजनैतिक फिजाओं में एक अलग तरह की गर्मी का एहसास भी होने लगा है। दिसम्बर में पंचायत चुनाव आने वाला हैं। गावँ -घर की राजनीति को चूल्हे तक प्रभावित करने वाला यह चुनाव लोकतंत्र में हार जीत के हिसाब से सबसे कठिन माना जाता है , क्योंकि प्रत्याशी के अच्छे बुरे आचार व्यव्यहार कर्म से मतदाता पूरी तरह वाफिक रहता है।
सरपंच का चुनाव जहां पड़ोसी राज्यों मे एक विधायक के चुनाव की तरह बन जाता है वहीं हिमाचल प्रदेश की बात की जाए तो पैसा परोसने के मामले मे पड़ोसी राज्यों से हिमाचल बहुत पीछे है। हालांकि शराब बकरा बांटा जाना हिमाचल के ग्रामीण परिवेश मे चलता है पर यह सब यहाँ सामर्थ्य अनुसार ही हो पाता है । यह सब करने के बाद जरूरी भी नहीं की जीत इसी से तय हो।
पंचायत चुनाव के समीकरणों पर नजर डाली जाए तो इस चुनाव ने वक़्त के साथ बहुत रंग बदले हैं। शुरआती दौर की बात की जाए तो इलाके के मान्यवर धाक रखने वाले लोग ही चुनाव में उतरा करते थे। जनता भी प्रत्याशी के दम ख़म समाज में चरित्र रुतबे बेबाकी को देखकर फैसला लेती थी। इसके कुछ कारण भी थे जनता को सिर्फ आपसी विवाद सुलझाने के लिए पंचायतों का रुख करना होता था इसलिए ऐसे व्यक्ति का सरपंच या पंच होना जरूरी होता था जिसकी समाज में बात मानी जाती हो जिसका फैसला सबको स्वीकार्य हो जो फैसला देने की हिम्मत भी रखता हो। उस दौर में पंचायतों को विकास कार्य के लिए इतना धन नहीं आता था , पंचायत सदस्य होना एक पार्ट टाइम कार्य की तरह था। अधिकांश पंचायतों के कोई अपने भवन भी नहीं थे। कोरम के दौरान भारी तादाद में लोग पहुंचा करते थे ,पंचो का फैसला सर्वमान्य होता था उसे भेदकर कोर्ट जाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता था। पार्टीबाजी राजनिति का कोई नामो निशान नहीं था।
90 के दशक में पंचायत चुनाव में एक नयी तरह का फ्लेवर आया। यह फ्लेवर प्रत्याशी को सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर चुनने से सबंधित नहीं था बल्कि जातिगत समीकरणों पर आधारित था। इस दौर के लगभग सभी चुनाव जातिगत आधार पर होने लगे फलां बंदा हमारी जाती का है यह समीकरण हार -जीत निर्धारित करने लगे। हालाँकि ऐसा नहीं कहा जा सकता की पहले जातिवाद नहीं था परन्तु हाँ, सामजिक प्रतिष्ठा से सर्वोपरि नहीं था। सरपंच बनने के लिए शराब का बांटा जाना , बकरे काटना आदि इसी दौर के टोटके रहे। इस दौर में महिलाओं ने भी आरक्षण के दम पर पंचायती सरदारी में कदम रखा। चूल्हे – चौके तक सिमटी महिला अब गावं के विवादों (बीड़ -बन्ने ) पर फैसले देने लगी। विकास कार्यों के लिए भी धन में इजाफा हुआ। कौन किस पार्टी राजनैतिक दल से है इसकी सुगबुगाहट गाहें बगाहें इस दौर में रही परन्तु क्षेत्रीय मुद्दों को भेदकर निर्णायक नहीं हो पायी।
अब हम इक्कसवीं सदी के पंचायती राज की बात करते हैं। यह रोजगार गारंटी योजना का दौर है। गरीबों के चयन से लेकर लाखों के विकास कार्यों की जिमेवारी पंचायतों के ऊपर है। स्वछता अभियान शोचलाय निर्माण सैंकड़ों तरह की योजनाये भारत सरकार पंचायतों के माध्यम से ग्रामीण स्तर तक पहुँचाने की अभिलाषी है। पंचायत भवन में सुख सुविधाएँ कंप्यूटर का आगमन हो चूका है, बकायदा एक सचिव सारे कार्य देख रहा है। जाहिर है जब विकास कार्य के लिए धन की इतनी आमद है तो सरपंच बनने के लिए चाह्वानों की फेरहिस्त भी लम्बी होगी और हुयी है।
सामाजिक प्रतिष्ठा रुतबा बेबाकी अब पीछे रह गयी है। बीड बन्ने की लड़ाई अब सीधे थाने या कोर्ट में लड़ी जाने लगी है। एक सरपंच के लिए 20 उमीदवार फाइट करने लगे हैं। सरपंची अब पार्ट टाइम कार्य नहीं है।
इन सब के बीच जो नया फ्लेवर एड्ड हुआ है वो है पार्टीबाजी फ्लेवर। सामाजिक प्रतिष्ठा को पीछे छोड़कर , जाती पाती से होकर पंचायत चुनाव अब पार्टीबाजी की धुरी पर आकर घूमने लगा है। जिस चुनाव को कभी घरेलू कहा जाता था वो अब भाजपा कांग्रेस के नाम पर आ गया है। हिन्दू – मुस्लिम का बंटवारा फिर राजपूत ब्राह्मण – वैश्ये – शूद्र के फर्क से आगे अब हम भाजपाई कांग्रेसी नामक नयी ब्रीड में बंट गए हैं।
पंचयात यानी चार छ गावों का चुनाव है उसमें हम अब इस बेस पर यह निर्धारण करने लगें हैं की कौन आदमी किस पार्टी की विचारधारा का है। हालाँकि पंचायत चुनाव पार्टी चिन्ह पर नहीं लड़ा जाता परन्तु राजनैतिक पार्टिया इसे सेमीफइनल की संज्ञा देती हैं। बड़े बड़े नेता अपने वर्कर्स से आह्वाहन करते हैं पंचायत चुनाव के लिए तैयार रहो।
व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है ग्रामीण संसद के इस चुनाव में पार्टीबाजी का ज़हर घातक है। हमें पार्टी देखकर नहीं योग्यता देखकर चुनाव करना होगा। पार्टीबाजी की पट्टी आँखों पर बंधी रहेगी तो हम सही फैसला नहीं ले पाएंगे। पार्टीबाजी के नाम पर आया व्यक्ति गरीबों का चयन भी पार्टी वोट बैंक की मजबूती के मद्देेनजर करेगा और सबसे बड़ी बात आसपास के गावों में रहने वाले अपने ही लोगों को क्या हम पार्टीयों के आधार पर देखने लगेंगे यह कहाँ तक सही है। एक समान ग्रामीण विकास इससे प्रभावित होगा। मतदाता मतदाता रहे तभी लोकतंत्र की खूबसूरती है , अगर मतदाता भी कार्यकर्ता पार्टी विशेष का हो जायेगा तो जनमत का क्या वजूद रहेगा।
एक बात और है लाखों रुपये पंचायती कार्यों के लिए देने वाली सरकारों को पंचायत प्रतिनिधियों के वेतनमान में एक लेवल तक बढ़ोतरी करनी चाहिए। सरपंच होना आज के समय में पार्ट टाइम जॉब नहीं है। दो तीन हजार मानदेय पर सरपंची लोग कैसे कर रहे हैं, मैं नहीं जानता। या फिर सरकार ने भी अपनी तरफ से एक मौन स्वीकृति दे रखी है की अपने परिवार का लालन पोषण का खर्च पंचायत प्रधान विकास कार्यों के फण्ड से ही निकाल लें। फुल जॉब और दो हजार का मानदेय तो यही निष्कर्ष निकालता है। सरपंच का वेतन कम से कम 20 हजार होना चाहिए ताकि पढ़ा लिखा जागरूक युवा भी ग्रामीण संसद का हिस्सा बनने की सोचे।
” लेखक आशीष नड्डा आई आई टी दिल्ली में रेसेरच स्कॉलर हैं एवं इन हिमाचल के नियमित पाठक हैं और सामाजिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं। अन्य पाठक भी प्रदेश से सबंधित सामाजिक मुद्दे पर हमें inhimachal.in@gmail.com पर अपने लेख भेज सकते हैं।