इन हिमाचल डेस्क।। पिछली सरकार का कार्यकाल खत्म हुआ था तो चुनाव के दौरान कांग्रेस ने बीजेपी पर सत्ता में रहते हुए हिमाचल की जमीनों को बाहरी राज्यों के लोगों को बेचने का आरोप लगाया था और इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया था। मगर चुनाव से ठीक पहले हिमाचल प्रदेश की वीरभद्र सरकार की कैबिनेट ने कांगड़ा ज़िले के चुनिंदा चाय बागानों के मालिकों के लिए लैंड यूज़ को बदलने के लिए सैद्धांतिक मंजूरी दे दी है। इससे चाय के इन बागानों की जमीन को बेचे जाने का रास्ता खुल गया है, जिस पर हिमाचल प्रदेश सीलिंग ऑन लैंड होल्डिंग्स ऐक्ट के तहत रोक लगी हुई है। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की कैबिनेट ने इस बदलाव के लिए एक नई टर्म गढ़ी है और वह है ‘टी टूरिज़म।’
दरअसल सरकार ने कहा है कि लैंड यूज़ बदला गया है मगर सिर्फ टूरिज़म से जुड़े प्रॉजेक्टों के लिए। यानी ‘टी टूरिज़म’ के प्रचार के लिए ऐसा किया जा सकता है। मगर टी-टूरिज़म के नाम पर सरकार ने इतना बड़ा फैसला क्यों लिया और क्यों इतने दिनों से ऐसा करने में तुली हुई थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार में शामिल कुछ लोगों को इस डील से ‘लाभ’ होना है या उनके करीबियों को लाभ पहुंचना है?
ये सवाल उठते हैं अंग्रेजी अख़बार ‘द ट्रिब्यून’ की उस रिपोर्ट के आधार पर, जिसमें दावा किया गया है- ‘चाय बागान बेचने के लिए लॉबीइंग चल रही है। इसके मुताबिक टी गार्डन बेचे जाने से स्मार्ट सिटी धर्मशाला का हरियाली भरा हिस्सा गायब हो सकता है। दो कैबिनेट मीटिंगों में इससे पहले धर्मशाला के एक बड़े टी-गार्डन को बेचे जाने के लिए नियम बदलने की कोशिश की गई थी, मगर कुछ मंत्रियों ने विरोध किया था। मगर अख़बार ने दावा किया था कि इसका विरोध करने वाले मंत्रियों को पड़ोसी राज्य (इशारा पंजाब की ओर) में सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों से कॉल आया कि जरा अपने रुख में नरमी लाइए।
धर्मशाला में चाय के दो बड़े बागान हैं और दोनों का मालिकाना हक एक ही परिवार के पास है। पिछले पांच सालों ने कुमाल पथरी मंदिर के पास टी गार्डन की जमीन पर सरकार ने एक होटल बनाने की इजाजत दी थी। होटल प्रभावशाली लोगों का है और पूरा होने को तैयार है। कुछ समय पहले इसी सरकार ने कांगड़ा के चाय बागान की बिक्री पर रोक लगा दी थी। यह फैसला तब लिया या था जब सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण की एजुकेशन सोसाइटीको टी गार्डन की जमीन मिलने को लेकर विवाद हो गया था। मगर अब सरकार बड़े बागान मालिकों को खुश करने के लिए नियमों में ढील दे रही है।
हिमाचल प्रदेश सीलिंग ऑफ लैंड होल्डिंग्स (अमेंडमेंट) ऐक्ट 1999 के तहत चाय के उथ्पादन के लिए इस्तेमाल होने वाली जमीन की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया था और इसे किसी दूसरे काम में इस्तेमाल करने पर सरकार को इसका अधिग्रहण कर लेने का अधिकार मिल गया था। मगर कैबिनेट के फैसले से चाय बागान के मालिकों को लैंड सीलिंग ऐक्ट से इस शर्त पर छूट मिली है कि उन्हें कांगड़ा की चाय बागान की विरासत बरकरार रखनी है। मगर प्रश्न यह उठता है कि इस तरह की छूट सिर्फ चुनिंदा और बड़े रसूखदार चाय बागान के मालिकों को ही क्यों दी गई? छोटे बागान के मालिक भी तो जरूरत के समय, किसी बीमारी या आर्थिक संकट के चलते पैसों के लिए जमीन का हिस्सा बेचकर कुछ पैसे ला सकते हैं? उन्हें यह अधिकार क्यों नहीं? और रोक हटानी ही है तो पूरी रोक हटा दी जाए और सभी को चाय के बागीचे उखाड़कर वहां इमारतें बनाने का अधिकार दे दो और अपनी विरासत को नष्ट कर दो।
बता दें कि कानून कहता है कि किसी के पास भी 300 कनाल से ज्यादा का मालिकाना हक नहीं हो सकता, मगर कांगड़ा के चाय बागानों के मालिकों को यह छूट दी गई है कि वे सैकड़ों एकड़ अपने पास रख सकें। मगर यह छूट इस शर्त पर मिली है कि वे इसे बेचेंगे नहीं और इनकी देखभाल करेंगे। धर्मशाला और पालमपुर के सिर्फ दो राजनीतिक रूप से प्रभावशाली टी एस्टेट मालिकों के पास 1000 बीघा से ज्यादा ज़मीन है।
वैसे सरकारों की हालत का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि कांगड़ा जिलों मे कई धार्मिक संगठनों और बाबाओं सैकड़ो कनाल जमीन चाय बागानों की ली हुई है और उसके ऊपर पक्के ढांचे खड़े कर दिए हैं। यह सब खुलेआम हुआ मगर सरकार और प्रशासन मूकदर्शक बने रहे। आज तक किसी भी पार्टी के नेता की जुबान इसके खिलाफ नहीं खुली। इसी तरह से अब कैबिनेट ने जो तथाकथित शर्तों के तहत ‘टी टूरिज़म’ के नाम पर छूट दी है, उसकी भी धज्जियां यदि उड़ेंगी तो कोई कुछ नहीं बोलेगा। मगर जितनी बेचैन मौजूदा सरकार नियमों में परिवर्तन देने के लिए दिख रही थी, वह भी चुनाव से ठीक पहले, इसके लिए उसकी नीयत पर सवाल उठना लाजिमी है। साथ ही विपक्ष की खामोशी पर भी।