धर्मपुर में 423 करोड़ के मशरूम प्रॉजेक्ट पर एक्सपर्ट ने उठाए सवाल

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मंडी।। हिमाचल प्रदेश के बागवानी मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर ने पिछले दिनों जानकारी दी थी कि केंद्र से बागबानी के लिए 1688 करोड़ और मशरूम उत्पादन के लिए 423 करोड़ रुपये की परियोजनाएं मंजूर हुई हैं। उन्होंने ‘द ट्रिब्यून’ से बातचीत में पिछले दिनों कहा था कि वह अपने इलाके में में मशरूम उत्पादन को प्रोत्साहन देना चाहते हैं।

यहां तक तो बात ठीक थी मगर 423 करोड़ रुपये के इस प्रॉजेक्ट को लेकर खबर आई कि इसे धर्मपुर में लगाए जाने की तैयारी चल रही है। धर्मपुर बागवानी मंत्री का चुनावक्षेत्र है। इसे लेकर कुछ लोगों ने मंत्री पर पक्षपात करके अपने इलाके में करोड़ों का प्रॉजेक्ट ले जाने के आरोप लगाए। मगर अब इस प्रॉजेक्ट की प्रासंगिकता को लेकर ही गंभीर सवाल उठ रहे हैं और ये सवाल वैज्ञानिक ढंग से उठ रहे हैं।

  • सरकार ने फिजिबिलिटी स्टडी की है या नहीं?
  • रॉ मटीरियल हिमाचल में उपलब्ध नहीं
  • पड़ोसी राज्यों से रॉ मटीरियल जुटाना बेहद महंगा
  • बड़ी-बड़ी कंपनियां बंद हो गईं
  • विदेशी एक्सपर्ट जमीनी हालात नहीं बताते बस प्रॉजेक्ट बेचते हैं
  • मुनाफा बेहद कम होता है, बाजार में कड़ी प्रतिस्पर्धा है

ये सवाल 15 साल से मशरूम इंडस्ट्री में काम का अनुभव रखने वाले विशेषज्ञ सुनील ममगाई ने अपने उस लेख में उठाए हैं जो ‘द ट्रिब्यून’ में प्रकाशित हुआ है। सुनील ने लिखा है कि 423 करोड़ रुपये के निवेश का मतलब है कि इतना बड़ा मशरूम फार्म लगाया जाएगा जिससे कि रोज 50 टन मशरूम का उत्पादन हो सके। सुनील ने लिखा है, “मैं मशरूम फार्म लगाने के अपने अनुभव के आधार पर ऐसा कह सकता हूं।”

वह बताते हैं, “मुझे नहीं मालूम ने इतना ज्यादा पैसा लगाने को लेकर फिलिबिलिटी स्टडी की है या नहीं और अगर की भी है, तो भी उसपर सवाल उठने चाहिए।”

 

रॉ मटीरियल कहां से आएगा
सुनील लिखते हैं कि ग्रोथ के लिए शेड लगाना और वातावरण बनाए रखने के लिए एसी प्लांट लगाना आसान है मगर रॉ मटीरियल जुटाना मुश्किल। उन्होंने लिखा है, “मशरूम उगाने के लिए धान या गेहूं का पुआल, मुर्गों की बीठ या घोड़ों के लीद से बनी खाद और अच्छी किस्म की केसिंग सॉइल चाहिए होती है। मुझे शक है कि हिमाचल में इतना रॉ मटीरियल है।”

वह कहते हैं कि हिमाचल में किसान 500 से 1000 किलो मशरूम रोज उगा रहे हैं और इसके लिए उन्हें ये रॉ मटीरियल पड़ोसी राज्यों पंजाब और हरियाणा से लाने पड़ते हैं। वह कहते हैं, “कल्पना करें कि इस प्रॉजेक्ट के लिए कितना ज्यादा पुआल और मर्गियों की बीठ से बनी खाद बाहरी राज्यों से लानी पड़ेगी। यह व्यावहारिक नहीं होगा।”

सुनील ने पटियाला के महाराजा का उदाहरण देते हुए कहा है कि उन्होंने चैल में मशरूम उगाने की कोशिश की थी मगर रॉ मटीरियल की कीमत इतनी ज्यादा थी कि उनका फार्म बंद हो गया था। वह कहते हैं कि पंजाब के लालड़ू में एग्रो डच इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड दुनिया का सबसे बड़ा मशरूम फार्म था मगर अब वह दीवालिया होकर बंद हो गया है क्योंकि इंटरनैशनल मार्केट में मुकाबला नहीं कर पाया और वित्तीय बोझ को नहीं झेल सका।

वह कहते हैं कि अगर हिमाचल सरकार फिर भी इस प्रॉजेक्ट पर काम करना चाहता है तो कम से कम उन लोगों के साथ मिलकर ढंग से स्टडी करवाए, जिन्हें इस इंडस्ट्री का प्रैक्टिकल अनुभव है, न कि एसी रूम में बैठकर प्रॉजेक्ट बनाने वालों की बात पर भरोसा करे। उन्होंने कहा कि विदेशी जानकारों की मदद लेने में कोई बुराई नहीं मगर वे भारत के जमीनी हालात से वाकिफ नहीं होते।

सुनील ने लिखा है, “विदेशी एक्सपर्ट अपनी मशीनें लगाएंगे मगर सरकार को रॉ मटीरियल की कीमत और अन्य बातों की जानकारी नहीं देंगे। वे प्रोसेसिंग टेक्नॉलजी बेच देंगे मगर प्रोसेस्ड फूड के बाजार के बारे में कुछ नहीं करेंगे। वे अपनी टेक्नॉलजी बेचते हैं और फिर पल्ला झाड़ लेते हैं।”

वह लिखते हैं, “प्रोसेस्ड और फ्रेश मशरूम का मार्केट बहुत प्रतिस्पर्धा भरा है और इसमें मुनाफा बहुत कम होता है। भारत में ही सर्दियों में मशरूम बेचना मुश्किल हो जाता है क्योंकि उस समय सोनीपत के मशरूम से बाजार भर जाते हैं। डिब्बाबंद मशरूम के मामले में चीनी और यूरोपीय लोगों को कोई मात नहीं दे सकता क्योंकि वे सस्ते उत्पाद। बेचते हैं।”

आखिर में उन्होंने सलाह दी है कि अगर सरकार फिर भी प्रॉजेक्ट पर आगे बढ़ना चाहती है तो धीरे-धीरे आगे बढ़े।