हिमाचल में बसते हैं महादेव, ये हैं प्रदेश के 12 जिलों के प्रमुख शिव मंदिर

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सुरेश शर्मा।। हिमाचल प्रदेश में भगवान शिव के ऐसे कई स्थान हैं जिनके साथ भगवान शिव से संबंधित कोई न कोई घटना या यूं कहें कि दंतकथा जुड़ी हुई है। कुछ ऐतिहासिक मंदिर हैं तो कुछ नए मगर। हिमाचल के कुछ ऐसे ही प्रमुख मंदिरों या स्थानों और उनसे जुड़ी बातों को आगे पेश किया जा रहा है। जाहिर है, इनके अलावा और भी बहुत सारे मंदिर या स्थान हैं जिनकी बहुत मान्यता है। अगर हम उन्हें यहां सम्मिलित नहीं कर पाए हैं तो आप कॉमेंट करके उनकी जानकारी दे सकते हैं।

किन्नर कैलाश (किन्नौर)
तिब्बत किन्नौर सीमा पर स्थित किन्नर कैलाश को मानसरोवर कैलाश के बाद दूसरा स्थान प्राप्त है। किन्नर कैलाश किन्नौर के कल्‍पा की एक प्रख्यात पर्वत चोटी है जो 6500 मीटर ऊंची है। इसी पर शिवलिंग स्थापित है। बताया जाता है कि किन्नर कैलाश पर्वत दिन में सात बार रंग बदलता है। शिवलिंग के दर्शन के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। किन्नर कैलाश स्थित शिवलिंग की ऊंचाई 40 चालीस फीट और चौड़ाई 16 फीट है। हिंद्युओं के साथ साथ यह बौद्ध धर्म मत वालों के लिए भी आस्था के प्रतीक हैं।

भरमौरी कैलाश (चम्बा)
धौलाधार, पांगी व जांस्कर पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा यह कैलाश पर्वत मणिमहेश-कैलाश के नाम से प्रसिद्ध है और हजारों वर्षो से श्रद्धालु इस मनोरम शैव तीर्थ की यात्रा करते आ रहे हैं। यहां मणिमहेश नाम से एक छोटा सा पवित्र सरोवर है जो समुद्र तल से लगभग 13,500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इसी सरोवर की पूर्व की दिशा में है वह पर्वत जिसे कैलाश कहा जाता है। इसके गगनचुम्बी हिमाच्छादित शिखर की ऊंचाई समुद्र तल से लगभग 18,564 फुट है। मणिमहेश-कैलाश क्षेत्र हिमाचल प्रदेश में चम्बा जिले के भरमौर में आता है।

श्रीखंड कैलाश (कुल्लू)
श्रीखंड महादेव हिमाचल के ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क से सटा है। श्रीखंड महादेव के दर्शन के लिए 18570 फीट ऊचाई पर चढ़ना होता है।स्थानीय लोगों के अनुसार, इस चोटी पर भगवान शिव का वास है। इसके शिवलिंग की ऊंचाई 72 फीट है। यहां तक पहुंचने के लिए सुंदर घाटियों के बीच से एक ट्रैक है। । श्रीखण्ड का रास्ता रामपुर बुशैहर से जाता है। यहां से निरमण्ड, उसके बाद बागीपुल बेस कैम्प सिंहगाड से श्रीखंड कैलाश तक कुल 30 कि.मी. के कठिन और ग्लेशियरयुक्त रास्ते को पार करना पडता है।

श्रीखंड की पौराणिकता मान्यता है कि भस्मासुर राक्षस ने अपनी तपस्या से शिव से वरदान मांगा था कि वह जिस पर भीअपना हाथ रखेगा तो वह भस्म होगा। राक्षसी भाव होने के कारण उसने माता पार्वती से शादी करने की ठान ली। इसलिए भस्मापुर ने शिव के ऊपर हाथ रखकर उसे भस्म करने की योजना बनाई लेकिन भगवान विष्णु ने उसकी मंशा को नष्ट किया। विष्णु ने माता पार्वती कारूप धारण किया और भस्मासुर को अपने साथ नृत्य करने के लिए राजी किया। नृत्य के दौरान भस्मासुर ने अपने सिर पर ही हाथ रख लिया और भस्म हो गया। आज भी वहां की मिट्टी व पानी दूर से लाल दिखाई देते हैं।

बिजली महादेव (कुल्लू)
प्रदेश के कुल्लू में स्तिथ बिजली महादेव। कुल्लू का पूरा इतिहास बिजली महादेव से जुड़ा हुआ है। कुल्लू शहर में ब्यास और पार्वती नदी के संगम के पास एक ऊंचे पर्वत के ऊपर बिजली महादेव का प्राचीन मंदिर है। पूरी कुल्लू घाटी में ऐसी मान्यता है कि यह घाटी एक विशालकाय सांप का रूप है। इस सांप का वध भगवान शिव ने किया था। जिस स्थान पर मंदिर है वहां शिवलिंग पर हर बारह साल में भयंकर आकाशीय बिजली गिरती है। बिजली गिरने से मंदिर का शिवलिंग खंडित हो जाता है।

यहां के पुजारी खंडित शिवलिंग के टुकड़े एकत्रित कर मक्खन के साथ इसे जोड़ देते हैं। कुछ ही माह बाद शिवलिंग एक ठोस रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। कुल्लू घाटी के लोग बताते हैं कि बहुत पहले यहां कुलान्त नामक दैत्य रहता था। दैत्य कुल्लू के पास की नागणधार से अजगर का रूप धारण कर मंडी की घोग्घरधार से होता हुआ लाहौल स्पीति से मथाण गांव आ गया। दैत्य रूपी अजगर कुण्डली मार कर ब्यास नदी के प्रवाह को रोक कर इस जगह को पानी में डुबोना चाहता था। इसके पीछे उसका उद्देश्य यह था कि यहां रहने वाले सभी जीवजंतु पानी में डूब कर मर जाएंगे।

भगवान शिव कुलान्त के इस विचार से से चिंतित हो गए। बड़े जतन के बाद भगवान शिव ने उस राक्षस रूपी अजगर को अपने विश्वास में लिया। शिव ने उसके कान में कहा कि तुम्हारी पूंछ में आग लग गई है। इतना सुनते ही जैसे ही कुलान्त पीछे मुड़ा तभी शिव ने कुलान्त के सिर पर त्रिशूल वार कर दिया। त्रिशूल के प्रहार से कुलान्त मारा गया। कुलान्त के मरते ही उसका शरीर एक विशाल पर्वत में बदल गया। उसका शरीर धरती के जितने हिस्से में फैला हुआ था वह पूरा की पूरा क्षेत्र पर्वत में बदल गया। कुल्लू घाटी का बिजली महादेव से रोहतांग दर्रा और उधर मंडी के घोग्घरधार तक की घाटी कुलान्त के शरीर से निर्मित मानी जाती है। कुलान्त से ही कुलूत और इसके बाद कुल्लू नाम के पीछे यही किवदंती कही जाती है। बिजली महादेव- कुल्लू -हर बारह साल में शिवलिंग पर गिरती है बिजली

पूरी कुल्लू घाटी में ऐसी मान्यता है कि यह घाटी एक विशालकाय सांप का रूप है। इस सांप का वध भगवान शिव ने किया था। जिस स्थान पर मंदिर है वहां शिवलिंग पर हर बारह साल में भयंकर आकाशीय बिजली गिरती है। बिजली गिरने से मंदिर का शिवलिंग खंडित हो जाता है। यहां के पुजारी खंडित शिवलिंग के टुकड़े एकत्रित कर मक्खन के साथ इसे जोड़ देते हैं। कुछ ही माह बाद शिवलिंग एक ठोस रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। इस शिवलिंग पर हर बारह साल में बिजली क्यों गिरती है और इस जगह का नाम कुल्लू कैसे पड़ा इसके पीछे एक पौराणिक कथा है जो इस प्रकार है

कुल्लू घाटी के लोग बताते हैं कि बहुत पहले यहां कुलान्त नामक दैत्य रहता था। दैत्य कुल्लू के पास की नागणधार से अजगर का रूप धारण कर मंडी की घोग्घरधार से होता हुआ लाहौल स्पीति से मथाण गांव आ गया। दैत्य रूपी अजगर कुण्डली मार कर ब्यास नदी के प्रवाह को रोक कर इस जगह को पानी में डुबोना चाहता था। इसके पीछे उसका उद्देश्य यह था कि यहां रहने वाले सभी जीवजंतु पानी में डूब कर मर जाएंगे। भगवान शिव कुलान्त के इस विचार से से चिंतित हो गए।

बड़े जतन के बाद भगवान शिव ने उस राक्षस रूपी अजगर को अपने विश्वास में लिया। शिव ने उसके कान में कहा कि तुम्हारी पूंछ में आग लग गई है। इतना सुनते ही जैसे ही कुलान्त पीछे मुड़ा तभी शिव ने कुलान्त के सिर पर त्रिशूल वार कर दिया। त्रिशूल के प्रहार से कुलान्त मारा गया। कुलान्त के मरते ही उसका शरीर एक विशाल पर्वत में बदल गया। उसका शरीर धरती के जितने हिस्से में फैला हुआ था वह पूरा की पूरा क्षेत्र पर्वत में बदल गया। कुल्लू घाटी का बिजली महादेव से रोहतांग दर्रा और उधर मंडी के घोग्घरधार तक की घाटी कुलान्त के शरीर से निर्मित मानी जाती है। कुलान्त से ही कुलूत और इसके बाद कुल्लू नाम के पीछे यही किवदंती कही जाती है। कुलान्त दैत्य के मारने के बाद शिव ने इंद्र से कहा कि वे बारह साल में एक बार इस जगह पर बिजली गिराया करें। हर बारहवें साल में यहां आकाशीय बिजली गिरती है। इस बिजली से शिवलिंग चकनाचूर हो जाता है। शिवलिंग के टुकड़े इकट्ठा करके शिवजी का पुजारी मक्खन से जोड़कर स्थापित कर लेता है। कुछ समय बाद पिंडी अपने पुराने स्वरूप में आ जाती है।

बैजनाथ महादेव (कांगड़ा)
बैजनाथ १३वीं शताब्दी के बने शिव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है. बैजनाथ अर्थात “वैद्य + नाथ” जिसका अर्थ है चिकित्सा अथवा ओषधियों का स्वामी. भगवान् शिव, जिन्हें यह मंदिर समर्पित है, को वैद्य + नाथ भी कहा जाता है. यह मंदिर बैजनाथ में पठानकोट-मंडी नेशनल हाईवे के बिलकुल बगल में स्थित है। बैजनाथ का पुराना नाम ‘कीरग्राम’ था परन्तु समय के यह मंदिर के प्रसिद्ध होता गया और ग्राम का नाम बैजनाथ पड़ गया. मंदिर के उतर-पश्चिम छोर पर बिनवा नदी, जो की आगे चल कर ब्यास नदी में मिलती है, बहती है.दशहरा उत्सव, जो परंपरागत रूप से रावण का पुतला जलाने के लिए मनाया जाता है लेकिन बैजनाथ में इसे रावण द्वारा की गई भगवान शिव की तपस्या ओर भक्ति करने के लिए सम्मान के रूप में मनाया जाता है. बैजनाथ के शहर के बारे में एक और दिलचस्प बात यह है कि यहाँ सुनार की दुकान नहीं है। बिनवा खड्ड के दूसरी ओर बसा पपरोला सोने की दुकानों के लिए प्रसिद्ध है।

काठगढ़ महादेव (कांगड़ा)
कांगड़ा जिले के इंदौरा उपमंडल में काठगढ़ महादेव का मंदिर स्थित है। यह विश्व का एकमात्र मंदिर है जहां शिवलिंग ऐसे स्वरुप में विद्यमान हैं जो दो भागों में बंटे हुए हैं अर्थात मां पार्वती और भगवान शिव के दो विभिन्न रूपों को ग्रहों और नक्षत्रों के परिवर्तित होने के अनुसार इनके दोनों भागों के मध्य का अंतर घटता-बढ़ता रहता है। ग्रीष्म ऋतु में यह स्वरूप दो भागों में बंट जाता है और शीत ऋतु में पुन: एक रूप धारण कर लेता है। चूंकि शिव का वह दिव्य लिंग शिवरात्रि को प्रगट हुआ था, इसलिए लोक मान्यता है कि काठगढ महादेव शिवलिंग के दो भाग भी चन्द्रमा की कलाओं के साथ करीब आते और दूर होते हैं। शिवरात्रि का दिन इनका मिलन माना जाता है।

यह पावन शिवलिंग अष्टकोणीय है तथा काले-भूरे रंग का है। शिव रूप में पूजे जाते शिवलिंग की ऊंचाई 7-8 फुट है जबकि पार्वती के रूप में अराध्य हिस्सा 5-6 फुट ऊंचा है। मान्यता है, त्रेता युग में भगवान राम के भाई भरत जब भी अपने ननिहाल कैकेय देश (कश्मीर) जाते थे, तो काठगढ़ में शिवलिंग की पूजा किया करते थे। महाराजा रणजीत सिंह ने जब गद्दी संभाली, तो पूरे राज्य के धार्मिक स्थलों का भ्रमण किया। वह जब काठगढ़ पहुंचे, तो इतना आनंदित हुए कि उन्होंने आदि शिवलिंग पर तुरंत सुंदर मंदिर बनवाया और वहां पूजा करके आगे निकले। मंदिर के पास ही बने एक कुएं का जल उन्हें इतना पसंद था कि वह हर शुभकार्य के लिए यहीं से जल मंगवाते थे।

त्रिलोकीनाथ (लाहौल स्पिति)
ट्रायबल ज़िला लाहौल स्पिति के त्रिलोकपुर गाँव में स्थित भगवान शिव का यह अकेला मंदिर है जहां पर‌ त्रिलोकीनाथ के शीश पर महात्मा बुद्ध विराजमान है। यहां छह भुजाओं वाली भगवान त्रिलोकी नाथ की मूर्ति है जिसके सिर पर बौद्ध की आकृति है। बौद्ध त्रिलोकीनाथ की प्रतिमा को अवलोकितेश्वर के रूप में तो हिंदू शिव के रूप में पूजते हैं। यानी हिंदुओं और बौद्धों के लिए यह स्थान साझा आध्यात्मिक स्थल है। मंदिर से जुड़ी अपनी गाथा है। भगवान शिव यहां तपस्या में मग्न रहे। मान्यता है कि वे यहां अज्ञात रूप से रहते हैं। पार्वती शिव से मिलने के लिए बेचैन थीं तो नारद और पार्वती ने उन्हें ढूंढा। लोककथा है कि शिव ने पार्वती को यहां अपने तीन विराट रूप दिखाए थे। तभी स्थान की मान्यता त्रिलोकीनाथ के तौर पर है। गांव त्रिलोकपुर के नाम से जाना जाता है।

भूतनाथ महादेव (मंडी)
भूतनाथ महादेव का मंदिर छोटी काशी के नाम से विख्यात मंडी ज़िला में मुख्या शहर में ब्यास नदी के किनारे है। रिकार्ड के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण 1527 ई. में राजा अजवेर सेन ने करवाया था। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर को उस काल में बनवाया गया था जब राज्‍य की राजधानी को मंडी से भिउली में स्‍थानांतरित कर दिया गया था। मंदिर में स्‍थापित नंदी बैल की प्रतिमा बुर्ज की ओर देखती प्रतीत होती हे।

विद्वानों के अनुसार, राज माधव जो उस काल में राजा हुआ करते थे उन्‍होने इस मंदिर में आकर शिवरात्रि से पूर्व पूजा की थी और प्रार्थना भी की थी। यहां हर साल शिवरात्रि पर उत्‍सव मनाया जाता है जिसमें हजारों श्रद्धालु भाग लेते है, यह उत्‍सव पूरे एक सप्‍ताह तक चलता है। इस दौरान मंदिन जनपद के सभी स्‍थानीय देवता यहां पधारतें हैं।

शिरगुल महादेव (शिमला – सिरमौर)
सिरमौर व शिमला की सीमा पर करीब 11,969 फुट की ऊंचाई पर स्थित पौराणिक एवं ऐतिहासिक श्री शिरगुल महाराज चूड़धार की चोटी पर पूजे जाते हैं। चूड़धार में जहां अब विशालकाय शिव प्रतिमा हैं वहां पर प्राकृतिक शिवलिंग होता था। ऐसा भी कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने अपने हिमाचल प्रवास के दौरान यहां शिव की आराधना के लिए शिवलिंग की स्थापना की थी।पुराने जमाने में जब पहाड़ी राज्यों के लोग दिल्ली जाते थे, तो वहां पर मुगल शासक व उनकी सेना के लोग पहाड़ी लोगों को लूट लेते थे। यह सुनकर शिरगुल महाराज दिल्ली गए थे तथा मुगलों को अपनी शक्ति का प्रदर्शन देकर ऐसा करने से चेताया।

मुगल सेना ने शिरगुल महाराज को बंदी बनाया तथा चमड़े की बेडि़यों के बीच जकड़ दिया। बताया जाता है कि शिरगुल महाराज की सहायता हेतु बागड़देश से गुग्गा आए थे, परंतु उन्हें दिल्ली में यह मालूम नहीं हो रहा था कि शिरगुल महाराज को कहां बंदी बनाया गया है। ऐसे में मुगल शासन में भंगायण ने गुग्गा को शिरगुल महाराज के बंदी वाले स्थान के बारे में संकेत दिया, जिसके बाद गुग्गा ने शिरगुल महाराज को मूगलों की कैद से मुक्त करवाया। तब से यह भी मान्यता है कि शिरगुल महाराज एक पहाड़ी पर तथा माता भंगायण देवी को हरिपुरधार की पहाड़ी पर आमने-सामने बसाया गया। यही नहीं शिरगुल महाराज मानवीय संघर्ष के बाद देव स्थान तक पहुंचे। यह भी किंवदंति है कि पांडव भी अज्ञात वास के दौरान चूड़धार पहुंचे थे। शिरगुल महाराज के बारे में यह भी कहा जाता है कि वह अपने भक्तों से जल्दी नाराज नहीं होते हैं। चूड़धार पहुंचने के लिए जिला सिरमौर के नौहराधार, शिमला जिला के चौपाल उपमंडल के अंतर्गत आने वाले सराहन से श्रद्धालु पहुंच सकते हैं। सराहन से करीब पांच घंटे का पैदल मार्ग चूड़धार पहुंचने का है, जबकि नौहराधार से करीब आठ घंटे का पैदल मार्ग चूड़धार पहुंचने का है।

रंगनाथ महादेव (बिलासपुर)
एक हजार वर्ष पुराना रंगनाथ मंदिर शिव को समर्पित था। रंगनाथ मद्रास (तमिलनाडु) में श्रीरंगम देवता के नाम से विष्णु कहे गए हैं पर बिलासपुर के रंगनाथ महादेव हैं 9वीं शताब्दी में बने रंगनाथ महादेव के मंदिर को महाराजा एलदेव ने बनवाया था। इसके आधार पर प्रतिहार शैली की झलक थी। हालांकि इसके परिसर में कई लघु मंदिर भी थे। लोगों के अनुसार, जब बारिश के लिए इस शिव मंदिर स्थित शिव लिंग पर जलधारा डालते थे और वह सतलुज नदी में मिलती थी तो एकाएक बारिश शुरू हो जाती थी। यह एक पुरानी मान्यता थी । सतलुज की गहराईयों में डूबने से पहले शिव पार्वती नंदी की मूर्तियां नए शहर के रंगनाथ मंदिर में रख दी गयी हैं। आज भी पुराने मंदिर के अवशेष हर साल जल समाधि लेते हैं और पानी उतरने पर फिर बाहर आते हैं अब इस मंदिर की कहानियां लोक गायकों, कवियों और साहित्यकारों की रचनाओं तक ही सीमित रह गई हैं।

गसोतेश्वर महादेव (हमीरपुर)
कहा जाता है कि गसोता शब्द गोस्नोत को मिलाकर बना है यानि गउओं के लिए पानी का स्नोत। पांडवों को अज्ञात वास के दौरान छिपाने के लिए जगह की तलाश कर रहे थे। वहां पर भीम ने घराट चलाने की सोची और रात को ब्यास के पानी को मोड़ कर कूहल से घराट की तरफ लाने लगे तो किसी के आने की आवाज का आभास हुआ। उन्होंने सोचा कि सुबह हो गई है। भीम सामान यहां फेंक कर चल दिए। पांडव गसोता पहुंचे तो यहां पर भयंकर सूखा पड़ गया और पानी के बिना गायें तड़पने लगीं। भीम ने भूमि पर गदा से प्रहार किया और वहां पर जल स्नोत फूट पड़ा। यह जलस्नोत आज भी यहां हैं।गसोता महादेव में शिवलिंग हजारों साल से स्थापित है। कहते हैं कि एक किसान इसी गांव में खेत में हल जोत रहा था। इस प्रक्रिया के दौरान हल खेत में किसी वस्तु से टकराया तो उससे जल धारा निकली, दोबारा टकराया तथा उससे दूध निकला। तीसरी बार भी जब यह क्रम जारी रहा तो उससे खून निकला तथा किसान की आंखों की ज्योति बुझ गई। किसान को इस संदर्भ में आए स्वप्न के आधार पर वहां स्वयं भू शिवलिंग निकला तथा उसे स्थापित करने के लिए कहा गया। पुराणों के अनुसार पांडव अज्ञातवास के दौरान गसोता में रुके थे और कुछ समय यहां व्यतीत किया था। इसके प्रमाण हजारों सालों से आज भी मौजूद हैं।

शिव बाड़ी (ऊना)
ज़िला ऊना के गगरेट उपमंडल में सोमभद्रा नदी के किनारे जंगल में स्थित भगवान शिव का यह स्थान अति रमणीक है। मान्यता है कि किसी समय यह जंगल गुरु द्रोणाचार्य की नगरी हुआ करता था और यहीं पर पांडवों ने गुरु द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या के गुर सीखे। इस मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। दंत कथा के अनुसार गुरु द्रोणाचार्य प्रतिदिन कैलाश पर्वत पर शिव जी की आराधना करने जाया करते थे। उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम जज्याति था। उसने पिता से पूछा कि वह प्रतिदिन कैलाश पर्वत पर क्या करने जाते हैं तो गुरु द्रोणाचार्य ने कहा कि वह प्रतिदिन पर्वत पर शिव की आराधाना करने जाते हैं। जज्याति भी एक दिन उनके साथ जाने की जिद करने लगी। गुरु द्रोणाचार्य ने कहा कि वह अभी छोटी है इसलिए वह घर पर ही शिव की आराधना करें। जज्याति शिवबाड़ी में ही मिट्टी का शिवलिंग बना कर भगवान शिव की आराधना करने लग पड़ी। लोभ रहित बालिका की निस्वार्थ तपस्या देख भगवान शिव बालक के रूप में रोजाना उसके पास आने व उसके साथ खेलने लगे। जज्याति ने यह बात अपने पिता को बताई।

अगले दिन गुरु द्रोणाचार्य कैलाश पर्वत पर न जाकर वहीं पास में छिप कर बैठ गए। जैसे ही वह बालक जज्याति के साथ खेलने पहुंचा तो गुरु द्रोणाचार्य उस बालक के प्रकाश को देख कर समझ गए कि यह तो साक्षात भगवान शिव हैं। गुरु द्रोणाचार्य बालक के चरणों में गिर गए और भगवान ने साक्षात उन्हें दर्शन दे दिए। भगवान ने कहा कि यह बच्ची उनको सच्ची श्रद्धा से बुलाती थी इसलिए वह यहां पर आ जाते थे। जब जज्याति को इस बात का पता चला तो उसकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा। जज्याति ने भगवान शिव से वहीं रहने की जिद कर डाली। उसकी जिद पर भगवान शिव ने स्वयं वहां पिंडी की स्थापना की और वचन दिया कि हर वर्ष बैसाखी के दूसरे शनिवार यहां पर विशाल मेला लगा करेगा और उस दिन वह इस स्थान पर विराजमान रहा करेंगे। तत्पश्चात इस मंदिर की स्थापना हुई। बैसाखी के बाद आने वाले दूसरे शनिवार को वह दिन माना जाता है जब भगवान शिव पूरा दिन यहां रह कर भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करते हैं।