भाग सिंह ठाकुर।। वीरभद्र कांग्रेस की तरफ से अकेले ही प्रचार का जिम्मा संभाले हुए थे जबकि बीजेपी ने अपने कई नेताओं को झोंक दिया था। संबित पात्रा, सुधांशु त्रिवेदी, गडकरी, योगी और अमित शाह तक हिमाचल में आकर प्रचार में जुटे। एक तरफ बड़े नामों की फौज, दूसरी तरफ 83 साल का बुजुर्ग नेता अकेले ही सबसे लोहा ले रहा था और भारी भी पड़ रहा था। बीजेपी को जो उम्मीद थी कि आराम से हिमाचल में सरकार बना लेगी, वह कुंद पड़ती दिखाई दी। उसे समझ आ गया कि जुमलों और गप्पों और संवादों वाले भाषण से यहां काम नहीं चलने वाला। अगर माहौल बनाना है तो कुछ अलग करना पड़ेगा। क्योंकि उसने देखा कि जनता तो शांत बैठी हुई है। न तो रैलियों में ज्यादा भीड़ उमड़ रही है न ही खुलकर जनता अपना रुख दिखा रही है। वहीं दूसरे राज्यों में तो बीजेपी के छोटे-मोटे नेता के लिए लिए गजब भीड़ उमड़ आती थी।
वीरभद्र पर बीजेपी ने करप्शन के आरोप लगाए और उन्हें घेरने की कोशिश की। बार-बार उनके खिलाफ चल रहे मामलों का जिक्र किया। मगर दूसरी तरफ वीरभद्र ने इन्हीं मामलों को जिक्र करके सहानुभूति बटोरना शुरू कर दिया। इमोशनल कार्ड खेलकर वह लोगों की सहानुभूति बटोरते भी देखे। ऐसे में बीजेपी को लगा कि कहीं हम अपना सीएम कैंडिडेट घोषित न करके गलती तो नही ंकर रहे? वैसे गलती तो वे नहीं कर रहे थे क्योंकि आकलन किया जाए तो साफ था कि भले ही बीजेपी 50 या 40 प्लस सीटें न ला पाए, मगर सरकार तो उसी की बनेगी। मगर शाह और मोदी इस बात भला कैसे समझ पाते? उन्हें लगा कि हिमाचल में माहौल ठंडा है और कांग्रेस यह माहौल बना रही है कि बीजेपी तो बिना दूल्हे की बारात है। इसी चक्कर में उसने मतदान से ठीक पहले प्रेम कुमार धूमल को सीएम कैंडिडेट घोषित कर दिया।
वैसे कुछ दिन पहले तक बीजेपी तमाम नेता, जिनमें अरुण जेटली और शाह शामिल थे, कहते थे कि हिमाचल में सामूहिक नेतृत्व में और मोदी जी के नाम पर चुनाव लड़ा जाएगा। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि उन्हें अपने ही बयान और पार्टी के रुख से पटलना पड़ा और जहां उन्होंने पिछले कई राज्यों में बिना चेहरा बताए चुनाव लड़े थे, हिमाचल में अलग रणनीति बनाकर नाम का ऐलान करना पड़ा? दरअसल बीजेपी सशंकित हो उठी थी कि कहीं वीरभद्र हावी न पड़ जाएं और कहीं कांग्रेस की सरकार फिर न बन जाए।
बीजेपी का यह डर ही उसे आखिरी वक्त में ऐसा कदम उठाने पर विवश कर गया, जिससे उसका फायदा हो न हो, नुकसान होने की आशंका ज्यादा है। अब जिन लोगों के मन में यह उम्मीद जगी थी कि चलो, बीजेपी कोई नया चेहरा देगी, अब वे शांत होकर बैठ जाएंगे। उनका उत्साह नए चेहरे के लिए था क्योंकि वे पुराने चेहरों को पसंद नही ंकरते थे। अब पुराना चेहरा आ जाने पर वे पार्टी के आधार पर नहीं, अपनी पसंद के आधार पर वोट करेंगे। बुद्धिजीवी वर्ग धूमल और वीरभद्र को एक जैसा मानता है। इसलिए वह नए चेहरे की उम्मीद में उत्साहित था, इसिलए वह अब दोनों की तुलना करेगा औऱ दोनों में उसे जो ज्यादा ठीक लगेगा, उसके पक्ष में मतदान करेगा।
साथ ही अब देरी हो गई है। वोटिंग के लिए बहुत कम समय बचा है। हो सकता है कि जिन सीटों पर नए चेहरे के नाम पर उत्साह बना था, वहां के कार्यकर्ता हताश हो जाएं और उसका सीधा फायदा कांग्रेस को हो।
बीजेपी के चाणक्य हिमाचल में आकर फेल
बीजेपी के चाणक्य का सलाहदाता न जाने कौन है। उन्हें मालूम ही नहीं है कि प्रदेश में कभी भी धूमल के नाम पर या सीएम कैंडिडेट के नाम पर वोट नहीं पड़े। धूमल सत्ता में आए तो कभी भी अपने नाम के दम पर नहीं आए। बल्कि प्रदेश की जनता ने विकल्पहीनता की स्थिति में जब सत्ताधारी दल को बाहर का रास्ता दिखाया है, ऑटोमैटिकली बीजेपी की सरकार बनी है और धूमल सीएम बने हैं। वरना धूमल के नाम पर वोट पड़ते होते वह सरकार रिपीट करवा चुके होते। पिछली बार जब उन्होंने इंडक्शन देने का वादा किया था, तब भी उन्हें प्रदेश की जनता ने खारिज कर दिया था।
खैर, चुनाव दिलचस्प हो गए हैं। कांग्रेस में पहले मनोबल कम था कि पता नहीं हम वापसी करेंगे या नहीं, मगर बीजेपी के ताज़ा कदम ने उसमें आत्मविश्वास भर दिया है। उसने यह यकीन हो गया है कि अब बीजेपी बैकफुट पर आकर सीएम कैंडिडेट घोषित कर रही है तो थोड़ा और ज़ोर लगाया जाना चाहिए। साथ ही बीजेपी साथ बदलाव की उम्मीद में जुड़े लोग फिर पास पलट सकते हैं। बाकी तो वक़्त ही बताएगा कि ऊंट किस करवट बैठता है।
(लेखक कुल्लू से हैं और केंद्रीय लोक निर्माण विभाग से सेवानिवृत होने के बाद पैतृक गांव में बागवानी कर रहे हैं)
ये लेखक के निजी विचार है।