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Horror Encounter: कौन थी बर्फीली रात में चौड़ा मैदान के पास मिली महिला?

प्रस्तावना: ‘इन हिमाचल’ पिछले दो सालों से ‘हॉरर एनकाउंटर’ सीरीज़ के माध्यम से भूत-प्रेत के रोमांचक किस्सों को जीवंत रखने की कोशिश कर रहा है। ऐसे ही किस्से हमारे बड़े-बुजुर्ग सुनाया करते थे। हम आमंत्रित करते हैं अपने पाठकों को कि वे अपने अनुभव भेजें। हम आपकी भेजी कहानियों को जज नहीं करेंगे कि वे सच्ची हैं या झूठी। हमारा मकसद अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है। हम बस मनोरंजन की दृष्टि से उन्हें पढ़ना-पढ़ाना चाहेंगे और जहां तक संभव होगा, चर्चा भी करेंगे कि अगर ऐसी घटना हुई होगी तो उसके पीछे की वैज्ञानिक वजह क्या हो सकती है। मगर कहानी में मज़ा होना चाहिए। हॉरर एनकाउंटर के सीज़न-3 की चौथी कहानी रविंदर शर्मा की तरफ से, जिन्होॆने अपना अनुभव हमें भेजा है-

ये उन दिनों की बात है जब हम एचपीयू में पढ़ते थे। 80 का दशक था। मैं ऐवलॉज हॉस्टल में रहा करता था और कुछ दोस्त हिमकिरीट में रहा करते थे। तो हम कभी रिवोली जाया करते तो कभी रिट्ज। उन दिनों रीगल सिनेमा में आग लग गई थी। तो हमारी प्राथमिकता रहती कि नई फिल्म आए तो रात का शो ही देखें। उसमें अलग आनंद होता है।
सर्दियों के दिन थे। बर्फबारी हुई नहीं थी मगर आसमान बादलों से घिरा था। हल्की बूंदाबांदी हो चुकी थी मगर फिर थम गई थी। ठीक से याद नहीं कि कौन सी फिल्म देखने का प्लान बना था, मगर हम तीन दोस्त शायद सवा 12 बजे फ्री हुए। वे दोनों हीमक्रीट रहा करते। बाहर निकले तो पता चला कि बर्फबारी हो रही है मस्त। तीन घंटों से जारी थी। आधा फुट जम भी गई थी।

कमाल की बात ये कि चांदनी रात थी। कभी मौका मिले तो चांदनी रात में होने वाली बर्फबारी का आनंद लेना। ऐसा लगता है कि ऊपर आसमान में उजला सा ढक्कन लगा है और कुछ नीचे गिर रहा है। खैर, मस्त सन्नाटा। इक्का-दुक्का लोग ही थे जो रिवोली से निकले। एक आध ही परिवार रहा होगा बाकी सब लड़के थे या मंडलियों में आए पुरुष।

बर्फ में चलने का आनंद आने लगा। कदम रखते तो चरक की आवाज के साथ पैर धंसता। धीरे-धीरे हम लक्कड़ बाजार की तरफ चढ़ने लगे। तो हम जैसे-तैसे चढ़े और रिज क्रॉस करने लगे, वहां कुछ लोग टहलते नजर आए। शायद पर्यटक थे जो करीब के ही होटलों से मस्ती करने चले आए होंगे। खैर, मैंने दोस्तों को कहा कि ऐवलॉज ही रुक जाना, सुबह जाना अब अपने हॉस्टल। मगर दोस्त कह रहे थे कि उन्हें नींद अपने ही बिस्तर पर आएगी।

प्रतीकात्मक तस्वीर

खैर, स्कैंडल पॉइंट के पास जैसे ही हम पहुंचे, हमारा ध्यान गया पीछे से आती आवाज़ की तरफ, जो शायद किसी की चूड़ियों या कंगन की थी। पीछे देखा तोकोई महिला चली आ रही थी। तेज कदमों से। बर्फ पर गिरती संभलती। हम कदम जमाकर चल रहे थे मगर वह कुछ हड़बड़ी में थी। करीब जैसे ही आई, बोली- यहां आसपास कोई होटल है। हमने कहा कि यहां तो बहुत होटल हैं, कुछ ही आगे सिसिल होटल है। वह बोलने लगी कि अच्छा, मुझे बताइए कहां है।

हमने कहा कि वहीं से होते हुए जा रहे हैं, आगे बता देंगे। तो हम चलने लगे मगर सभी के जहन में सवाल कौंध रहा था कि यह महिला जा कहां रही है, न इसके पास कोई पर्स है, न बैग। और होटल तलाश कर रही है। ऐसा भी नहीं है कि किसी होटल से बाहर निकली हो और वहां लौट रही हो। मगर अब पूछना भी ठीक नहीं लगता। अपने काम से काम रखना ठीक था। मगर तभी उसने फिर कहा-

“आप लोग सोच रहे होंगे कि मैं इतनी रात को कहां जा रही हूं, पागलों की तरह, वह भी होटल की तलाश में।” हममें से जाने किसने कहा कि नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। जवाब आया, “बात तो है, दरअसल अब अपना कोई घर तो रहा नहीं। कोई ठिकाना है नहीं। मेरा अपना कोई रहा नहीं है। घर था, वह भी सरकारी दफ्तर बन गया है। अब कोई कुर्सी टेबल पर तो कोई सो नहीं सकता न।”

प्रतीकात्मक तस्वीर

उसकी बातों से हमें लग रहा था कि कोई सिरफिरी है। एक बार ख्याल आया कि कोई टूरिस्ट है जो शराब पीकर अंट-शंट बोल रही है और होटल से बाहर निकल आई है। मगर मैं उसकी बात पर हंस दिया। यह जताने के लिए आप जो मजाक कर रही हैं कि कुर्सी पर कोई सो नहीं सकता, वह सही बात है।

मगर वह महिला चलते-चलते रुक गई। बोली- “आपको मजाक लग रहा है? हां, लगेगा ही। आपको अहसास नहीं है कि घर से दूर हो जाने का मतलब क्या है। एक-एक चीज़ करीने से लगाई थी। न जाने कहां बेच दी गई। घर सिर्फ इमारत नहीं होती। न जाने कब से सोई भी नहीं। बस अब ठान ली है कि किसी होटल में जाकर ही आराम से सोऊंगी।”

मैं गंभीर हो गया। मैंने कहा, “मेरा इरादा मजाक बनाने का नहीं था। मगर चलिए, कुछ ही दूर है होटल। आपको दिक्कत नहीं होगी।” जब मैंने यह कहा तो हम कालीबाड़ी के ठीक नीचे थे। वह महिला बोली, “ओह, अपना बैग तो मैं भूल ही गई। पैसे कैसे चुकाऊंगी होटल के। मुझे वापस जाना होगा।”

शायद मेरे दोस्त ने कहा था, “आप आई कहां से हैं। पैसे लाने कहां जाएंगी आप?”

“मैं तो यहीं की हूं। मगर आप लोग शिमला के नहीं लगते। न तो पहनावे से और न बोलचाल से।”

मैंने कहा, “ठीक पहचाना आपने। मैं कुल्लू से हूं और ये दोनों बिलासपुर के हैं। मगर आप जब शिमला की ही हैं तो होटल में क्यों रुक रही हैं।”

“बताया न अब मेरा घर नहीं है।” इस आवाज में अजीब गुस्सा और खीझ थी। सुनकर हम सभी चलते-चलते रुक गए। अगले ही पल वो बोली, “सॉरी, बस मुझे होटल तक छोड़ दीजिए।”

फिर खामोशी और होटल सिसिल के पास पहुंचकर हमने इशारा किया कि ये रहा होटल। उसने कहा थैंक्स। हम आगे बढ़ गए और वह होटल की तरफ उतर गई। मगर हमने देखा कि वह होटल नहीं गई बल्कि और भी नीचे रास्ते से चली गई। खैर, हम होस्टल चले गए। मैं ऐवलॉज और दोनों दोस्त हिमक्रीट। ये बात आई-गई हो गई। ये बात शायद 1983 की थी या 84 की।

1994 की बात है। सर्दियों के दिन थे। मेरे पड़ोसी की बेटी की तबीयत खराब थी और डॉक्टरों ने उसे स्नोडन रेफर किया हुआ था। मैं भी पड़ोसी के साथ आया हु आथा। वहां पर ऐडमिट थी और सुधार हो नहीं रहा था। हम लोग मेरे फूफा की के यहां ठहरे हुए थे, जिन्होंने चौड़ा मैदान के पास ही क्वार्टर लिया हुआ था। रात 11 बजे के करीब डॉक्टरों ने कहा कि तबीयत ज्यादा खराब है, इसे चंडीगढ़ ले जाइए। यहां पर कोई इंप्रवमेंट नहीं हो रहा।

जब बेटी की तबीयत बहुत खराब होने लगी तो हमने ठान ली कि रात को ही चंडीगढ़ निकल लेंगे। फूफा जी ने कहा कि कि घर आ जाओ, डिनर करो और सामान यहीं से उठाकर चंडीगढ़ निकल जाना। गाड़ी का बंदोबस्त भी उन्होंने कर दिया था। हम चार लोग थे। मैं, मेरा पड़ोसी, उनकी बीवी और बच्ची। रात से सवा 11 बजे हम पैदल ही स्नोडन से चौड़ा मैदान चल दिए। हल्की बर्फ गिरी हुई थी दिन मगर लोगों के चलने से वह जम गई थी तो चलना बड़ा मुश्किल था।

मुझे यूनिवर्सिटी के दिनों से ही बर्फ पर चलने का अनुभव था। मैंने पड़ोसी को कहा कि वह अपनी पत्नी को संभाले और मैं बच्ची को गोद में उठाकर आहे संभलते हुए चलने लगा। लक्कड़ बाजार और फिर रिज और हम स्कैंडल पॉइटं के पास पहुंच गया था मैं। मेरे से करीब 100 मीटर पीछे पड़ोसी और उनकी पत्नी चल रहे थे। सड़क सुनसान थी। कुछ-कुछ दूरी पर लगी स्ट्रीट लाइट्स सहारा दे रही थीं। तभी मुझे किसी महिला की आवाज़ सुनाई दी- “क्या हुआ बच्ची को?”

बर्फबारी के बाद अनाडेल का नज़ारा

मैंने दाएं देखा तो एक महिला चल रही थी बगल में। मैंने कहा, “जरा तबीयत खराब है।” महिला बोली, “क्या हो गया?” मैंने कहा, “कुछ नहीं, बुखार है लगातार। सुस्त है और डॉक्टरों को वजह पता नहीं चल रही।” महिला बोली, “शी विल बी ऑलराइट. कल तक ये ठीक हो जाएगी, परेशान मत हो।” मैं चलते-चलते उस महिला की बातों को सुन रहा था। मैंने कहा, “ऐसी ही हो। थैंक्स।” मगर सोच रहा था कि यह महिला स्वाभाविक रूप से शुभकामनाएं दे रही होती तो ‘कल तक’ क्यों बोल रही है।

मैं सोच रहा था कि है कौन। इससे पहले वो बोली, “शायद तुमने मुझे पहचाना नहीं।” मैं चलते हुए चेहरे को गौर से देखने लगा। वह बोली, “देखो, चौंकना मत। तुमने बच्ची उठाई हुई है उसे चोट लग जाएगी अगर तुम गिर या फिसले। तुमने कुछ साल पहले मुझे होटल का रास्ता दिखाया था।” मैं सोच में पड़ गया कि कौन सा होटल, कौन सा रास्ता।

“देखा, भूल गए न। चलो, मैं नहीं भूली। तुम तीन दोस्त थे और तुमने मुझे होटल का रास्ता बताया था और मेरी मदद की थी। मुझे याद है। एनीवे, यू टेक केयर। आई हैव फाउंड अ न्यू होम। अब मैं इन सड़कों पर घूमने निकलती हूं आराम से, शेल्टर की तलाश में नहीं। बाय”

उसने यह कहा और कालीबाड़ी के आगे से दाहिनी तरफ मुड़ने वाले रास्ते की तरफ चली गई। मैं कुछ कदम और चला और पीछे से आ रहे पड़ोसी-पड़ोसन का इंतजार करने लगा। उन्होंने पूछा कि रुक क्यों गए, चलो। मैंने बताया कि एक महिला मिली और वो बोल रही थी बच्ची को क्या हुआ है। वे बोले कौन महिला। मैंने कहा कि अभी यहां से गई, कालीबाड़ी के पीछे से मेरे साथ चल रही थी। वो बोले- तुम तो अकेले चल रहे थे। बीच में अचानक स्लो चलने लगे थे। कहां कोई महिला थी।

मैंने कुछ नहीं कहा और उन्हें कहा कि अरे वो यहीं पर थी खड़ी हुई, मंदिर में रहती होगी कोई, तो चली गई। मैंने उन्हें अपना डर और भ्रम हावी नहीं होने दिया। तो फूफा जी के घर पहुंचे। डिनर किया और नीचे ओमनी में बैठकर चंडीगढ़ चले दिए। यकीन नहीं होगा कि चंडीगढ़ जाते-जाते बच्ची गाड़ी में ही ऐक्टिव हो गई। बोलने लग गई कि मुझे कहां ले जा रहे हैं। जाते ही हम एक दोस्त के यहां रुके, जहां से सुबह अस्पताल जाना था। मगर सुबह 10 बजे तक बच्ची एकदम चुस्त, मानो कुछ हुआ ही न हो।

मगर फिर भी हमने समस्या बताई और डॉक्टरों ने टेस्ट करवाए, मगर कुछ नहीं निकला और बच्ची को थोडी कमजोरी बताई और कुछ सप्लिमेंट्स और टॉनिक दिए और एक दिन में घर भेज दिया।

मैंने ये बात अपने दोस्तों और करीबियों को ही बताई है। कभी मजाक उड़ने के डर से किसी को नहीं बताई तो कभी मैं खुद को ही कन्वींस नहीं कर पाया। न जाने वह महिला कौन थी। उसका घर कहां था और क्यों वह बेघर होकर घूमती थी होटल की तलाश में मगर होटल जाती भी नहीं थी। इतने साल बाद की घटना किसी महिला को कैसे याद रही और वह मेरे पीछे आते पड़ोसियों को क्यों नहीं दिखी। साथ ही उसने बच्ची की बीमारी कैसे ठीक दी या उसके ठीक होने की बात कैसे कह दी। जो भी है, यह घटनाक्रम आखिरी दम तक मुझे सोचने पर मजबूर करता रहेगा।

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