हिमाचल में भूस्खलन रोकने में वरदान साबित होगी यह तकनीक

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ठीक एक साल पहले मंडी के कोटरोपी में हुए भूस्खलन में कई लोगों की जान जाने के बाद भी मंडी प्रशासन और हिमाचल प्रदेश का सरकारी अमला होश में नहीं आया है। एक बार फिर उसी जगह पर भूस्खलन का दौर जारी है। रास्ता खोला जा रहा है मगर बारिश के कारण फिर हालात वैसे ही हो जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह कुदरत के कहर के कारण हो रहा है। इसके लिए साफ तौर पर प्रशासन जिम्मेदार है।

पिछले साल आई आपदा भले ही कुदरती हो मगर यह बात भी ध्यान देने लायक है कि वहां कई-कई साल के अंतराल के बाद भूस्खलन होता रहा है। यहां हाल ही में साल 2017 में बड़ा भूस्खलन हुआ था, लेकिन कहा जाता रहा है कि इससे ठीक 20 साल पहले और उससे भी 20 साल पहले इसी जगह पर भूस्खलन हो चुका है। पहले 1977 में और फिर 1997 में और वह भी अगस्त महीने में, जब बारिश चरम पर होती है।

मगर अहम बात ये है कि जब पिछले साल भूस्खलन आया तो बहुत बड़ा इलाका कच्चा हो गया था। यानी उसके ऊपर न तो पेड़ थे न घास। जाहिर है, जिस कच्ची मिट्टी पर न कोई पेड़ होगा न घास, हल्की सी बारिश में भी वह बहने लगेगी। उसमें जगह-जगह पानी जमा होगा और फिर से उसके धंसने की आशंका पैदा होगी। यह बात समझने के लिए बहुत बड़े शोध की जरूरत नहीं है बल्कि यह सामान्य सी बात है।

कोटरोपी में भूस्खलन वाली जगह बारिश के बाद पानी बहने से बनी नालियां। (Image: MBM News Network)

मगर उस समय जब हादसा हुआ था, प्रशासन ने राहत एवं बचाव कार्य चलाया, उसके बाद सड़क बहाल की, कुछ लाइटें लगाईं और आईआईटी का एक प्रोटोटाइप प्रॉजेक्ट लगा दिया कि भूस्खलन से पहले अलार्म बजने लगे। मगर किसी ने भी यह कोशिश नहीं की कि दोबारा भूस्खलन न हो, इसके लिए इंतज़ाम किए जाएं।

जरूरी था कि कच्चे मलबे की ग्रेडिंग की जाती ताकि पानी जमा न हो। नालियां बनाई जातीं ताकि जमीन का क्षरण न हो और पानी एक प्रॉपर चैनल से बाहर निकलता रहे। जरूर थी कि अस्थानी सड़क ही बनानी थी तो उसके नीचे से पाइप डाले जाते, उनसे आसपास प्रॉपर गड्डे बनाए जाते ताकि मलबे से वे ब्लॉक न हों।

इसके बाद जरूरत थी युद्धस्तर पर अभियान चलाकर एकदम वनस्पति विहीन हो चुकी जमीन पर घास या पौधों की ऐसी किस्में लगाई जातीं ताकि वे तेजी से उगतीं और जमीन को जकड़ लेतीं। जहां जरूरी होता, वहां पर नेट के जरिए रीटेनिंग वॉल लगाई जाती और फिर कंक्रीट लेयर लगाई जाती।

पौधों और घास की खास किस्में तुरंत उगती हैं और ज़मीन का क्षरण रोकती हैं।

इस मामले में चीन और जापान से सीखा जा सकता है। साल 2016 में मुझे चीन जाने का मौका मिला था। द ग्रेट वॉल ऑफ चाइना देखने के लिए जब हम बीजिंग से बदलिंग की तरफ जा रहे थे, हाइवे में कई जगह पहाड़ियों पर लोहे के नेट लगे थे और कुछ जगहों पर बड़े हिस्से पर कंक्रीट की परत बिछाई गई थी।

ये कोई नए नहीं, बल्कि पारंपरिक तरीके हैं। मगर हिमाचल में इस्तेमाल या तो नहीं हुए हैं या तो न के बराबर हुए हैं।

गाइड से पूछने पर पता चला कि नेट दरअसल लैंडस्लाइड बैरियर हैं और ये इसलिए लगाए गए हैं ताकि अगर पहाड़ी से कोई पत्थर खिसके तो किसी वाहन को नुकसान न पहुंचे। और वह कंक्रीट प्रॉटेक्शन इसलिए लगाई गई थी ताकि बारिश के कारण कच्ची मिट्टी न बहे और भूस्खलन न हो।

ऐसे जाल लगाकर अचानक लुढ़कने वाले पत्थरों से होने वाले नुकसान को रोका जा सकता है।

बहरहाल स्लोप प्रॉटेक्शन की अन्य भी कई तकनीकें हैं, जिनके बारे में सिविल इंजिनियर बेहतर जानते हैं। मैं इस मामले का विशेषज्ञ नहीं हूं मगर कुछ बातें तो हैं जिन्हें मेरे विचार से आसानी से किया जा सकता है। Guniting या Shortcreting और सॉइल नेलिंग जैसी तकनीक पूरी दुनिया में इस्तेमाल की जा रही है। ये कोई बहुत नई तकनीक नहीं है। भारत में भी कई जगहों पर, खासकर मेट्रो के प्रॉजेक्ट या टनल आदि में यही काम किया जाता है। इसी तरह से भूस्खलन रोकने में भी इसे इस्तेमाल किया जा सकता है। न सिर्फ कोटरोपी बल्कि अन्य जगहों पर भी यही तकनीक इस्तेमाल की जा सकती है। कई सारे स्पॉट ऐसे हैं जहां भूस्खलन होता रहता है। जैसे गुम्मा, हणोगी आदि। कई जगहों पर पत्थर गिरते हैं। वहां पर  इन तकनीकों का इस्तेमाल कारगर होगा।

जरूरी नहीं कि ढलान पर रीटेनिंग वॉल (डंगे) ही लगाई जाए, कोटरोपी जैसी जगह पर इसी तरह से सरिया का नेट बनाकर कंक्रीट की लेयर डाली जा सकती थी।

मगर ऐसा करेगा कौन? हिमाचल में आए दिन हणोगी के पास या मंडी शहर के आसपास कई जगहो पर बोर्ड लिखे होंगे- सावधान, आगे पत्थर गिरते हैं। अरे भई चालक क्या सावधान होगा इसमें? क्या उसे पता चलेगा कि कब पत्थर गिर रहा है कब नहीं? इसी कारण हर साल कई लोग बिना मौत मारे जाते हैं। वैसी ही बात भूस्खलन को लेकर है। जहां पर अक्सर भूस्खलन होता है, क्या वहां पर चीन और जापान से सीखकर कुछ नया नहीं किया जा सकता?

अफसोस, भारत की व्यवस्था ऐसी है कि हादसा हो जाने का इंतजार किया जाता है, फिर तुरंत फर्स्ट एड दी जाती है और फिर समस्या के बारे में सब भूल जाते हैं। ऐसा नहीं कि स्थायी इलाज ढूंढा जाए। अगर समय रहते ऊपर बताए गए काम किए गए होते तो आज दोबारा कोटरोपी में भूस्खलन न होता और न ही सड़क अवरुद्ध होती। और जब तक स्थायी समाधान नहीं किया जाता, तब तक ऐसा होता ही रहेगा और लाखों रुपये खर्च किए जाते रहेंगे। बेहतर होगा इस पैसे से टेक्निकल काम किया जाए और समस्या को हमेशा से सुलझा दिया जाए।

(मंडी जिले से संबंध रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार आदर्श राठौर की फेसबुक टाइमलाइन से साभार। उनसे aadarshrathore @ gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)