धर्मेंद्र कपूर।। गद्दी जनजाति भारत की सांस्कृतिक रूप से सबसे समृद्ध जनजातियों में से एक है। पशुपालन करने वाले ये लोग वर्तमान में धौलाधर श्रेणी के निचले भागों, खासकर हिमाचल प्रदेश के चम्बा और कांगड़ा ज़िलों में बसे हुए हैं। शुरू में वे ऊंचे पर्वतीय भागों में बसे रहे, मगर बाद में धीरे-धीरे धौलाधार की निचली धारों, घाटियों और समतल हिस्सों में भी उन्होंने ठिकाने बनाए। गद्दी आज पालमपुर और धर्मशाला समेत कई कस्बों में भी अपने परिवारों के साथ रहते हैं।
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गद्दी जनजाति का उद्गम कहां से हुआ, इसके लिए अलग-अलग कथाएं निकल कर आती हैं। माना जाता है कि इन लोगों ने मध्य एशिया, राजस्थान और गुजरात से हिमालय की तलहटी में प्रवास किया। यह भी माना जाता है कि गद्दी जनजाति की कुछ जातियों ने सत्रहवीं सदी में मुगल शासक औरंगजेब के अत्याचारों से त्रस्त होकर हिमाचल की पहाड़ियों में शरण ली थी।
गद्दी जनजाति की व्युत्पत्ति के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते हैं क्योंकि वे खानाबदोश (घुमंतू) प्रवृत्ति के थे और उनका कोई स्थायी निवास नहीं होता था। क्योंकि वे गर्मियों में अपनी भेड़-बकरियों के साथ पहाड़ों पर विचरण करते हैं और सर्दियों में वे मैदानी इलाकों में इधर-उधर घूमते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि वे पंजाब के मैदानी इलाकों से आए थे।
कड़ी मेहनत से कमाकर आगे बढ़ने का रहा है इतिहास
गद्दी जनजातियों का मुख्य व्यवसाय भेड़-बकरी पालन है और वे अपनी आजीविका के लिए भेड़, बकरी, खच्चरों और घोड़ों को भी बेचते हैं। यह जनजाति पुराने दिनों में घुमंतू थी लेकिन बाद में उन्होंने पहाड़ों के ऊपरी भाग में अपने ठिकाने बनाना शुरू कर दिया।
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वे गर्मी के मौसम के दौरान चराई के लिए अपने पशुओं को लेकर ऊपरी पहाड़ियों में चढ़ाई करते हैं और सर्दियों में नीचे उतर आते हैं। वे अपनी भेड़-बकरियों की सुरक्षा के लिए कुत्ते भी पालते हैं जो भेड़-बकरियों को खदेड़कर एक जगह पर इकठ्ठा करने में पारंगत होते हैं। वे तेंदुओं तक से भिड़ जाते हैं।
अब गद्दी समुदाय के लोगों ने भी अपनी आजीविका कमाने के लिए कई अन्य व्यवसायों को अपनाना शुरू कर दिया है। कुछ लोग मेहनत वाले काम करके भी आजीविका चलाते हैं तो अब सरकारी नौकरियों समेत विभिन्न क्षेत्रों अच्छे पदों पर आसीन हैं।
संस्कृति से जड़ से जुड़े हैं गद्दी
शायद ही हिमाचल प्रदेश में ऐसी कोई जनजाति अब बची हो जो गद्दियों की तरह जड़ से अपनी संस्कृति से जुड़ी हुई हो। पहनावे से लेकर खानपान हो या धर्म-कर्म, सब में गद्दी लोग आज भी अपने इतिहास से जुड़े हुए हैं। गद्दी भेड़ की ऊन और बकरी के बाल से बना ऊनी पाजामा (पतलून), लंबे कोट, ढोरु (ऊनी साड़ी), टोपी और जूते पहनते हैं। वे भेड़ की ऊन का प्रयोग शॉल, कंबल और कालीन बनाने में करते हैं।
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वे परंपरागत शैली में अपने घरों में बुनाई करते हैं। गद्दी महिलाएं पत्थर, सोने और चांदी से बने आभूषणों की शौकीन होती हैं। गद्दियों के विभिन्न प्रकार के अपने पहनावों की शैली के आधार पर उनमें अंतर किया जा सकता है। पुरुष गद्दी सिर पर पगड़ी पहनते हैं जिसे वे साफा कहते हैं और डोरा के साथ एक प्रकार का चोला पहनते हैं। गद्दी स्त्रियां लुआंचड़ी नामक परिधान पहनती हैं तथा नाक में नथ, माथे पर टीका और सिर पर दुपट्टा ओढ़ती हैं। गद्दी समूह के पुरुष एवं महिलाएं दोनों कान में बालियां पहनते हैं।
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हिन्दू ही नहीं, मुस्लिम भी हैं गद्दी
गद्दी समुदाय में अधिकतर लोग हिन्दू हैं लेकिन चंबा और लाहौल स्पीति जिलों के ऊपरी क्षेत्रों में मुस्लिम गद्दी भी पाए जाते हैं। मुख्य रूप से स्थानीय बोलियों में बात करते हैं, लेकिन अब हिन्दी में भी बातचीत करने लगे हैं। गद्दी अपनी साधारण जीवन शैली के लिए जाने जाते हैं और धार्मिक होते हैं। महादेव शिव गद्दियों के आराध्य देव हैं लोकल भाषा में चम्बा भरमौर के गद्दी शिव को धूड़ू के नाम से पुकारते हैं। भरमौरी कैलाश मणिमहेश गद्दियों का सबसे पवित्र स्थान है।
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ईमानदार और मेहनती हैं गद्दी
गद्दी समुदाय के गांवों में अपराध दर न के बराबर पाई जाती है। इन लोगों का स्टेमिना भी अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक होती है। ये लोग आसानी से अपनी पीठ पर भार उठाकर मीलों चल सकते हैं और कठिन से कठिन मौसम को सह सकते हैं।
इन लोगों को मुख्य रूप से पहाड़ी क्षेत्र में पैदल चलना होता है और इसीलिए वे आसानी से खड़ी पहाड़ियों को पार कर जाते हैं। गद्दी बेहद ईमानदार माने जाते हैं। वे बहुत मेहनत से काम करते हैं और वे स्नेही और नर्म स्वभाव के होते हैं।
(लेखक कांगड़ा से हैं और एक निजी स्कूल में अध्यापन कार्य करते हैं)