शिमला।। हिमाचल सरकार ने ‘अखंड शिक्षा ज्योति मेरे स्कूल से निकले मोती’ शुरू की है। इस योजना का उद्देश्य है कि स्कूलों और कॉलेजों से निकलकर सफल हुए पूर्व छात्रों को सम्मानित किया जाए। इस तरह से सरकारी स्कूलों और कॉलेजों के प्रति आकर्षण पैदा करने की भी कोशिश की जा रही है ताकि दिखाया जा सके कि यहां के छात्र आज कहां-कहां पहुंचे हुए हैं।
लेकिन स्कूल का नाम रोशन करने वाले लोगों को अगर गौरव पट्ट पर नाम लिखवाना हो तो सरकार ने इसके लिए नियम बदलते हुए पांच हजार रुपये लेने का नियम बनाया था। सरकार का लक्ष्य था कि इस तरह से मिलने वाले अनुदान से स्कूल आदि के रख-रखाव और विकास के काम हो सकते हैं।
इस संबंध में स्कूलों के प्रिंसिपलों और शिक्षा उपनिदेशकों को निर्देश मिले हुए हैं। स्कूल के मोतियों से ली जाने वाली यह रकम सिर्फ स्कूल पर ही खर्च होगी। लेकिन प्रधानाचार्यों के लिए यह नियम परेशानी का सबब बन गया है क्योंकि जब स्कूल के पूर्व छात्रों को संपर्क किया जा रहा है तो पहले वह सम्मानित होने के नाम से उत्साहित तो हो रहे हैं, मगर जब उनसे कहा जा रहा है कि पांच हजार रुपये दिए जाने हैं तो उनका जोश ठंडा हो जा रहा है।
संपन्न लोग भी कतरा रहे
बहुत से लोग पांच हजार रुपये से अधिक रुपये भी अपने स्कूल के लिए देने के लिए खुश हैं मगर कई वरिष्ठ प्रशासनिक, सैन्य और अन्य विभागों के अधिकारी या वरिष्ठ पदों से रिटायर हो चुके स्कूल के पूर्व छात्र जेब ढीली करने के कतरा रहे हैं। हो सकता है कि कुछ की आर्थिक तंगी भी इसका कारण हो मगर कुछ को लगता है कि आखिर वे क्यों पांच हजार रुपये दे दें।
इस संबंध में ‘इन हिमाचल’ को फेसबुक से बहुत सारे अध्यापकों और प्रधानाचार्यों आदि के संदेश मिले हैं, जिनमें उन्होंने अपनी समस्या बताई है। उनका कहना है कि सरकार की इस योजना के कारण उन्हें फजीहत का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि स्कूल का कौन सा पूर्व छात्र ‘मोती’ है, उसे ढूंढकर उससे संपर्क करके सरकार की योजना के बारे में बताने का काम उन्हीं के जिम्मे है। ऐसे में उन्हें ही ‘मोतियों’ को पांच हजार रुपये के बारे में बताना पड़ रहा है जिससे सामने से कई बार टेढ़े जवाब भी मिल रहे हैं।
पैसों का बाध्यकारी नियम क्यों?
इस बीच सरकार के इस कदम की भी आलोचना हो रही है कि उसने क्यों इस तरह का बाध्यकारी नियम बनाया, जिससे लोग हतोत्साहित हो रहे हैं। या तो इस रकम को कम रखा जाना चाहिए था फिर ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए थी कि लोग अपनी मर्जी से अनुदान दे सकें। क्योंकि सिर्फ आर्थिक रूप से संपन्न हुए लोग ही स्कूल के मोती हों, जरूरी नहीं। हो सकता है कोई व्यक्ति आर्थिक रूप से संपन्न न हो मगर उसने इलाके, समाज और प्रदेश या देश के लिए कुछ ऐसा किया हो जो सबके लिए मिसाल हो। तो क्या गौरव पट्ट पर उसका नाम डालना हो, उसे सम्मानित करना हो तो पहले उससे पांच हजार रुपये मांगे जाएंगे?
यही वजह है कि यह योजना इससे पहले कि रफ्तार पकड़ती, फेल होने की ओर बढ़ती नजर आ रही है। ऐसा ही जारी रहा तो इस योजना के तहत होने वाले आयोजन अन्य सरकारी आयोजनों की तरह औपचारिक आयोजन बनकर रह जाएंगे। इससे तो सरकारी स्कूलों का भला होने से रहा।