बीजेपी में शांता-धूमल की तरह कभी नहीं होगा नड्डा-धूमल शीतयुद्ध!

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  • सुरेश चंबयाल

प्रदेश की अखबारें केंद्रीय मन्त्री जेपी नड्डा के शिमला दौरे के बाद से कई अटकलों एवं चर्चाओं से अटी पड़ी हैं। कुछ लिखते हैं यह बीजेपी में शांता-धूमल के बाद तीसरे युग का सूत्रपात है तो कुछ लिखते हैं नड्डा के इर्द-गिर्द धूमल समर्थकों का घूमना भी इस बात को पुख्ता करने लगा है कि आने वाले चुनावों की दिशा क्या रहेगी। कुल मिलाकर हर राजनीतिक पंडित इसे नड्डा युग के आगाज में रूप में दिखा रहा है।

कुछ लोगों का मानना है कि पूर्व मुख्यमन्त्री प्रेम कुमार धूमल की प्रदेश राजनीति में मंडल स्तर तक जो पकड़ है, उसे दरकिनार करते हुए नड्डा के हाथ कमांड देना पार्टी को महंगा भी भी पड़ सकता है। कुछ लोग इसे शांता-धूमल शीत युद्ध के बाद नड्डा -धूमल शीत युद्ध के तौर पर देख रहे हैं। निश्चित तौर पर धूमल की पकड़ को नकारा नहीं जा सकता, मगर जहां तक शीतयुद्ध की बात है, अगर नड्डा को कमान मिल भी जाती है, तब भी शांता-धूमल टाइप शीतयुद्ध देखने में नहीं आएगा।

क्यों नहीं आएगा, इस पर चर्चा करने से पहले हमें 90 के दौर में जाना होगा। बाबरी-मस्जिद विध्वंस के बाद जब शांता कुमार सरकार गिरी, उस वक्त प्रेम कुमार धूमल प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष थे। उन्हें हमीरपुर से शांता कुमार ने कद्दावर नेता ठाकुर जगदेव चंद को काउंटर करने के लिए इतने बड़े औहदे पर खुद ही बिठाया था। 1993 चुनावों में शांता कुमार की खुद की हार के बाद जगदेव ठाकुर इकलौते नेता बचे जो पार्टी में सबसे सीनियर थे और जीत कर भी आए थे परन्तु चुनावों के हफ्ते भर बाद उनका अकस्मात निधन हो गया। अब प्रदेश बीजेपी फिर शांता कुमार पर केंद्रित थी। धूमल प्रदेश अध्यक्ष थे और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रदेश प्रभारी। ज्ञात हो कि उस समय धूमल विधानसभा में नहीं थे। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष जेपी नड्डा थे।

Nadda Dhumal

धीरे-धीरे अपनी संगठन कुशलता एवं मृदु सवभाव से धूमल प्रदेश बीजेपी में लोकप्रिय होने लगे। बाबरी मस्जिद पर पार्टी स्टैंड से अलग स्टैंड रखने वाले शांता कुमार उस समय संघ और बीजेपी के बड़े नेताओं की आंख की किरकरी भी बन चुके थे साथ ही उनकी कर्मचारी विरोधी छवि से बुरी तरह हारी बीजेपी 1998 का चुनाव शांता कुमार के नेतृत्व में लड़ने से डर रही थी। प्रदेश प्रभारी नरेंद्र मोदी का झुकाव भी धूमल की तरफ ही था।

1998 चुनावों की घोषणा के साथ ही शांता-धूमल का शीत युद्ध शुरू हो गया। कांगड़ा के अधिकतर नेता शांता कुमार के साथ थे तो धूमल के साथ भी अच्छा खासा समर्थन था। टिकट आवंटन की मीटिंग में ज्वालाजी गेस्ट हॉउस में ऐसी नौबत आ गई कि शांता और धूमल समर्थक नेता आपस में हाथापाई तक उलझ गए थे, जिसे प्रदेश बीजेपी के इतिहास में ज्वालाजी कांड कहा जाता है। 1998 में शांता को किनारे कर धूमल मुख्यमंत्री भी बन गए, परन्तु शांता-धूमल समर्थक गुटबाजी में उलझी भाजपा कभी इस से बाहर नहीं आ पाई। लेकिन हां, ऐसा जरूर हुआ की शांता कुमार के समर्थक नेता धीरे-धीरे धूमल के साथ अपना भविष्य जोड़ते गए।

केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिए जाने के बाद शांता कुमार राजनीतिक रूप से और कमजोर हुए। एक दशक के अंदर 2007 तक धूमल के पास प्रदेश राजनीति में ऐसे समर्थक विधायकों की फौज हो गई जो उनके समर्थन में कुछ भी कर सकती थी, जैसे वीरभद्र समर्थक नेता करते हैं। इसीलिए 2007 में जब शांता कुमार की प्रदेश राजनीति में लौटने की सुगबुगाहट हुई, तब इन्ही समर्थकों के भार से वो आवाज कहीं दब गई। परन्तु जब भी प्रदेश में चुनाव होता टिकट आवंटन पर शांता -धूमल शीतयुद्ध हावी रहता। खासकर कांगड़ा में 2012 में जो नतीजे आए वो सब जानते हैं।

2007 से 2012 तक के कार्यकाल में धूमल अपनी रणनीति से शांता समर्थकों को या तो अपने साथ ला चुके थे या फिर राजनतिक हाशिये पर धकेल चुके थे। सरवीण चौधरी रविंद्र रवि आदि नेता अब धूमल के ज्यादा नजदीक थे। वहीं महेश्वर सिंह , महिंदर नाथ सॉफ्ट किशन कपूर रमेश धवाला आदि नेता राजनीतिक हाशिये पर धकेले जा रहे थे। इसी बीच अब तक किसी गुट में नहीं रहे और अपनी स्वतंत्र छवि बरकरार रखे हुए जेपी नड्डा ने 2003 का चुनाव हारने के बाद 2007 में 19 000 के मार्जन से फिर जीत दर्ज करते हुए जबरदस्त वापसी की। शांता के वर्चस्व को धूमिल करने के बाद धूमल का टारगेट अब नड्डा थे।

उस वक़्त प्रदेश राजनीति में धूमल का दबदबा भी जोरों पर था। सीनियर नेता होने के बावजूद नड्डा को लोक निर्माण, सिंचाई एवं जनस्वस्थ्य, हेल्थ , उद्योग और शिक्षा आदि महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो से अलग रखकर वन विभाग दिया गया, जो सीधे तौर पर जनता से नहीं जुड़ा था। यहां से नड्डा और धूमल के बीच अघोषित युद्ध शुरू हुआ। स्थिति यहां तक आ गई कि नड्डा ने मंत्रिपद छोड़कर प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष बनने की इच्छा जाहिर कर दी, परन्तु उनकी जगह खीमी दी गई। इसी के साथ चुनावी वर्ष 2012 के पहले पखवाड़े में ही नड्डा मंत्रिपद से त्यागपत्र देकर गडकरी की टीम का हिस्सा बनकर दिल्ली आ गए और मिशन मोदी की रीढ़ बन गए। 2012 के चुनावों में फिर शांता -धूमल शीत युद्ध में फंसी बीजेपी बुरी तरह हारी।

उधर केंद्र में नड्डा मजबूत होते गए। संगठन के रास्ते बढ़ते-बढ़ते नड्डा पार्टी की सबसे बड़ी इकाई केंद्रीय पार्लियामेंट्री बोर्ड चुनाव सीमिति का हिस्सा तो बने ही, साथ ही केंद्रीय स्वास्थ्य मन्त्री बनकर मोदी की कैबिनेट में शामिल हो गए।

अब नड्डा प्रदेश का रुख करते भी हैं या सोचते भी हैं , तब भी शीतयुद्ध नहीं हो सकता क्योंकि युद्ध समर्थकों के दम पर लड़ा जाता है। और बेशक धूमल समर्थक नेता प्रदेश में हों, परन्तु वे न तो खुलकर नड्डा के साथ हो न सकते हैं और नही इस मामले में धूमल का समर्थन कर सकते हैं। नड्डा का रुतबा पार्टी में अब इतना बड़ा है कि कोई चाहकर भी यह नहीं जता पाएगा कि वह नड्डा के प्रदेश में आने से खुश नहीं है। केंद्रीय चुनाव सिमिति और पार्लियामेंट्री बोर्ड में बैठे व्यक्ति से कोई भी मंझा हुआ नेता टकराव नहीं पालना चाहेगा। ऊपर से नड्डा अभी 55 साल के हैं। वो मुख्यमंत्री बनकर आएं या न आ पाएं, परन्तु उनसे घोषित टकराव करके कोई भी धूमल समर्थक भविष्य के लिए रार नहीं पालना चाहेगा। शांता विरोधियों को धूमल की शरण मिल जाती थी परन्तु नड्डा का सरेआम विरोध करके धूमल की शरण कब तक बचा पाएगी, इसपर हर कोई सोचेगा। तब शांता कुमार वृद्धावस्था की तरफ बढ़ रहे थे और अब धूमल बढ़ रहे हैं।

शिमला में नड्डा के आसपास धूमल समर्थकों की फौज इसलिए यही दिखाने के लिए दिखी कि हम पार्टी के आदमी हैं और उसके हर फैसले का सम्मान करेंगे। नड्डा ने अपना रुतबा इतना बड़ा कर लिया है कि धूमल -नड्डा शीतयुद्ध अब संभव नहीं हैं। नड्डा वैसे भी प्रतिक्रिया देने वाले नेता नहीं जाने जाते। वह प्रदेश राजनीति में आएंगे या वर्तमान हालात का लुत्फ उठाते रहेंगे, यह राज वही जानते हैं। जब तक वह खुद पत्ते नहीं खोलेंगे, तब तक अटकलों के बाज़ार यूं ही गर्म रहेंगे। मगर शीतयुद्ध की संभावना न के बराबर है।

(लेखक हिमाचल प्रदेश से जुड़े विभिन्न मसलों पर लिखते रहते हैं। इन दिनों इन हिमाचल के लिए नियमित लेखन कर रहे हैं।)

DISCLAIMER: लेख में लिखी बातों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी है।