हिमाचल में घर, गांव और राजनीति से लेकर देव परंपरा तक फैला है जातिवाद

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हिमाचल प्रदेश में कुल्लू के चेष्टा स्कूली बच्चों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम में कथित रूप से जाति के आधार पर किए गए भेदभाव के बाद हिमाचल प्रदेश में जातिवाद को लेकर बहस छिड़ गई है। ‘इन हिमाचल’ ने इस संबंध में एक लेख प्रकाशित किया गया था, जिसमें यह कहा गया था कि कैसे अगड़ी जाति के कुछ लोग यह स्वीकार करने को ही तैयार नहीं हैं कि जातिवाद है ही। साथ ही वे जातिगत भेदभाव की आलोचना करने के बजाय आरक्षण को बीच में लाकर बहस की दिशा घुमाने की कोशिश करते हैं। इसी लेख में एक पाठक की ओर से टिप्पणी आई है, जो सभी को पढ़नी चाहिए। हम दीपक शर्मा नाम के पाठक की इस लंबी टिप्पणी को नीचे यथावत प्रकाशित कर रहे हैं।

दीपक शर्मा।। ये सही है कि हिमाचल में सिर्फ जात के लिए ज़िंदा जला देने के किस्से कभी नहीं सुने गए. यहां बगाव़ती मोहब्बतों का अंत गांव के बाहर लटकी लाशों में भी नहीं होता. अंतरजातीय जीवनसाथी खोजने का एक उदाहरण ख़ुद ये नाचीज़ है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि कुदरत की जन्नत में इंसान भी देवता हो चुके हैं. एक तरह से आज के हिंदुस्तान पर टिप्पणी ही है कि अगर कुछ हिमाचली महज़ इतने पर भी फख्र महसूस करने लगें.

कम से कम पहाड़ी हिस्सों में दलितों को विवाह-कारज का न्योता भी होता है. लेकिन ऊंची जातियों की पैंठ के बीच से अगर एक दलित बच्चा भी ग़लती से गुज़र जाए तो 100 के 100 लोग भी उठने में एक मिनट ना लगाएं. ज़िंदा इंसान की चमड़ी छील दें, उनके रीति-रिवाज पर दादागीरी चलाएं, ऐसी तासीर हममें नहीं है कम आबादी, कुदरती संपदा, उन्मुक्त जनजातीय संस्कृति की छाप और ज़मीन की मिल्कियत में अपेक्षाकृत कम विषमता का नतीजा है शायद. लेकिन अपने इर्द-गिर्द नज़र दौड़ाना ही काफ़ी है इस नतीजे तक पहुंचने के लिए कि जातिवाद का ज़हर हमारी ख़ूबसूरत फ़ज़ाओं में भी उतना ही घुला है जितना देश के किसी दूसरे हिस्से में.

शुतुरमुर्ग बने बैठे हैं तथाकथित अगड़ी जातियों के कुछ लोग

हिमाचल के दलितों में करीब 93 फीसदी गांवों में रहते हैं. ये वो इलाके हैं जहां इंसान अगर देवता हो जाएं तो भी दलितों की दुश्वारी नहीं सुलझेगी. बल्कि कई गुना बढ़ ही जाएगी. ऊपरी हिमाचल के मध्यम वर्ग का अधिकांश हिस्सा- जो पढ़-लिखकर शहर पहुंच चुका है- जाति के मामले में कहीं ज़्यादा लिबरल हो सकता था- लेकिन उसके आड़े वही देव-संस्कृति आ जाती है जिसपर हम सब गर्व करते हैं. निचले हिमाचल में अगड़ी जातियों के श्रेष्ठता-बोध का मनोविज्ञान थोड़ा अलग है. उस पर मध्यकाल में मैदान से पलायन करके बसे रजवाड़ों का असर दिखता है. लेकिन ज़मीनी परिणाम दलितों के लिए वही है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

देवी-देवताओं के कर्मकांडों में भागीदारी की ड्यूटी हर जाति के होती है. सभी को देवता के उत्सव-कर्मकांडों के सालाना कैलेंडर के मुताबिक वक्त देना होता है. लेकिन निष्ठा का ढोल यहां भी दलितों के गले में ही ज़्यादा होता है. बमुश्किल परिवार का पेट पालने वाला बजंतरी कई-कई दिन भारी-भरकम वाद्य यंत्रों को ढोता है, आयोजनों में अगड़ी जातियों से चार सीढ़ी नीचे या 10 हाथ दूर बचे हुए खाना खाता है. घर की निचली मंज़िल पर मेहमानों के कमरों में अस्थायी तौर पर तब्दील गोशालाओं या गोदामों में ज़मीन पर ही सो जाता है.

ये सब बग़ैर दिहाड़ी. लेकिन देवता के मंदिर के भीतर जाना तो दूर उसके लिए देवता के रथ को छूना भी पाप होता है. देवता भी ऐसे जिनके कायदे राजा के वंशजों और ब्राह्मणों समेत अगड़ी जाति को साफ तौर पर वरीयता देते है. नाफ़रमानी की सज़ा- दैवीय प्रकोप का खौफ़. अक्सर दलितों के अपने अलग देवता होते हैं जो भव्य रथों, साज़ों और मंदिरों में नहीं चट्टानों, पेड़ों, खोखरों में ज़्यादा बसते हैं.

गांव के ताने-बाने से लेकर राज्य सरकार की मशीनरी तक- दलित हिमाचल में हर जगह हैं. राजनीति, किसानी-बाग़वानी, शिक्षा, सरकारी क्षेत्र, आप जहां चाहें देख लें. लेकिन जब बात ताकत देने की आती है तो किसकी चलती है इसका एक नमूना सियासत से ही मिलता है. नए बने मुख्यमंत्री का सरनेम ही इसकी गवाही देता है.

हिमाचल के अब तक के छह मुख्यमंत्रियों में पांच राजपूत रहे हैं. छठे बचे हुए शांता कुमार ब्राह्मण हैं. राज्य के पहले सीएम यशवंत सिंह परमार खुद राजपूत समुदाय से थे. यहां की दो बड़ी पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी, दोनों के अब तक के सभी राज्याध्यक्ष इन्हीं दो जातियों से रहे हैं. मौजदगी रखने वाली तीसरी पार्टी सीपीएम भी दलितों को उनकी आबादी के अनुपात में नुमाइंदगी नहीं दे पाई है. यहां आज तक किसी पार्टी ने 17 आरक्षित सीटों के अलावा किसी दूसरी सीट पर कभी किसी दलित को टिकट नहीं दिया. दिल्ली की सियासत में दिखने वाले हिमाचल के सभी नेताओं के नाम गिनिए- अनुराग ठाकुर, सुखराम, आनंद शर्मा, जेपी नड्डा, शांता कुमार- सब के सब ब्राह्मण या राजपूत.

ये हालात तब हैं जब कुल आबादी के हिसाब से दलितों के अनुपात के मामले में हिमाचल (25.2 फीसदी) का नंबर देश भर में दूसरा है. इसकी तुलना में देश की आबादी का 16.2 फीसदी हिस्सा अनुसूचित जाति की श्रेणी में आता है. अगर ओबीसी को भी जोड़ दें तो ये तबका कुल आबादी का 38 फीसदी से कुछ ज़्यादा होता है जो तकरीबन 32 फीसदी वाले राजपूत समुदाय से भी ज़्यादा है.

हिंदुस्तान के नक्शे के कंठ से जब हम नीचे देखते हैं तो जाति और धर्म में बंटी सियासत का जर्जर चेहरा नज़र आता है. लेकिन ऐसे ध्रुवीकरण वाले राज्यों में कम से कम जाति की समस्या को स्वीकार तो किया गया है. हम अब भी अपनी मंथर गति से चलती ज़िंदगी में उनींदी आंखों के साथ आगे बढ़ रहे हैं. पहाड़ों में ज़िंदगी की शर्तें अभी इतनी गलाकाट नहीं बनी हैं कि इंसान को बर्बर बना दे. आइये इतने मूर्ख और दंभी भी ना बनें सच को ना पहचानें. शोषण और उसकी ओर आंखें बंद रखने की कोई जस्टिफिकेशन नहीं हो सकती- ना संस्कृति, ना ही पैदाइश.

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