इन हिमाचल डेस्क।। किसी भी समाज में अलग-अलग तरह के लोग होते हैं। उनकी शिक्षा, अनुभव और समझ का स्तर अलग हो सकता है। मगर पत्रकारिता जैसे पेशे की बात करें तो पत्रकार का शिक्षित, अनुभवी और समझदार होना बहुत जरूरी है। वरना वह अफवाह और सही सूचनाओं के बीच फर्क नहीं कर पाएगा और खुद भी गलत सूचनाओं का प्रसार करने लग जाएगा। भारत में पिछले कुछ समय से ऐसा ही देखने को मिल रहा है क्योंकि कई प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान यह दावा करने लगे हैं कि बाजार में प्लास्टिक के चावल, प्लास्टिक की सब्जियां और प्लास्टिक के अंडे मिल रहे हैं। लोग भी इस तरह के भ्रामक वीडियो खूब शेयर करते हैं मगर बाद में यही मीडिया संस्थान एक भी खबर नहीं छापते कि प्रयोगशाला में जांच करने पर सैंपल का नतीजा क्या रहा।
हिमाचल प्रदेश के चंबा का एक वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर हो रहा है। कुछ तथाकथित मीडिया पोर्टल्स के साथ-साथ प्रतिष्ठित अखबारों ने भी खबर छापकर दावा किया है- डिपुओं में प्लास्टिक के चावल की मिलावट। दावा किया जा रहा है कि कुछ चावल पानी में डालते ही तैरने लगे और नरम होकर फूल गए। बस, इसी आधार पर दावा कर दिया कि चावल प्लास्टिक के हैं।
अब चंबा वाले मामले में चावल की गुणवत्ता पर सवाल तो उठाए जा सकते हैं। क्योंकि यह बिल्कुल संभव है कि सप्लाई करने वाले ने ताजा चावल के साथ कई साल पुराने चावल की मिलावट की हो या फिर दो अलग-अलग किस्मों के चावल मिला दिए हों। यही वजह है कि पुराने वाले दाने डूब नहीं रहे और तुरंत फूल गए। दो अलग किस्में होने के कारण दोनों के पकने में समय में भी अंतर रहेगा। चावल की दुनिया में चालीस हजार से ज्यादा किस्में है। इनकी दिखावट, आकार, स्वाद और पकने के समय में बहुत अंतर है। चंबा वाले मामले में भी यही एक वैज्ञानिक वजह नजर आती है। लेकिन यह तो बिल्कुल बेतुकी बात है कि चावल प्लास्टिक के हों।
जो रोज चावल बनाता होगा, वह जानता है कि पानी में डालने पर शुरू में कुछ चावल तैरते ही हैं। यह पानी की सरफेस टेंशन के कारण होता है। इसीलिए जब तैरने वाले चावल भिगो दिए जाएं तो वे डूब जाते हैं। लेकिन अगर बहुत पुराने चावल हों तो उनमें से कुछ तैरते रह जाते हैं क्योंकि वे बेहद हल्के हो चुके होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि कई बार अनाज को गोदामों में खुले में रखा जाता है। भीषण गर्मी और बारिश तक में वे भीगते हैं। इस कारण उनके अंदर की केमिकल संरचना में बदलाव आ जाते हैं जिससे वे हल्के हो जाते हैं और अपने स्वाभाविक गुण खो देते हैं। वैसे भी दालों या अन्य तरह के अन्न को धोते वक्त यही प्रक्रिया अपनाई जाती है। जो दाने तैरने रह जाते हैं, उन्हें खराब समझकर अलग कर दिया जाता है।
प्लास्टिक के चावल की बात बेतुकी
भारत और चीन जैसे देश में धान की भरपूर खेती होती है। इतनी ज्यादा पैदावार होती है कि मंडियों और गोदामों तक में धान रखने की जगह नहीं मिलती। इस कारण थोक में धान की कीमत बहुत गिर जाती है। इसलिए किसी को प्लास्टिक के चावल बनाने की जरूरत ही नहीं रहती। वैसे भी, प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जो रसायनों से बनाया जाता है। पारदर्शी और चावल की तरह उच्च गुणवत्ता वाले प्लास्टिक के चावल बनाने हों तो उसमें ‘वर्जिन’ प्लास्टिक इस्तेमाल करना पड़ेगा जो बहुत महंगा होता है। मिलावटखोर मिलावट करते हैं ताकि उन्हें मुनाफा हो। भला कोई मिलावटखोर ज्यादा महंगा प्लास्टिक का चावल क्यों मिलाएगा?
मान भी लिया जाए कि ये प्लास्टिक के चावल हैं तो क्या प्लास्टिक पानी में उबालने पर चावल की तरह नरम हो जाता है और फिर ठंडा होने पर भी नरम रहता है? यह हर कोई जानता है कि प्लास्टिक न तो पानी में घुलता है और न उसे पकाकर नरम किया जा सकता है। साथ ही, प्लास्टिक सख्त रहता है, रबर की तरह उछलता नहीं। इसी बात से उन दावों की भी पोल खुल जाती है, जिनमें कहा जाता है कि कुछ होटल वाले प्लास्टिक के चावल बना रहे हैं। आए दिन ऐसे वीडियो सामने आते हैं जिनमें लोग चावल की गेंदे बनाकर उन्हें फेंकते हैं जो उछलने लगती हैं। प्लास्टिक में ऐसा गुण नहीं होता। गेंदें उछलती हैं चावलों के अंदर मौजूद स्टार्च के कारण होता है। गांव के लोग जानते होंगे कि पितरों को चढ़ाने के लिए चावल के ऐसे ही पेड़े बनाए जाते हैं। मगर जिन लोगों का खेती या किचन से कभी वास्ता नहीं रहता, वे अज्ञान में प्लास्टिक की थ्योरी गढ़ने लगते हैं।
प्लास्टिक ग्रैन्यूल्स से फैला भ्रम
इस तरह की अफवाहों को बल मिला एक वायरल वीडियो से, जिसमें चीन के कुछ लोग एक फैक्ट्री में मशीन के ऊपर प्लास्टिक डाल रहे थे और नीचे चावल की तरह दिखने वाले दाने निकल रहे थे। मगर वास्तव में वह वीडियो ऐसी फैक्टरी है, जो प्लास्टिक को छोटे टुकड़ों में बदलती है। प्लास्टिक के इन कणों (ग्रैन्यूल्स) का इस्तेमाल आगे पिघलाकर तरह-तरह की चीज़ें बनाने में होता है। यानी अलग-अलग तरह के टुकड़ों को पिघलाने की बजाय इन चावल की तरह दिखने वाले प्लास्टिक ग्रैन्यूल्स को पिघलाकर नई वस्तु का आकार दिया जाता है। बस, देखादेखी में लोगों ने इस वीडियो को शेयर किया और फिर एक के बाद एक लोग दावा करने लगे कि प्लास्टिक के चावल आ रहे हैं। और तो और कुछ मीडिया संस्थानों गैरजिम्मेदाराना ढंग से इस बात पर फैक्ट चेक कर दिया कि प्लास्टिक और असली चावल में फर्क कैसे करें।
इसी तरह वैक्स की मदद से दिखावटी सब्जियां बनाने वाली एक कंपनी के वीडियो यह कहकर प्रचारित किया गया कि अब नकली पत्ता गोभी बन रही है। फिर कुछ लोगों ने गोभी को जलाना शुरू कर दिया, यह कहकर कि ये तो प्लास्टिक की है। इसी तरह कुछ लोग अंडों को प्लास्टिक का अंडा बताने लगे। जबकि भारत में पोलट्री उद्योग काफी विकसित है और अगर किसी को प्लास्टिक का अंडा बनाना हो तो वह असली अंडे से कई गुना महंगा बनेगा। तो कोई ऐसा क्यों करेगा? कोलकाता में ऐसे ही एक परिवार ने दावा किया था कि उसे प्लास्टिक के अंडे बेचे गए। जांच में पता चला कि वे बत्तख के अंडे थे और कई दिनों से फ्रिज में रखे हुए थे। इसी कारण उनकी दिखावट में अंतर था।
पत्रकारों की जिम्मेदारी क्या?
अब फिर आते हैं चावल पर। आंध्र प्रदेश में भी इस तरह की खबरें आई थीं जबकि आंध्र में भरपूर चावल पैदा होते हैं। जांच में प्लास्टिक के चावल होने के सारे दावे फर्जी पाए गए। लेकिन जिन मीडिया कर्मियों ने ऐसी अफवाहों वाली खबरें छापीं, बाद में उन्होंने यह खबर नहीं छापी कि जांच की रिपोर्ट क्या आई। वे अफवाहें फैलाकर लोगों को गुमराह करने में लगे रहे। इसीलिए, पत्रकारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि कोई व्यक्ति अगर किसी तरह का दावा करता है तो उसे अपनी समझ के आधार पर परखें और अगर खुद कोई बात पता न हो तो एक्सपर्ट की मदद लें। ऐसा नहीं कि खुद भी अफवाहों को हवा देने में जुट जाएं।
चंबा वाले मामले में डिपो से सप्लाई किए गए चावल के सैंपल की जांच होनी चाहिए। अगर उन्होंने खराब चावल मिलाए हैं तो कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन क्या उन लोगों पर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए जो अफवाहें फैलाने में योगदान दे रहे हैं?