क्या कुलदीप राठौर की चूक ने हिमाचल कांग्रेस को घुटनों पर ला दिया है?

आई.एस. ठाकुर।। हिमाचल में लोकसभा चुनाव के सबसे आखिरी चरण में वोटिंग होगी। एक ओर जहां बीजेपी के उम्मीदवारों ने चुनाव प्रचार शुरू कर दिया है, कांग्रेस में समझ ही नहीं आ रहा कि हो क्या रहा है। इतने चुनाव हिमाचल में हो गए मगर कांग्रेस कभी इतनी बेबस नजर नहीं आई कि उसके दिग्गज नेता ही चुनाव लड़ने से कतरा रहे हों। हालात ऐसे हैं कि कुछ समय पहले तक जो दावेदारी जता रहे थे, वे भी गायब से हो गए हैं।

शिमला में धनी राम शांडिल के नाम की चर्चा चल रही है मगर उनके नाम का ऐलान अभी तक नहीं हुआ। मंडी से पंडित सुखराम के पोते आश्रय शर्मा को टिकट देने की चर्चा चल रही है जो पहले बीजेपी से टिकट मांग रहे थे और फिर हाल ही में कांग्रेस में शामिल हुए हैं। हमीरपुर से बीजेपी के असंतुष्ट सुरेश चंदेल को टिकट दिए जाने की संभावनाओं की अटकलें हैं तो कांगड़ा में तो रायता ही फैला हुआ है।

बेबस हुई कांग्रेस
ऐसा लगता है कि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने चुनाव से पहले ही हार मान ली है। कांग्रेस संगठन मानो घुटने टेक चुका है। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस का नेतृत्व इतना बेबस हो चुका है कि वह अच्छा प्रत्याशी अपनी पार्टी के अंदर से नहीं ढूंढ पा रहा जो अब बीजेपी से आयातित लोगों को टिकट देने की चर्चा हो रही है। वह भी उन लोगों को, जिन्हें टिकट देना बीजेपी ने भी उचित नहीं समझा।

इससे यह पता चल रहा है कि कांग्रेस के नेताओं और पूरे के पूरे संगठन के अंदर न सिर्फ आत्मविश्वास की कमी है बल्कि अनुशासन की भी कमी है। वे पार्टी के लिए आगे आकर लोहा लेने से भी कतरा रहे हैं। ये डरे हुए लोग भला कैसे 2022 में मुख्यमंत्री बनने का ख़्वाब देख रहे हैं? हिमाचल में बने इस माहौल ने कांग्रेस के रहे-सहे कार्यकर्ताओं का मनोबल भी पूरी तरह तोड़कर रख दिया है।

अगर कांग्रेस संगठन और पार्टी के ही किसी व्यक्ति को टिकट दे तो इससे कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा। भले वो हर जाए। मगर बाहरी लोगों को अचानक टिकट दे देने से उन कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता है जो सब कुछ छोड़कर पार्टी के लिए काम कर रहे होते हैं। यह सही है कि विनेबिलिटी देखनी होती है। मगर विनेबिलिटी के चक्कर में ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए कि पार्टी की नींव ही खोखली हो जाए।

राठौर की जिम्मेदारी
पिछले दिनों जब सुखविंदर सिंह सुक्खू की जगह कुलदीप सिंह राठौर को कांग्रेस का प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया था तो उनसे उम्मीद की जा रही थी कि वह संगठन को नई दिशा देंगे। राठौर ने भी कहा था कि अब नए सिरे नए जोश का संचार पार्टी में किया जाएगा। मगर राठौर के दावे धरे के धरे रहते नजर आ रहे हैं। वह खुद बेबस से नजर आ रहे हैं और दिल्ली और शिमला के बीच चक्कर काटने में व्यस्त हैं।

कुलदीप सिंह राठौर

दरअसल कांग्रेस की यह हालत इसलिए भी हुई है कि वीरभद्र सिंह आराम से बैठकर मुस्कुराते हुए सब देख रहे हैं। उन्होंने कह दिया है कि मैं खुद चुनाव लड़ूंगा नहीं, मंडी से कोई मकरझंडू लड़ेगा; शिमला से कोई भी लड़ लेगा, हमीरपुर से अभिषेक राणा को लड़ाना चाहिए और कांगड़ा से सुधीर को। इसके अलावा वह न तो कोई सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं और न ही कोई जोर आजमाइश कर रहे हैं।

वीरभद्र की चुप्पी
वीरभद्र का यूं शांत बैठ जाना पहली बार देखने को मिला है। वरना विधानसभा चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक हमेशा वीरभद्र अपने या अपने लोगों को टिकट दिलाने के लिए जोर लगाते रहे है। वह इस बार अपने पसंदीदा लोगों के पक्ष में बोल तो रहे हैं मगर वह भी तब, जब कोई पत्रकार उनसे इस बारे में सवाल करे। वरना वह कोई कोशिश नहीं कर रहे कि अपने लोगों को टिकट ही दिलवा दिया जाए।

कुलदीप राठौर जब अध्यक्ष बने थे, शपथ लेने वाले दिन हुए विवाद के बाद ही यह संकेत मिल गए थे कि वह वीरभद्र पर आश्रित रहकर ही आगे बढ़ना चाह रहे हैं। यहीं उनसे चूक हो गई। उनका वीरभद्र को अधिक तरजीह देना ही आज उनके लिए अब परेशानी का सबब बन गया है। वीरभद्र चुप हो गए हैं और कुलदीप को समझ नहीं आ रहा कि क्या किया जाए। उधर अग्निहोत्री, जीएस बाली, सुधीर शर्मा, कौल सिंह… ये भी खामोश हैं। सबको चिंता है कि इस चुनाव में हारे तो भविष्य की सारी संभावनाएं खत्म। ऐसे में कुलदीप अकेले ही सब कुछ मैनेज करते नजर आ रहे हैं।

सुक्खू की राह चलते तो…
सुखविंदर सिंह सुक्खू की वीरभद्र लाख आलोचना करते हों मगर वह तिकड़मी थे। जानकारों का कहना है कि अगर वह प्रदेशाध्यक्ष होते तो कांग्रेस की हालत ऐसी न हुई होती, वह किसी न किसी तरह ऐसी व्यवस्था कर ही लेते कि कांग्रेस के अपने अंदर से ही लोग चुनाव लड़ने के लिए न सिर्फ तैयार होते बल्कि वे ऐसे उम्मीदवारों के नाम भी आगे बढ़ाते जो भाजपा को कड़ी टक्कर देने का माद्दा रखते।

वैसे अभी भी सुक्खू से वीरभद्र को दिक्कत है। तभी तो दो दिन पहले एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि सुक्खू राजनीति कर रहे हैं। बुरी तरह खज्जल नजर आ रहे कुलदीप को चाहिए था कि अध्यक्ष बनते ही उसी राह पर चलते, जो सुक्खू ने पकड़ी थी- वीरभद्र के छत्र से बाहर आओ और अन्य खेमों को भी भाव मत दो। लेकिन यहीं उनसे चूक हो गई थी।

अब शायद कुलदीप ने देर कर दी है। सबको साथ लेकर चलने के चक्कर में उन्होंने संगठन को कमजोर कर दिया है। हिमाचल का इतिहास रहा है कि चुनाव कोई भी रहा हो, कांग्रेस ने अगर वीरभद्र की पसंद के बंदे को टिकट नहीं दिया है तो चमत्कारी ढंग से या तो वह बुरी तरह हारा है या फिर हारते-हारते बचा है। ऐसा क्यों होता है, इसे लेकर कई तरह थ्योरियां चलन में हैं। अब लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस ऐसे लोगों को टिकट देने की तैयारी कर रही है जो वीरभद्र खेमे के नहीं हैं। ऐसे में इनके जीतने पर पहले ही सवाल खड़ा हो जाता है।

सुक्खू ने कांग्रेस को वीरभद्र के इसी इफेक्ट से बाहर निकालने की कोशिश की थी। मगर शायद राठौर को भी लगता होगा कि हिमाचल में वीरभद्र ही कांग्रेस है, वीरभद्र के बिना कांग्रेस कुछ नहीं। लेकिन वह भूल गए कि राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं। समीकरण और प्रभाव को बदला जा सकता है। अगर राठौर समय पर सही कदम उठाए होते तो ऐसी नौबत न आती। अब चूंकि उम्मीदवारों को लेकर वही सारी भागदौड़ कर रहे हैं, ऐसे में अगर कांग्रेस के उम्मीदवार हारे तो सारा ठीकरा उन्हीं के सिर फूटेगा। इसका सीधा फायदा किसे होगा, सभी जानते हैं।

(लेखक लंबे समय से हिमाचल से जुड़े विषयों पर लिख रहे हैं। उनसे kalamkasipahi @ gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

ये लेखक के निजी विचार हैं

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