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अंग्रेजों को सबक सिखाने वाले हवलदार हरनाम सिंह की कहानी, दोस्त की जुबानी

मृत्युंजय पुरी, धर्मशाला।। पूरा देश जश्न-ए-आजादी मना रहा है। यह वक्त है उन रणबांकुरों को याद करने का, जिन्होंने अपनी जान पर खेलकर हमें आजादी दिलाई है। इसमें कुछ को फ्रीडम फाइटर का दर्जा मिल गया, तो कुछ गुमनामी के अंधेरों में खोए रहे। कुछ ऐसे ही गुमनाम हीरो हैं हवलदार हरनाम सिंह।

हवलदार हरनाम सिंह धर्मशाला के निकटवर्ती गांव सराह के रहने वाले थे। हमने सराह गांव के वयोवृद्ध विद्दू राम से बात की। विद्दू राम उस समय हवलदार हरनाम के घनिष्ठ रहे हैं। उन्होंने बताया कि वर्ष 1912 में सराह गांव में जन्मे हरनाम 1932 में अंग्रेजी सेना की पंजाब रेजिमेंट में बतौर सैनिक भर्ती हुए तो महज चार साल में ही अपनी योग्यता के दम पर उन्होंने हवलदार का रैंक हासिल कर लिया।

हवलदार हरनाम सिंह के दोस्त विद्दू राम

समय बीता और 1939 से 1945 तक चले दूसरे विश्व युद्ध में हरनाम ने बैल्जियम, सिंगापुर, बर्मा व मलाया जैसे देशों में लड़ाई लड़कर बहादुरी के लिए अनगिनत मेडल हासिल किए। सन् 1945 में वह अपनी बटालियन मेरठ आए। यहां उनका रुतबा अस्थायी रूप से बटालियन हवलदार मेजर का था, जिन्हें 850 सैनिकों पर कमांड का अधिकार था।

चूंकि पंजाब रेजिमेंट के बहुत सारे जवान नेताजी की आजाद हिंद फौज से जुड़ रहे थे, ऐसे में फिरंगी उनसे नफरत करते थे। इसी कड़ी में एक दिन परेड के दौरान कर्नल रैंक के फिरंगी अफसर ने दो भारतीय सैनिकों को गालियां निकालना शुरू कर दी, इस पर हरनाम ने विरोध जताया, तो वह उन पर ही झपट पड़ा। बस फिर क्या था, भारत माता के जयकारे लगाकर उन्होंने रायफल उठा ली।

हवलदार हरनाम सिंह

जांबाज को गुस्से में देख फिरंगी ऐसा भागा कि उसने कर्नल बैरक में जाकर शरण ली। बाद में हरनाम को अरेस्ट कर 15 दिन जेल में रखा। कोर्ट मार्शल के बाद मौत की सजा (गोली मारकर) सुना दी। खैर, बड़ी बगावत के डर से अंग्रेजों ने उन्हें माफी मंगवानी चाही, लेकिन उन्होंने साफ इनकार कर दिया। इस पर उन्हें एक्सट्रीम कंपनसेट ग्राउंड पर बिना मेडल-पेंशन घर भेजा गया, जब वह घर आए तो मां-बाप और पत्नी की मौत हो चुकी थी। घर आने पर भी आजादी तक वह अंग्रेज पुलिस-सेना के रडार पर रहे, लेकिन इस गुमनाम हीरो ने अंग्रेजों को भगाने तक युवाओं में आजादी की मशाल जलाए रखी।

विद्दू राम ने बताया कि सराह के दो सूबेदारों ने प्रथम विश्व युद्ध में भाग लिया था। उन्हें ब्रिटिश सरकार ने सम्मानित किया था। दूसरे विश्व युद्ध में पांच योद्धाओं ने भाग लिया था। इनमें सावन सिंह, धर्मचंद, बलवंत राय, शिविया राम विदेशी जेलों में भी रहे। हवलदार हरनाम सिंह को जब अग्रेंजी हुकूमत ने सजा देने का ऐलान किया तो लोगों को बड़ा दुख हुआ।

सराह गांव में हिंदू-मुस्लिम मिलकर रहते थे। विद्दू राम को याद है कि जब 1947 में देश आजाद हुआ तो लाहौर से आने वाली ट्रेनों में हिंदुओं के शव देखकर लोगों में गुस्सा भड़क गया था। विद्दू राम को याद है कि उस समय हरनाम सिंह की हवेली में ही मुस्लिमों को ठिकाना मिला था। हरनाम सिंह ने जान पर खेलकर मुस्लिम भाइयों को कांगड़ा रेलवे स्टेशन पर सुरक्षित पहुंचाया। इस दौरान दो बार हरनाम सिंह पर गुस्साई भीड़ ने हमला भी किया था। वह न तो फिरंगियों से डरे, न ही भीड़ के गुस्से से ,लेकिन कांगड़ा से अपने मुस्लिम भाइयों को हमेशा के लिए बिछुड़ते देख उनकी आंखें नम हो गईं। उस समय वह फूट फूटकर रोए।

ब्रिटिश हुकूमत द्वारा कोर्ट मार्शल के बाद हरनाम सिंह को जेल जाना पड़ा, मेडलों के साथ नौकरी गंवानी पड़ी, लेकिन यह हिमाचली हौसला ही था, जिसने घर आने के बाद भी नौजवानों के दिलों में आजादी की मशाल अंग्रेजों की विदाई तक जलाए रखी। वर्ष 2005 में उनका निधन हो गया, लेकिन इस जांबाज ने कभी सरकार से पेंशन-भत्ते और फ्रीडम फाइटर का दर्जा नहीं मांगा। आइए जश्न-ए-आजादी पर सब मिलकर हवलदार हरनाम सिंह को सलाम करें।

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