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आसानी से समझें, डॉलर के आगे क्यों कमजोर हो रहा है रुपया

आशीष नड्डा।। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में दुनिया की कोई भी अर्थव्यवयस्था अपने आप को किसी देश की सीमाओं तक सीमित नहीं कर सकती। राष्ट्रों के मध्य जैसे-जैसे परस्पर व्यापार बढ़ा है वैसे-वैसे एक देश की करंसी का प्रभाव दूसरे देश की करंसी की वैल्यू पर भी पड़ा है।

आजकल सुर्खियां यही चली हैं कि अमेरिकन डालर के आगे रुपया इतिहास के निम्नतम स्तर पर चला गया है और दिन प्रतिदिन अपने ही रिकॉर्ड ध्वस्त कर रहा है।

ऐसा होने का कोई एक कारण नहीं है बल्कि बहुत सारे कारण हैं। उनके बारे में चर्चा करने से पहले यह जानना जरूरी है कि आखिर दुनिया के इतने देश हैं, फिर सबकी करंसी की तुलना अमेरिकन डॉलर से ही क्यों होती है?

डॉलर से तुलना क्यों
वर्ल्ड वॉर 1 तक यूरोपियन देशों की करंसी भी खासी वैल्यू रखती थी परन्तु इस युद्ध के बाद यूरोप में दहशत का माहौल बना रहा। यूरोप में कारोबार करने वाले बहुत से इन्वेस्टर और व्यापारी अमरीका की ओर रुख कर लिया क्योंकि यूरोप के मुकाबले अमरीका में स्थिति बेहतर थी और राजनीतिक असंतुलन भी नहीं था। अमरीका ने भी मौके को भुनाया और इन्वेस्टर्स को अपने यहाँ आकर्षित करने के लिए बहुत सारे लाभ ऑफर किए।

वर्ल्ड वॉर 2 ने यूरोप की स्थिति और खस्ता की। नतीजा यह हुआ बहुत से बैंक अपना गोल्ड रिजर्व लेकर अमेरिका चले गए। यह रिजर्व इतना था कि दुनिया का 70% गोल्ड रिजर्व अमरीका के पास चला गया। 1940 से 1960 तक अमरीका के पास लगभग 20 हजार टन गोल्ड रिजर्व था।

इसका मतलब यह हुआ की अमरीकी डॉलर वो करंसी बन गया जिसके पीछे गोल्ड की ताकत थी। 1944 में ‘ब्रेटन वुड्स अग्रीमेंट’ हुआ जिसमें विभिन्न देशों ने हिस्सा लिया। अमेरिका 44 देशों को अपने पाले में यह कहकर लाने में कामयाब रहा कि अमरीकी डॉलर को गोल्ड में बदला या आंका जा सकता है क्योंक उसके पास दुनिया का 70 % सोना है।

अमेरिका की बात उस समय उन देशों को इसलिए तार्किक लगी क्योंकि उसके पास गोल्ड का बड़ा जखीरा रखता था। वह सैन्य रूप में भी सबसे मजबूत था और हर देश में उसके समर्थक लॉबिस्ट मौजूद थे। इसलिए दुनिया के अधिकाँश देशों ने अमरीकन डॉलर को ही वैश्विक करंसी मानने और बनाने में हामी भरी। हालाँकि ब्रिटेन ने इसका विरोध भी किया परन्तु आंकड़ों और तत्कालीन स्थिति के आगे यह विरोध टिक नहीं पाया।

इसी आधार पर फिर इंटरनैशनल मॉनीटेरी फंड (IMF) की स्थापना हुई और बाद में वर्ल्ड बैंक का जन्म हुआ। इस तरह दुनिया के देशों ने आपस में व्यापार के लिए वैश्विक मुद्रा बन चुके अमेरिकन डॉलर का इस्तेमाल करना शुरू किया जो अब तक जारी है।

रुपया क्यों कमजोर हुआ?
वर्तमान दौर की बात करें तो जनवरी से अगस्त तक रुपये की वैल्यू डॉलर के मुकाबले 8% रेट से कम हो रही है। ब्रिक्स देशों में रशियन मुद्रा रूबल के बाद रुपया वो करंसी है जिसकी वैल्यू डॉलर के मुकाबले सबसे ज्यादा गिर रही है। अभी यह 70 रुपए के आसपास है। यह स्थिति कारणों से बनी है इस पर बात करते हैं-

1. कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी
भारत अपने प्रयोग का मात्र 20% तेल की खुद उत्पादित कर पाता है और बाकी उसे खाड़ी देशों से आयात करना पड़ता है। यह लेन-देन यूएस डॉलर्स में होता है। बीते महीनों में क्रूड ऑइल की कीमतों में वृद्धि हुई है जबकि पिछले साल की अपेक्षा भारत में क्रूड आइल की डिमांड में डबल बढ़ोतरी हुई है।

तो एक तो डिमांड बढ़ गई है दूसरा कीमत भी बढ़ गई है। तो लेनदेन में ज्यादा डॉलर भारत के खर्च हो रहे हैं। इकनॉमिक सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार अगर क्रूड ऑइल की कीमत 10 डॉलर प्रति बैरल बढ़ती है तो भारत का जीडीपी रेट 0.2 से 0.3 प्रतिशत गिर जाता है। ज्यादा आयात मतलब भारतीय बाजार से डॉलर की ज्यादा जरूरत। इसका रुपये की कीमत पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

2. डोनाल्ड ट्रम्प का चीन-यूरोप से ट्रेड वॉर
अमेरिकन राष्ट्रपति ट्रम्प ने चीन और यूरोप के साथ ट्रेड वॉर शुरू किया है, जिस कारण उनकी मुद्रा भी डॉलर मुकाबले प्रभावित हो रही है। इसका अप्रत्यक्ष नुकसान भारत को भी उठाना पड़ रहा है क्योंकि इन देशों का भारत के साथ भी व्यापार है। भारत भारी मात्रा में चीन और यूरोप से इम्पोर्ट करता है। ये सारा इम्पोर्ट डॉलर में होता है। अब अपनी मुद्रा को डॉलर के मुकाबले स्थिर रखने के लिए चीन और यूरोपीय देशों ने अपने यहां से एक्सपोर्ट होने वाली वस्तुओं के रेट बढ़ा दिए हैं। तो मतलब भारत को अब यहां भी इम्पोर्ट करने में ज्यादा डॉलर खर्च करने पड़ रहे हैं।

3. आयात और निर्यात में भारी गैप
भारत इम्पोर्ट ज्यादा करता है और एक्सपोर्ट कम। ऐसे में डॉलर देने ज्यादा पड़ते हैं आते कम हैं। इसका भी रुपये पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है।

4. निवेशकों का देश से कूच करना
जब कोई निवेशक किसी दूसरे देश में अच्छी सम्भावना देखते हैं तो जिस देश में उन्होंने इन्वेस्टमेंट की होती है उसमें से अपना हिस्सा बेचकर अच्छी सम्भावना वाले देश की तरफ कूच करते हैं। पर हिस्सेदारी जब बेची जाती है तो डॉलर में बेची जाती है। इस कारण डॉलर की डिमांड बढ़ती है और उसकी वैल्यू भी बढ़ जाती है। भारत की बात करें तो पिछले 6 महीनों में फॉरन इन्वेस्टर्स अपनी लगभग 48,000 करोड़ की इन्वेस्टमेंट भारतीय बाज़ार से निकाल चुके हैं।

5. राजनीतिक अनिश्चितता
भारत में यह देखा जाता है की सरकारें सत्ता बदलने पर पिछली सरकार की पॉलिसी में कई तरह के परिवर्तन कर देती हैं। देश में अभी आने वाले वर्ष में चुनाव है, इसलिए फॉरेन निवेशक अभी इन्वेस्टमेंट करने डर रहे हैं कि कहीं हम वर्तमान सरकार की पॉलिसी के आधार पर इन्वेस्टमेंट कर दे तो ऐसा न हो की अगली बार किसी और पार्टी की सरकार आए तो वो पॉलिसी में चेंज करदे और हमारा पैसा फंस जाए। या न भी फंसे तो भी निवेशक अभी से अपने नफा-नुकसान का आकलन नहीं कर पा रहे। जब फॉरन इन्वेस्टमेंट नहीं आ रहा तो डॉलर कहाँ से आएगा? डॉलर जब भण्डार में आ नहीं रहा और सिर्फ जा रहा है तो रुपया तो कमजोर होगा ही।

(लेखक परिचय: डॉ. आशीष नड्डा हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर के रहने वाले हैं, वर्तमान में वर्ल्ड बैंक में सोलर एनर्जी कंसल्टेंट हैं।)

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