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हिमाचल में रजवाड़ाशाही और अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ पहाड़ी बलिदान

राजेश वर्मा।। 15 अगस्त यानि स्वतंत्रता दिवस देश भर में मनाने का श्रेय उन वीर स्वतंत्रता सेनानियों को जाता है जिन्होंने अंग्रेज़ों के अत्याचारों से मुक्ति दिला कर देश को आजाद करवाया। इस दिन देश में हर जगह लहराता तिरंगा झंडा हमें भारत का स्वतंत्र नागरिक होने का अहसास कराता है। हिमाचल प्रदेश के स्वतंत्रता सेनानियों का भी इस संघर्ष में अतुलनीय योगदान रहा है। यहां के लोगों ने स्वतंत्रता के लिए ही आंदोलन नहीं किया बल्कि रजवाड़ाशाही व अंग्रेज़ी हुकूमत की गुलामी की जंजीरों से भी प्रदेश को मुक्त करवाना यहां के लोगों की प्राथमिकता रही। यहां के कई राजाओं ने अंग्रेजों के लिए मुखबिरी तक की, 1845 में जब सिखों ने सतलुज पार कर ब्रिटिश राज्य पर आक्रमण किया तो वहां के राजाओं ने इस अवसर को अंग्रेजों के साथ अच्छे रिश्ते बनाने के लिए अंग्रेज़ों का साथ दे दिया।

पहाड़ी लोगों ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया बल्कि सामाजिक व राजनीतिक सुधारों के लिए स्थानीय शासकों के खिलाफ भी आवाज़ बुलंद की। प्रजामंडल द्वारा ब्रिटिश शासन का विरोध भी इसी का उदाहरण था। 1914-15 के दौरान मंडी में जो षडयंत्र हुआ था वह भी गदर पार्टी के प्रभाव में हुआ। सुकेत और मंडी रियासतों में क्रांतिकारियों द्वारा छिपकर सभाएं की गई जिसमें निर्णय लिया गया की अंग्रेज अधिकारीयों के साथ-साथ राजा के वजीर व खासमखास दरबारियों की हत्या कर उनके खजाने को लूटा लिया जाए व विभिन्न पुलों को उड़ा देना भी इनकी योजनाओं में से एक था लेकिन योजनाएं सिरे चढ़ पाती उससे पहले ही अपनों की गद्दारी के चलते उन क्रान्तिकारियों को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया।

भारत छोड़ो आंदोलन से प्रभावित होकर एक आंदोलन सिरमौर रियासत में भी हुआ। जिसे पझौता आंदोलन के नाम से जाना जाता है, सिरमौर में बझेतू खड्ड के किनारों पर बसे पझौता क्षेत्र में सबसे पहले राजा के खिलाफ विरोध की चिंगारी उठी थी। इसी पझौता आंदोलन के महानायक वैद्य सूरत सिंह थे। पझौता आंदोलन भी भारत छोड़ो आंदोलन का एक हिस्सा रहा है, अंग्रेजी हुकूमत ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए अपनी फौज को राजगढ़ भेजा जहां फौज ने सरोट नामक स्थान पर निहत्थे लोगों पर गोलियों की बरसात कर दी । इस नरसंहार की दोषी अकेले अंग्रेजी हुकूमत ही नहीं थी बल्कि स्थानीय राजाओं ने भी लोगों पर अत्याचार की सीमाएं लांघ दी। राजा के सैनिकों ने कली राम शावगी और वैद्य सूरत सिंह के मकानों को भी डाइनामइट से उड़ा दिया। बहुत से स्वतंत्रता सेनानी इस दौरान शहीद हुए व काफी संख्या में घायल भी हुए। वैद्य सूरत राम तो आजादी के बाद रिहा हुए। स्वतंत्रता संग्राम के इस संघर्ष में प्रदेश के लोग एक तरफ ब्रिटिश हुकूमत से तंग थे तो वहीं उन्हें अपनी-अपनी रियासतों के शासकों के अत्याचारों से भी तंग आ चुके थे।

आजादी के इस संघर्ष में शिमला के धामी गोली काण्ड को कोई नहीं भुला पाया है। बेगार प्रथा को बंद करने तथा करों को खत्म करने के लिए 1938 में धामी प्रजामंडल की स्थापना की गई। यहां के शासक राणा के समक्ष अपनी मांगे को पूरा करवाने के लिए बहुत से लोग मैदान में एकत्रित हुए। भागमल सौठा के नेतृत्व में 1939 में डेढ़ हजार के लगभग लोगों की भीड़ ने राणा के महलों की तरफ कूच किया। घनाहट्टी के नजदीक ही 16 जुलाई 1939 को भागमल सौठा को ग्रिफ्तार कर लिया गया। इससे उग्र हुई भीड़ राणा की तरफ़ चल पड़ी पुलिस द्वारा लाठीचार्ज चलता रहा परंतु क्रांतिकारी कहां रुकने वाले थे, राणा ने गोली चलाने का आदेश दे दिया जिससे दो व्यक्तियों उमा चन्द व दुर्गा दास को शहादत देनी पड़ी, सैंकड़ों लोग घायल हो गए। पहाड़ी राज्य में इस तरह के गोलीकांड की गूंज दिल्ली तक सुनाई दी। यहीं से रजवाड़ाशाही के पतन की शुरुआत भी हो गई। अपनी बटालियन के विरोध के बावजूद व सिरमौर में नाबालिग राजा होने के चलते अन्य सहयोगी प्रशासकों ने अंग्रेजों से हाथ मिला लिया। बिलासपुर सहित कुछ अन्य शासकों ने भी अंग्रेजों का ही साथ दिया।

मंडी में राजा विजय सेन के नाबालिग होने के चलते व सुकेत रियासत में गृहयुद्ध के कारण क्रांतिकारियों को वह सहयोग नहीं मिल पाया जो मिलना चाहिए था हालांकि यहां के लोगों में देशभक्ति की भावना चरम सीमा पर थी। अपनी प्रजा व सैनिकों के विरोध के बावजूद चंबा के राजा श्री सिंह अंग्रेजों से वफादारी निभाने लगे रहे। श्री सिंह ने 1857 की क्रांति के समय राज्य में सुरक्षा के बंदोबस्त चाक चौबंद कर दिए। इसी राजा ने डलहौजी व अन्य स्थानों में बसे अंग्रेज़ों को सुरक्षा मुहैया करवाई। जो स्वतंत्रता सेनानी पकड़े गए उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। यहां स्वतंत्रता के लिए यह क्रांति इस लिए भी मंद पड़ गई क्योंकि बहुत से देशी रियासत के शासकों के साथ-साथ महाराजा पटियाला ने भी अंग्रेजों का ही साथ दिया। हमारी रियासतों के राजाओं व शासकों ने क्रांतिकारियों का साथ देने की बजाए अंग्रेजों से वफ़ादारी इसलिए निभाई ताकि उनका राज पाट चलता रहे। जब इन राजाओं को प्रदेश में स्वतंत्रता संग्राम कर रहे महानायकों का साथ देना चाहिए था तो उस समय इन्होनें अंग्रेजों का साथ देकर अपने ही लोगों से धोखा किया और यह धोखा उस प्रजा से था जिसके दम पर इनका साम्राज्य टिका हुआ था।

कुछेक राजा ऐसे भी थे जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ़ स्वतंत्रता सेनानियों का न केवल जमकर साथ ही दिया बल्कि खुद भी आगे बढ़ कर कंपनी से लोहा लिया। ऐसा ही काम बुशहर के राजा शमशेर सिंह ने किया उन्होंने कंपनी को नजराने के तौर पर व अन्य तरह की दी जाने वाली सहायता को बंद कर दिया तथा क्रांतिकारियों का खुलकर सहयोग किया। सुजानपुर टीहरा के राजा प्रताप चंद ने तो क्रांति की तैयारी अपने ही किले में कर दी थी, दुर्भाग्य कहें या अपने ही लोगों द्वारा धोखा इस क्रांति की भनक जैसे ही अंग्रेजों को लगी उन्होंने राजा को इनके ही महल में ही नजरबंद कर दिया।

अंग्रेजों के खिलाफ कुल्लू के युवराज प्रताप सिंह का योगदान भी अतुलनीय रहा है, अंग्रेजों के खिलाफ उन्होंने खुलकर विद्रोह किया लेकिन अपने कुछ साथियों के पकड़े जाने के बाद उन्हें भी गिरफ्तार कर लिए गया और बाद में उनको अपने ही साथी बीर सिंह के साथ फांसी दे दी गई। इस घटना ने तो यहां की प्रजा में ऐसा असंतोष भरा दिया परिणामस्वरूप जगह-जगह पर विद्रोह होने लग पड़ा बहुत से लोगों को इसके लिए शहादत तक देनी पड़ी। अत्याचारों से तंग आकर आजादी को सर्वोपरि मानते हुए अन्य क्षेत्रों जिनमें जसवां, गुलेर, हरिपुर, नौदान, नूरपुर, पठानकोट सहित के लोग भी कंपनी के खिलाफ हो चुके थे। आखिर लंबे संघर्ष व बलिदान के बाद आज देश जिस स्वतंत्रता व लोकतंत्र का आनंद भोग रहा है उसके लिए हम ऋणी हैं उन क्रांतिवीरों व महानायकों के जिनकी वजह से न केवल देश आज़ाद हुआ बल्कि हिमाचल प्रदेश को भी रजवाड़ाशाही से मुक्ति मिली।

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