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हिमाचल का अपना एक भी 24×7 टीवी चैनल क्यों नहीं है?

डॉ. राकेश शर्मा।। यह एक बड़ी चिंता का विषय है कि क्यों कोई उद्यमी हिमाचल में एक ऐसा पूर्णकालिक टीवी चैनल नहीं चला पा रहा जो इस पहाड़ी प्रदेश की समाचार और कला एवं संस्कृति की प्यास बुझा सके। दूरदर्शन शिमला के सन्दर्भ में प्रयास हालाँकि विगत वर्षों में केंद्र सरकार में हिमाचल के नेतृत्व ने काफी आगे बढ़ाए हैं परन्तु अभी भी ये अपर्याप्त हैं। यह लोगों की पहुंच से दूर हैं क्योंकि अधिकांश डीटीएच प्लेटफार्म ने इसे शामिल नहीं किया और न ही लोगों ने इसकी मांग उठाई क्योंकि अभी इसमें कला एवं संस्कृति के लिए बेहद कम अवधि/सामग्री है और यह दिनभर राष्ट्रीय समाचार चैनल के ही स्वरूप में ही है। ऐसा भी नहीं है कि लोगों की अपने न्यूज़ चैनल प्रति मांग नहीं क्योंकि समाचार के लिए सोशल मीडिया के ज़रिये कानों को खरोंचती आवाज़ें, हास परिहास को अंजाम देती मुख-मुद्राएं, और मनघडंत गप्पें जनता को जैसे तैसे बांधे हुए हैं। हालाँकि सभी को यह भी याद दिलवाती है कि क्यों नामी टीवी चैनल समाचार वाचक की आवाज़, उच्चारण और सूरत को चयन का पैमाना बनाते हैं।

हिमाचल भारत का एक ऐसा प्रदेश है जहाँ आज भी 90% जनता गाँव में बसती है। अधिकाँश गाँव दुर्गम पहाड़ियों के बीचो-बीच हैं जहाँ आकाशवाणी के सिग्नल तक पहुंचाना मुश्किल हैं, फ़ोन व इंटरनेट तो और भी कठिन। उधर अख़बारों के पाठक तो शहरों कस्बों में भी कम होने लगे हैं। ऐसे में दशकों से लोग आकाशवाणी पर शाम सात बजकर पचास मिनट के प्रादेशिक समाचार भी जैसे तैसे शॉर्ट वेव, मीडियम वेव के ज़रिए आज तक सुनते आए हैं। हालाँकि कुछ जगह तक स्मार्ट फ़ोन व इंटरनेट डेटा भी पहुँच चुका है परन्तु प्रामाणिक प्रादेशिक खबरों के लिए आज भी आकाशवाणी पर ही अधिक निर्भरता है। सैटेलाइट टी वी की भी पहुँच बढ़ी है परन्तु उनमें हिमाचल के अपने समाचार एवं कला-संस्कृति प्रदर्शन का बड़ा अभाव है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि केरल, उत्तराखंड, सिक्किम जैसे छोटे प्रदेश भी जब अपने पांच सात चैनल चला सकते हैं तो हिमाचल अपना एक सम्पूर्ण चैनल क्यों नहीं चला पा रहा।

जहाँ यह एक ओर प्रदेश की उद्यमशीलता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है वहीं यह प्रदेश के सर्वाधिक शिक्षित कहलाने वाले जनमानस को भी कटघरे में खड़ा करता है जो ऐसे उद्यमों के लिए सही मांग पेश ही नहीं कर पा रहा। यह कारण विज्ञापनों का अभाव इन उद्यमों को आर्थिक तौर पर अव्यवहार्य बनाता है। हालांकि चुनाव के आस पास कुछ बाहरी राज्यों के टी वी उद्यम/चैनल हमें कभी पंजाब हरयाणा के साथ जोड़ देते हैं तो कभी जम्मू लद्दाख के साथ । दूसरी ओर, ‘दूरदर्शन हिमाचल’/ ‘दूरदर्शन शिमला’ का सफ़र विगत वर्षों में डिजिटल प्लेटफॉर्म तक पहुँचा तो ज़रूर है परन्तु सभी प्लेटफॉर्म में यह उपलब्ध न हो पाना और दिन भर एक राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल के स्वरुप में ही इसका चलना प्रदेश में लोगों को आकर्षित नहीं कर पा रहा। हालांकि, प्रदेश की विविध कला एवं संस्कृति बारे इसमें कार्यक्रम अगर बढ़ें तो लोग आकाशवाणी की भांति इससे जुड़ना चाहेंगे वर्ना चलता फ़िरता गपोड़ी शंख सोशल मीडिया ही लोगों को भटकाते/भड़काते हुए आगे बढ़ेगा जो समाज में औसत एवं मनमाफ़िक नैरेटिव सैट करने में भी सक्षम है क्योंकि अधिकांश जन-मानस सही गलत आकलन करने में असमर्थ है। इसके परिणाम, प्रदेश के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक माहौल के लिए दीर्घकाल में बहुत बुरे साबित हो सकते हैं। ऐसे विषय बारे प्रदेश के संजीदा जन-नुमांयदों, नीति निर्धारकों, लेखकों/पत्रकारों एवं समस्त बुद्धिजीवी वर्ग को समाज में सजगता की लौ जलानी चाहिए।

दुर्गम पहाड़ी प्रदेश में उद्यमियों और निवेशकों को विशेष सम्मान के साथ देखना होगा क्योंकि उनका यहाँ टिक पाना कई मायनों में कठिन होता है। एक या दो पूर्णकालीन चैनल चलाने में कोई उद्यम अगर सामने आए तो साक्षर प्रदेश के सभी लोगों का मौलिक कर्तव्य बनता है कि ऐसे उद्यम को सहारा दें और उसे फलने फूलने में मदद करें। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कम जनसंख्या घनत्व एवं अधिक लागत से उद्यम को पहाड़ में जीवित रख पाना बेहद कठिन होता है। इस दिशा में प्रदेश के सभी जिलों के लोगों को एक समरूप हिमाचलीयत में गर्व महसूस करना होगा जो प्रदेश के चहुंमुखी विकास के लिए एक बड़ा मनोवैज्ञानिक कारक सिद्ध होगा।

प्रदेश के नेतृव को भी अपने हिस्से के ईमानदार प्रयत्न करने चाहिए कि ताकि दूरदर्शन का अपना पूर्णकालिक चैनल अच्छे से विकसित हो पाए, जनता को जोड़ पाए। फिर यह स्वतः ही मनोरंजन के साथ साथ प्रदेश में सही दिशा की अनेकों जानकारियों/ कार्यक्रमों को जनता तक पहुंचा पाएगा। ऐसे में दूरदर्शन, सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग और भाषा एवं संस्कृति विभाग के अनेकों महत्वपूर्ण लक्ष्यों/कार्यों की पूर्ति भी करेगा। इस दिशा में अगर प्रदेश सरकार सांस्कृतिक सामग्री मुहैया करवाए या फ़िर वित्तीय/कमर्शियल हिस्से में भागीदार बन पाए तो भला हमारा ही होगा। ऐसा इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि प्रदेश के अनेकों हित साधने वाले उद्यम में हिस्सेदारी उस संकीर्ण सोच को लांघती है जो मात्र केंद्र के वित्त-पोषण के आगे सोच ही नहीं बढ़ा पाती। इसका जीवंत उदाहरण हमारे रेलवे फाटक और राजधानी के संकरे मार्ग हैं जो पूर्ण राज्यत्व के 50 वर्ष बाद ही बदले हैं जब केंद्र से वित्तीय मदद मिलने लगी।

कुल मिलाकर, इस पहाड़ी प्रदेश की जनता और उसके नुमांयदों को एक बड़े विजन के साथ प्रदेश के दीर्घकालीन व्यापक सामाजिक एवं आर्थिक विकास बारे नीतिगत सोच विकसित करनी होगी। सूचना, समीक्षा एवं लोक-संस्कृति सहेजने बारे हिमाचल का एक अपना पूर्णकालिक टी वी चैनल इस दिशा में एक आवश्यक पहल साबित होगी।

(लेखक डॉ. राकेश शर्मा हिमाचल के समसामयिक विषयों के समीक्षक हैं)

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