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समोसे में था ‘बैंडवैगन इफ़ेक्ट’ और साथ थी ‘रीसेंसी बायस’ की चटनी

Samosa (AI Generated image)

समोसे की चीरफाड़ में क्या निकला? (Meta AI से तैयार सांकेतिक तस्वीर)

आई.एस. ठाकुर।। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू से जब बीते दिन आज तक की पत्रकार ने समोसे को लेकर हुए हंगामे के बारे में पूछा तो वह असहज होकर हंसते दिखे और बोले- मैं तो समोसे खाता ही नहीं। उनके मीडिया सलाहकार भी हैरान-परेशान दिखे। उन्होंने शिमला में मीडिया से कहा- दुख की बात है मुझे इस विषय पर सफाई देनी पड़ रही है। हैरानी और हताशा के ऐसे ही भाव डीजीपी सीआईडी के चेहरे पर भी दिखे, जब वह मीडिया से मुख़ातिब हो रहे थे।

दूसरी ओर हिमाचल प्रदेश से लेकर देशभर में समोसा सोशल मीडिया से लेकर मीडिया पर छाया हुआ था। हिमाचल के लोगों ने इस मामले में तरह-तरह की चुटीली टिप्पणियां की। उन्होंने कार्टून, चुटकुले, पुराने वीडियो, मीम्स और खुद की समोसे खाते हुए फोटो और वीडियो शेयर किए। बीजेपी के कुछ नेताओं ने इस मामले को गंभीर बताते हुए सुक्खू सरकार की आलोचना की तो  नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर समेत कुछ नेता चटखारे लेते हुए समोसे खाते दिखे।

ये एक वायरल ट्रेंड बन  गया  और एक वक्त को एक्स (जो पहले ट्विटर था) पर इंडिया में दूसरे नंबर पर ट्रेंड कर रहा था। हिमाचल से बाहर भी बहुत से लोग इस ट्रेंड में शामिल तो थे, मगर उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आखिर इस मामले में हुआ क्या।

आइए, इसके कारण ढूंढने से पहले यह समझ लें कि वास्तव में मामला क्या था। सबसे पहले तो खबर आई कि हिमाचल पुलिस के सीआईडी विभाग ने जांच की है कि उनके जिस कार्यक्रम में सीएम आए थे, उस दिन एक होटल से समोसे और केक मंगवाए थे, मगर वे सीएम समेत अन्य वीआईपीज़ को परोसे नहीं जा सके। ऐसा क्यों हुआ, इसका पता लगाते हुए जब एक अधिकारी ने रिपोर्ट सौंपी तो उस पर वरिष्ठ अधिकारी ने लिखा था- कर्मचारियों की यह लापरवाही सीआईडी और सरकार विरोधी है।

दरअसल, कन्फ्यूजन के कारण वे समोसे सीएम और वीआईपीज़ के अलावा कर्मचारियों को ही खाने के लिए परोस दिए गए थे। जाहिर है, एन मौके पर  मेहमानों को चीज न परोसे जाने पर थोड़ी असहजता हुई होगी आयोजकों को। ऐसे में विभाग को अपने स्तर पर जांच करनी थी कि ऐसी लापरवाही कैसी हुई। जांच उसी की हुई मगर उसपर वरिष्ठ अधिकारी की लिखित टिप्पणी पर प्रश्न उठे कि आखिर समोसे ही तो गायब हुए थे, हो गई लापरवाही, तो इसमें सरकार विरोधी काम कैसा?

शुरुआती खबरें इसी पर थीं और इसी बीच सोशल मीडिया पर जांच वाला पेपर और उस पर अधिकारी की पेन से लिखी टिप्पणी की तस्वीरें वायरल होने लगीं। सोशल मीडिया पर यह संदेश चला गया कि ‘सीएम सुक्खू को समोसे नहीं मिले तो सीआईडी की जांच हो गई।’ जबकि ऐसी ही जांच अगर शिक्षा विभाग अपने कार्यक्रम में हुई चूक पर करता तो शायद इतना हंगामा न होता। लोगों की नजर में यहां मामला था- सीआईजी जैसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण महकमे का समोसों की जांच करना, क्योंकि अमूमन सीआईडी को संगीन मामलों की ही जांच सौंपी जाती है।

तो इस कारण लोगों में हैरानी पैदा हो गई कि क्या सीआईडी और सरकार के पास इतनी फुरसत है कि वह बाकी काम छोड़ यह जांच कर रही है सीएम को समोसे क्यों नहीं मिल पाए। यहीं से मामला उठा और फिर नैशनल मीडिया में छा गया।  सरकार हड़बड़ा गई। हर कोई सफाई देने लगा और यहां तक कि डीजीपी सीआईडी तक को मीडिया के सामने ला दिया गया, जो कि एक गैरजरूरी कदम था। इतने में ‘समोसे की सीआईडी जांच’, ‘सीएम के समोसे किसने खाए’, ‘सीएम सुक्खू के समोसों की सीआईडी जांच’.. ऐसी पंक्तियां सोशल मीडिया पर वायरल होने लगीं।

अनुप्रास अलंकार
आप ध्यान देंगे कि कुछ समाचार चैनलों ने भी ऊपर लिखी पंक्तियों को इस्तेमाल किया था। इनमें अनुप्रास अलंकार था। जब एक ही ध्वनि से शुरू होने वाले दो या दो से ज़्यादा शब्दों का बार-बार इस्तेमाल किया जाता है तो उसे अनुप्रास अलंकार कहा जाता है। इसमें वह ध्वनि है – स। तो इस तरह के अनुप्रास वाले वाक्य ज़हन और ज़बान, दोनों में आसानी से चढ़ जाते हैं।

Collective Resonance
लेकिन इतना ही नहीं, इसी के साथ कुछ और मनोवैज्ञानिक घटनाक्रम भी साथ जुड़ते गए। ये सभी घटनाक्रम करीब-करीब एक जैसे हैं और इनका संबंध इस बात से है कि कुछ घटनाओं पर बहुत सारे लोगों की प्रतिक्रिया क्या रहती है। जैसे कि Collective Resonance. कलेक्टिव रेज़ोनेंस उसे कहा जाता है, जब लोग किसी ऐसी घटना या नैरेटिव से जुड़ाव महसूस करते हैं, जैसी घटनाएं पहले भी हो चुकी हों।  उन्हें वो जानी-पहचानी लगती है और उससे जुुड़ने पर उन्हें संतोष महसूस होता है। फिर वो घटना के हिसाब से हंसने, ट्रोलिंग करने या फिर आलोचना करने लगते हैं।  इसमें बहुत मजा आता है।

Bandwagon Effect
इसी तरह जब बहुत से लोग ऐसे मामलों में देखादेखी में कूद पड़ते हैं, जिसका पिछली घटना से संबंध हो या नहीं, तो उसे Bandwagon Effect यानी बैंडवैगन इफ़ेक्ट  कहा जाता है। जैसा दूसरे कर रहे होते हैं, बाकी भी वैसा करने लगते हैं। ये ऐसा सामूहिक व्यवहार होता है जिसमें लोग अपने कमेंट्स या मीम्स आदि की बाढ़ ले आते हैं। ऐसा ही तो समोसे के मामले में हुआ।

Recency Bias
और कई बार इसी से जुड़ी होती है-  रीसेंसी बायस (Recency Bias) जिसे Collective Memory  (कलेक्टिव मेमरी) भी कहा जाता है। इसमें लोगों के जहन में सरकार आदि को लेकर जो नाराजगी होती है, वो उनके जहन में बनी रहती है। फिर कोई ताजा घटना हो जाए, भले ही उसका संबंध सरकार से न हो, लोगों को पुरानी फ्रस्ट्रेशन याद आती है और फिर  वो एकसाथ गुबार के रूप में बाहर निकलती है।

इन सभी कारणों को मिला दें, तो समझ आता है कि क्यों लोग इस तरह से आलोचना करने लगते हैं या फिर ट्रोल या मज़े लेने लगते हैं। तो इस बार हिमाचल में कांग्रेस सरकार के साथ यही हुआ। भले ही सरकार का और सीएम का सीआईडी के वायरल जांच पत्र मामले में सीधा कोई संबंध नहीं था, मगर सरकार को ही लोगों का गुस्सा और निशाना झेलना पड़ा। मगर इसका कारण यह नहीं है कि यह पूरा हंगामा अकारण था। सरकार को समझना होगा कि समोसे में बैंडवैगन इफ़ेक्ट और रीसेंसी बायस आए कहां से।

लोगों की नाराजगी को समझे सरकार
ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि सरकार को भले ही अहसास न हो, वह लोगों की नाराजगी के केंद्र में रही है और उसके फैसले जनता के बड़े वर्ग को रास नहीं आ रहे हैं। विभिन्न मीडिया चैनल्स के सोशल मीडिया हैंडल्स पर सरकार से जुड़ी खबरों या नेताओं के बयानों पर आ रहे कमेंट्स से इसका पता चलता है कि लोगों में कई बातों को लेकर फ्रस्ट्रेशन है। जैसे कि सरकार ने खुद ही दी गई गारंटियों को अब तक पूरा नहीं किया है। और लोग इस बात से और चिढ़े होते हैं कि मुख्यमंत्री जगह-जगह जाकर दावा कर रहे हैं कि उन्होंने गारंटियां पूरी कर दी हैं।  जबकि हकीकत में वो पूरी तरह से पूरी नहीं हुई हैं। ओपीएस को छोड़ दें तो बाकियों का या तो स्वरूप बदल दिया गया है या फिर उन्हें लागू करने की शुरुआत भर हुई है।

ऊपर से लोगों के मन में गुस्सा इस बात से और बढ़ता है कि वादों को पूरा करने के बजाय मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और कांग्रेस के नेता ये दावे करते हैं कि गारंटियों को पूरा किया जा रहा है। जैसे कि आज ही में सीएम ने महाराष्ट्र में 1500 रुपये देने को लेकर कहा। चुनाव से पहले नेता कहते थे हर महिला को मिलेंगे, लेकिन अब इसमें शर्तें डाल दी गई हैं और उसमें भी कहां किसे मिले, इसे लेकर पारदर्शिता नहीं है।

जल्दबाजी में दिए गए बयान भी अविश्वास पैदा करते हैं। जैसे कि मुख्यमंत्री ने एक बार एलान कर दिया था कि एक महीने में सभी पेंडिंग परिणाम निकाल देंगे। ऐसा हुआ नहीं तो युवाओं में और हताशा बढ़ी। खुद उम्मीद जगाकर तोड़ने से ऐसा होना स्वाभाविक है। इसी तरह बीते साल मंत्री हर्षवर्धन ने कहा था कि अस्थायी टीचर रखे जाएंगे। हंगामा हुआ तो सीएम ने कहा कि नहीं, ऐसा नहीं होगा, ये अफवाह है। लेकिन वीडियो तो उपलब्ध थे। और अब फिर अस्थायी टीचर रखे जा रहे हैं। तो जनता सब देखती है और नाराज होती है।

युवाओं में नौकरियों को लेकर गुस्सा है। कहां तो चुनाव से पहले दावा और गारंटी थी एक लाख सरकारी नौकरियां देंगे। वादा था कि आउटसोर्स पर नौकरियां और अस्थायी नौकरियां बंद होंगी, मगर वही दी जा रही हैं। पक्की नौकरियां कम निकल रही हैं। फिर एक मंत्री के परिवार के सदस्य की नौकरी लगी तो नाराज़गी बढ़ गई। भले ही वह नौकरी काबिलियत से लगी हो, लेकिन रीसेंसी बायस ने लोगों के जहन में गुस्सा भरा हुआ है।

इसी तरह लोगों में इस बात को लेकर भी गुस्सा है कि एक ओर तो मुख्यमंत्री समेत कांग्रेस नेता हमेशा कर्मचारियों के स्वाभिमान और उनके बुढ़ापे की बात करते हुए ओपीएस देने का बखान करते हैं, जबकि बाकी वर्गों को भूल जाते हैं।  हिमकेयर का दायरा सीमित होने, सहारा योजना की पेमेंट न मिलने आदि को समाज कल्याण की योजनाओं पर कैंची चलने के तौर पर देखा जा रहा है। इनकी क्षतिपूर्ति सुखाश्रय योजना जैसी अच्छी पहलों से भी नहीं की जा सकती।

रही कसर तब पूरी हो जाती है, जब बीच-बीच में अधिकारी ऐसी नोटिफिकेशन्स निकालते हैं, जिनसे भ्रम पैदा होता है। भले ही वे विभागीय तौर पर एकदम सही हों, लेकिन जब उनका सीमित हिस्सा मीडिया में आता है तो हंगामा होता है। जैसा हाल ही में एचआरटीसी में मालभाड़े को लेकर हुआ था। टॉयलेट टैक्स वाला घटनाक्रम इसी की देन था। इसके अलावा भी असंख्य घटनाक्रम हैं, जो धीरे-धीरे गुबार जमा करते रहते हैं। समोसे वाले घटनाक्रम में भी यही हुआ है।

मीडिया मैनेजमेंट मतलब मीडियाकर्मियों को मैनेज करना नहीं
मीडिया में सरकार को लेकर प्रश्न उठें तो उसके लिए मीडिया को ही कोसने से या उनपर कार्रवाई करने से समस्या हल नहीं होती।  हिमाचल प्रदेश सरकार के सबसे बड़े वकील, एडवोकेट जनरल अनूप रत्तन अपने फेसबुक अकाउंट पर मीडिया को ‘समोसा मीडिया’ के नाम से संबोधित करते हुए लिखते हैं- मीडिया मैनेजमेंट का भ्रष्टाचार नहीं करेंगे।  मगर आपसे कौन कह रहे है कि मीडिया मैनेजमेंट का भ्रष्टाचार करिए?

मीडिया मैनेजमेंट का अर्थ मीडियाकर्मियों को मैनेज करना नहीं होता। बल्कि अपने आप को मैनेज करना होता है कि मीडिया तक क्या छवि, क्या बात, क्या संदेश पहुंचना है। यानी सरकार को अपना आचरण, अपने बयान, अपनी शैली सुधारनी है। वह मैनेज हो जाएगी तो मीडिया तक वही पहुंचेगा। मीडिया का काम कुछ का कुछ करना नहीं, बल्कि जो आप पेश कर रहे हैं, उसे आगे ले जाना है। इसीलिए वह मीडिया कहलाता है। साथ ही, सरकार को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने सोशल मीडिया हैंडल्स पर जो कुछ पोस्ट करती है, उसमें सावधानी बरते। अक्सर नेताओं के सोशल मीडिया पर उनके बयानों और फैसलों के वही  हिस्से पोस्ट होते हैं, जिनसे जनता चिढ़ चुकी है  या जो हकीकत से मेल नहीं खाते।

दोहराव नहीं, पारदर्शिता जरूरी
मुख्यमंत्री और मंत्रियों ने सरकार बनने से लेकर अब तक, जितनी भी बातें कही हैं, उनमें से अस्सी फीसदी बातों में दोहराव है। इन हिमाचल पर ही सरकार बनने के चंद समय बाद एक लेख प्रकाशित था, जिसमें कहा गया था कि व्यवस्था परिवर्तन नारे का दोहराव लोगों को उबाऊ लग सकता है। हुआ भी यही। हर रोज, तकरीबन हर मंच में या मीडिया के सामने आते ही मुख्यमंत्री डिफ़ेंसिव मोड में नजर आते हैं। मंत्रियों के बजाय मीडिया को ज्यादातर सामना उन्हीं को करना पड़ता है। और फिर आखिर में वह कहते हैं- ये सब हम व्यवस्था परिवर्तन के लिए कर रहे हैं। आम जनता की मजबूरी नहीं है कि वे रोज ही एक ही तरह की बात सुने।

इससे हुआ यह है कि जब कभी मुख्यमंत्री का वीडियो टाइमलाइन पर आता है तो उससे यह जिज्ञासा नहीं पैदा होती कि वह कुछ नया कह रहे होंगे। लगता है कि या तो वह किसी बात का गोल-मोल जवाब दे रहे होंगे या फिर किसी मामले की सफाई दे रहे होंगे। इस छवि को बदलना है तो बदलाव खुद में लाना होगा।  सलाहकार रखने भर से कुछ नहीं होता, बल्कि जिम्मेदार सलाहकारों की बात माननी भी होती है।

आख़िर में, सुख की सरकार (अनुप्रास अलंकार) को यही सुझाव है कि वह वाकई सुख की सरकार (उपमा अलंकार के लिहाज से) बनना चाहती है, अगर उसे समोसे जैसे प्रकरणों से बचना है तो उसे अभी से गंभीर होना होगा। सरकार और नेताओं की कथनी-करनी में फर्क नहीं होना चाहिए। जो गलत है, कमी है, उसे स्वीकार कीजिए। कड़े फैसले लेने हैं तो लीजिए, मगर उन्हें किसी और तर्क का आवरण लेकर मत ढकिए।  जनता के साथ पारदर्शिता का रिश्ता रखिए। सीधे संवाद का अर्थ गांव में रुककर चले आना नहीं है। बल्कि दूर से भी कही गई बात सीधी और सादगी भरी हो, यह जरूरी है।  कार्यकाल को तीन साल बचे हैं। प्रदेश के व्यवस्था परिवर्तन से पहले यह जरूरी है कि सरकार अपनी दो साल से बनी व्यवस्था में परिवर्तन लाए।

ये लेखक के निजी विचार हैं

(लेखक लंबे समय से हिमाचल प्रदेश से जुड़े विषयों पर लिख रहे हैं। )

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