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जनमंच में गुस्सा दिखाकर, डांट-डपटकर प्रपंच क्यों कर रहे मंत्री

आई.एस.ठाकुर।। जब हिमाचल प्रदेश में जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री बने थे और उन्होंने पूरे प्रदेश में लोगों की समस्याएं सुलझाने के लिए जनमंच कार्यक्रम का ऐलान किया था, तब ये एक अच्छी पहल लगी थी। जाहिर है, सरकार नई-नई बनी थी और उसे दिखाना था कि पिछली सरकार के समय जो ढिलाई बरती गई थी, उसके कारण सुस्त पड़े सिस्टम में हरकत पैदा करने के लिए नई सरकार प्रतिबद्ध है। मगर अब ये जनमंच दिखाते हैं कि नई सरकार के समय भी सिस्टम वैसा ही ढीला है, जैसा पिछली सरकार के समय था।

जनमंच कार्यक्रम पहली नजर में तो अच्छा कार्यक्रम लगता है मगर इसके साथ कुछ दिक्कतें हैं। पहली बात तो ये कि जनमंच कार्यक्रमों में मंत्रियों का दरबार लगाकर बैठना अजीब है। वे मंच से फरियादियों की समस्याओं को सुनते हैं, अफसरों को इन समस्याओं को दूर करने का आदेश देते हैं और फिर चले जाते हैं। प्रश्न ये है कि क्या उनसे सुनाए गए फरमानों के बाद वाकई लोगों की समस्याएं सुलझती हैं?

दूसरी समस्या इस आयोजन से तरीके से है। ये एक तरह का मेला है। सारे अधिकारी बुलाए जाते हैं, फॉरमैलिटी में शिविर लगाए जाते हैं जहां पर उनकी चलती है, जिनकी पहुंच होती है। कई बार इस मौके का फायदा उठाकर अयोग्य लोग भी कुछ योजनाओं का लाभ उठाने में कामयाब रहते हैं। उदाहरण के लिए विकलांगता सर्टिफिकेट बनाने में कुछ ऐसे लोग भी आते हैं, जो होते ठीक हैं मगर डॉक्टरों पर विकलांगता प्रमाण पत्र बनाने का दबाव बनाते हैं या फिर विकलांगता का प्रतिशत बढ़ाकर दिखाने के लिए कहते हैं। डॉक्टर बेचारे करें तो क्या?

फिर इस पूरे आयोजन के लिए तंबुओं, कुर्सियों, मैट, माइक, स्पीकर और गैरजरूरी धाम पर जो खर्च किया जाता है, क्या वह पहले से ही कर्ज में डूबे प्रदेश के लिए सही है? बेहतर होता इस पैसे को जनहित में इस्तेमाल किया जाता। जनमंच को जनहित मत समझिए। यह तो प्रपंच बनने की ओर अग्रसर है। जहां मंत्री आते हैं, माइक पर समस्याएं सुनते हैं, गुस्सा दिखाकर, डांट-डपटकर अधिकारियों को हड़काकर चले जाते हैं, जनता इस कलाकारी पर तालियां बजाती है और फिर धाम का लुत्फ उठाकर घर चली जाती है।

होना क्या चाहिए?
जनमंच का बंद हो जाने का मतलब होगा इसका कामयाब हो जाना। यानी कि अगर जनमंच कार्यक्रम शुरुआती कुछ महीनों तक चलने के बाद बंद हो जाते तो इसका मतलब होता कि सरकार नकारा हो चुके सिस्टम को चुस्त-दुरुस्त करने में में कामयाब रही। जनमंच में वही लोग आते हैं जिनकी सुनवाई नहीं हो रही होती। सामान्य ढंग से सरकारी महकमों से जुड़े काम करवाने में जिन्हें दिक्कत आती है। जनमंच में मॉनिटर किया जाना चाहिए था कि किस महकमे में किस तरह की शिकायतें ज्यादा आती हैं और फिर बाकायदा उस विभाग को योजना बनानी चाहिए थी कि इस तरह की समस्याओं को दूर करने के लिए क्या किया जा सकता है।

अगर सिस्टमैटिक ढंग से जनमंच कार्यक्रम को जनता की समस्याओं को समझने के कार्क्रम के तौर पर सरकार लेती और फिर उस हिसाब से ऐक्शन लेती तो सरकारी विभागों की कार्यप्रणाली भी सुधरती और अधिकारी भी लाइन पर नहीं आते। धीरे-धीरे लोगों की समस्याएं कम होतीं तो जनमंचों में भीड़ जुटना कम हो जाती। मगर जनमंच को सिर्फ एक रवायती आयोजन में बदलकर रख दिया गया। नतीजा यह रहा कि पहले जनता फ्रस्ट्रेट थी, अब मंत्री फ्रस्ट्रेट होने लगे हैं। कोई जनता के सामने हीरो बनने के लिए अधिकारियों को दुत्कारता है तो कोई मेयर को ही डपट देता है। कोई कहता है अधिकारी मेरी नहीं सुन रहे तो कोई जनता को ही समस्याओं के लिए जिम्मेदार बता देता है।

जनमंच में भीड़ जुटने का मतलब यह नहीं है कि सरकार अच्छा काम कर रही है। इसका मतलब है कि सककार नाकाम रही है सिस्टम को ठीक करने में। तभी तो लोग परेशान होकर मंत्रियों के पास आ रहे हैं। जो काम अधिकारियों के लेवल पर होने चाहिए, उनके लिए किसी को मंत्री या मुख्यमंत्री के पास क्यों जाना पड़ रहा है? मंत्रियों और मुख्यमंत्री का काम नीतियां बनाना है या पटवारी या लाइनमैन को निर्देश देना?

जनमंच निस्संदेह नए मुख्यमंत्री के पिटारे से निकली महत्वाकांक्षी और अच्छी योजना थी। मगर काम करने के बजाय चहेतों को लाभ पहुंचाने में ज्यादा इच्छुक नजर आने वाले कुछ लोगों ने इसे प्रपंच बनाकर रख दिया है। वे जनमंचों में जाते तो हैं, मगर समस्या का स्थायी हल ढूंढने नहीं, राजा-महाराजा की तरह दरबार लगाने। अभी भी समय है, अगर जनमंच में आई समस्याओं और शिकायतों को स्टडी करके देखा जाए कि कौन से महकमे में कहां दिक्कत है और वह कैसे ठीक हो सकती है, तभी ये कामयाब होंगे। वरना यूं ही जनता का पैसा फूंकने का कोई मतलब नहीं है।

(लेखक हिमाचल प्रदेश से जुड़े विषयों पर लंबे समय से लिख रहे हैं, उनसे kalamkasipahi @ gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

ये लेखक के निजी विचार हैं

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