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फ़ीस के बहाने कैसे लूट रहे हैं चैरिटी के नाम पर खुले प्राइवेट स्कूल

पंडित ओंकार।। शिक्षा को पूरी दुनिया में बेहतर और सम्मानित जीवन जीने के लिए बेहद बुनियादी और आवश्यक चीज़ समझा जाता है। इसीलिए, देश अपने यहां विकास के लिए शिक्षा पर ध्यान देना अपनी पहली प्राथमिकता मानते हैं। बचपन से ही हमें सिखाया जाता है कि स्कूल विद्या के मंदिर होते हैं। चूंकि स्कूलों का नैतिक महत्व इतना ज़्यादा है, इसलिए सरकारों का भी ज़ोर रहता है कि जो कोई स्कूल या शिक्षण संस्थान खोलना चाहता है, वह नॉट फॉर प्रॉफिट या गैर-लाभकारी (मुनाफा कमाना जिसका मकसद न हो) संस्थान के तौर पर इन्हें पंजीकृत करवाए न कि कमर्शल इंडस्ट्री के तौर पर।

भारत में अधिकतर निजी स्कूलों को सोसाइटी रजिस्ट्रेशन ऐक्ट या फिर ट्रस्ट ऐक्ट के तहत पंजीकृत किया जाता है। मगर गैर-लाभकारी संस्थान होने के बावजूद इस बात में कोई शक नहीं कि ये स्कूल पैसे छापने की मशीनें बन गई हैं जहां पर बच्चों को शिक्षा पाने के लिए भारी-भरकम फीस देनी पड़ती है। हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि इस शिक्षा में गुणवत्ता भी होती है या नहीं। वैसे यह अलग से चर्चा का विषय है।

मुनाफ़ा नहीं कमा सकते स्कूल
स्कूलों को सोसाइटी या ट्रस्ट के तौर पर पंजीकृत किए जाने के पीछे का विचार यह है कि शिक्षा को देश के लिए एक पवित्र सेवा समझा जाता है और इस काम से किसी तरह के मुनाफे की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह हर नागरिक का मौलिक अधिकार है कि वह अच्छी शिक्षा पाए और इसलिए ऐसे संस्थानों से अपेक्षा की जाती है कि वे इस काम के लिए वाजिब फीस ले। इस मौलिक अधिकार के लिए ही 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून लाया गया था।

यह सच है कि हिमाचल प्रदेश में चल रहे अधिकतर निजी स्कूलों को सरकारों की ओर से सहायता नहीं मिलती। इसलिए उन्हें स्कूल चलाने के लिए अपने स्तर पर ही फंड जुटाने होते हैं। इसीलिए शायद इन स्कूलों की फीस सरकारी स्कूलों या सरकार से मदद पाने वाले स्कूलों की तुलना में अधिक होती है।

देश में सरकारी स्कूलों की हालत देखकर भी निजी स्कूलों की तरफ़ आकर्षित हो रहे लोग (प्रतीकात्मक तस्वीर)

मगर एक सवाल ऐसा है जिसका आज तक जवाब नहीं मिल पाया। वो ये कि इन स्कूलों द्वारा बच्चों से ली जाने वाली फीस के बदले उसी अनुपात में सुविधाएं भी मुहैया करवाई जाती हैं या फिर इस पैसे को वे अपने मुनाफे के लिए निकाल लेते हैं?

हाल के सालों में सरकारी स्कूलों के प्रति सरकार की उदासीनता और उनमें शिक्षा की खराब क्वॉलिटी के कारण लोग निजी स्कूलों का रुख करने लगे हैं। उन्हें लगता है कि उनके बच्चे को अच्छे असवर मिलेंगे, अच्छी शिक्षा मिलेगी। इस कारण बहुत से लोगों और संस्थाओं ने स्कूल खोल दिए हैं। मगर दुर्भाग्य से उनका उद्देश्य सेवा करना नहीं होता बल्कि इससे मुनाफा कमाना होता है।

हिमाचल प्रदेश में लगभग 1400 निजी स्कूल हैं और उन्हें हिमाचल प्रदेश एजुकेशनल इंस्टिट्यूशंस रेग्युलेशंस ऐक्ट और राइट टु एजुकेशन ऐक्ट के तहत काम करना होता है। भले ही स्कूलों के लिए कई सारे से नियम कानून बनाए गए हैं मगर अभी तक इनकी कार्यप्रणाली की जवाबदेही तय करने का कोई सिस्टम नहीं बनाया गया है।

फ़ीस के लिए दबाव क्यों डाला जा रहा
हाल के कुछ हफ्ते आम जनता के लिए मुश्किलों भरे रहे हैं। कोविड 19 के चलते लगाए गए लॉकडाउन के कारण अधिकतर आबादी की आय प्रभावित हुई है। कुछ को सैलरी नहीं मिल रही, कुछ की कम हो गई है तो कुछ मज़दूरी नहीं कर पा रहे। इस बात के बावजूद अधिकतर स्कूल दबाव बना रहे हैं कि बच्चों के अभिभावक पूरी की पूरी फीस भरें। इस कारण पहले से परेशान लोग और दबाव में आ रहे है।

हैरानी की बाद ये है कि ये ‘कल्याणकारी’ और मुनाफा न कमाने के नाम पर खुले संस्थान, जो सरकार से टैक्स वगैरह में कई तरह की रियायतें हासिल करते हैं, एक महीने के लिए फीस नहीं टाल सकते। वो भी तब, जब उनके पास ऐसे संसाधन नहीं हैं जो इस दौरान खराब हो जाएंगे।

छात्रों से ज़्यादा फ़ीस लेकर बड़ा हिस्सा मैनेजमेंट की जेब जाए तो क्या फ़ायदा?

निजी स्कूलों का फीस लेने को लेकर जो तर्क दिया जा रहा है, वो भी कुछ हजम नहीं होता। स्कूल कह रहे हैं कि उन्हें अपने कर्मचारियों (टीचर वह अन्य स्टाफ) का वेतन देना है और ऐसा तभी हो पाएगा जब वे फीस ले पाएंगे। उनके इस बहाने का मतलब है कि स्कूल के पास इतना सरप्लस फंड ही नहीं है कि फीस न मिलने पर वे कर्मचारियों का वेतन नहीं दे पाएंगे। क्या वाकई? क्या एक महीने फीस से ही इन स्कूलों का उस महीने भर का खर्च निकलता है?

इसी बात से स्कूलों के काम करने के काम करने के तरीके पर सवाल खड़ा होता है और सरकार पर जवाबदेही तय करने की जिम्मेदारी आती है। क्या सरकार को देखल देकर इन स्कूलों पर नकेल नहीं कसनी चाहिए? क्या सरकार को देखना नहीं चाहिए कि स्कूल चला रही सोसाइटीज़ और ट्रस्टों के पास कितना सरप्लस फंड है? क्या सरकार को चेक नहीं करना चाहिए कि उस स्कूल का मैनेजमेंट अपने लिए कितनी सैलरी ले रहा है?

अकाउंट बुक्स में गोलमाल पर लगे लगाम
यह सार्वजनिक है कि बहुत सारे स्कूल अपनी अकाउंट बुक्स में गोलमाल करके फीस से मिलने फंड को स्कूल चलाने पर होने वाले खर्च और अपने स्टाफ की सैलरी के नाम पर दिखाते हैं। इसके लिए वे अपने स्टाफ की सैलरी बहुत ज्यादा दिखाते हैं जबकि वास्तव में उन्हें कम पैसे देते हैं। कुछ स्कूल को तो सैलरी के तौर पर अध्यापकों को अकाउंट में ज्यादा पैसे डालते हैं मगर बाद में उनसे कुछ रकम कैश से ले लेते हैं।

तो फिर ये सरप्लस या बचा हुआ पैसा कहां जाता है? दरअसल मैनेजमेंट के लोग इस पैसे से अमीर हो रहे होते हैं। वे शिक्षण संस्थानों के नाम पर पैसा कमाते हैं और अपनी जेबें भरते हैं। स्कूल में होने वाले इवेंट्स का खर्च फ़र्ज़ी बिलों से ज़्यादा दिखाया जाता है और बाक़ी बचा पैसा मैनेजमेंट की जेब में जाता है। साथ ही, मैनेजमेंट के लोगों ने अपना वेतन बहुत ज़्यादा रखा होता है। चूंकि सरकार इस खेल को लेकर कभी कोई कार्रवाई करने में रुचि नहीं दिखाती इसलिए यह गोरखधंधा इस तरह से लालची लोगों के संस्थानों को प्रोत्साहन दे रहा है।

जब राज्य सरकार किसी निजी स्कूल या संस्थान को मान्यता देती है तो देखा जाता है कि इन्होंने निश्चित शर्तें पूरी की हैं या नहीं। मगर यह भी देखा जाना चाहिए कि भारतीय संविधान में नागरिकों को दिए शिक्षा के अधिकार को लेकर ये संस्थान प्रतिबद्धता दिखाते हैं या नहीं। इसलिए सरकार का फर्ज है कि वो प्रभावी नियामक कदम उठाए ताकि इन स्कूलों की कार्यप्रणाली पर नजर रखी जा सके।

फ़ीस ज़्यादा लेकर कम सुविधाएँ देने वाले निजी स्कूलों को बंद करना चाहिए या नहीं?

सरकार को कुछ ऐसे प्रावधान लाने चाहिए कि कि निजी स्कूलों को रेग्युलेट किया जाए। क्योंकि अभी जो नियम हैं, वे बिना दांत के शेर की तरह हैं। उनमें दम नहीं कि शिक्षा को नोट छापने का धंधा बनाने को रोक सकें। नियम बनाया जाना चाहिए कि सभी निजी स्कूलों का ऑडिट सरकारी एजेंसी करेगी। अभी जो स्कूलों द्वारा खुद ही अपने ऑडिट रिपोर्ट जमा करने का प्रावधान है, उसे ख़त्म किया जाना चाहिए। सरकार देखे कि स्कूलो में क्या सुविधाएं दी जा रही हैं, इनके पास क्या साजो-सामान हैं और वे फ़ीस के अनुरूप हैं या नहीं। साथ ही मैनेजमेंट की सैलरी भी फिक्स कर दी जानी चाहिए।

शिक्षा मौलिक अधिकार है, इसलिए सरकार को इस काम को अपने हाथ में लेना चाहिए। उसे देखना चाहिए कि स्कूलों के पास कुछ सरप्लस फंड रहे और वो उस संस्थान की जरूरत से ज्यादा न हो। रेवेन्यू एक्सपेंडिचर को भी मॉनिटर किया जाए और ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर या डिस्ट्रिक्ट एजुकेशन अथॉरिटी को ऑडिटर नियुक्त करने का अधिकार दिया जाए।

यह देखा गया है कि स्कूल अपने छात्रों को अपने यहीं से किताबें-कॉपियां या अन्य चीजें खरीदने को मजबूर करते हैं। वे अपने परिसर में ही दुकाने खोलते हैं और उनसे भी मुनाफा कमाते हैं। इससे होने वाले मुनाफे को वे छात्रों के साथ साझा नहीं करते। इसलिए, स्कूलों में शिक्षण सेवाओं के नाम पर चल रहीं इन व्यावसायिक गतिविधियों पर भी लगाम लगाई जाए।

(लेखक हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा से हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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