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विज़नहीन नेताओं की वजह से पिछड़ता चला गया हिमाचल

सुरेश चंबयाल।। जब से होश संभाला है, हिमाचल की राजनीति को बड़े करीब से देखता रहा हूं। हिमाचल में सत्ता के शीर्ष पर रहने वाले नेताओं ने कैसे-कैसे कब कहां कूटनीति से विरोधियों को चित किया, यह ताली बजा देने वाले लम्हे थे। मगर वक़्त के साथ मैंने देखा कि सत्ता के शीर्ष पर रहकर भी ये नेता लोग हिमाचल को आगे ले जाने के लिए कोई दिशा नहीं दे पाए।

उनकी जिंदगी और नीति बस कूटनीति की शतरंज के उन 68 खानों (जानता हूं 64 होते हैं परन्तु विधानसभा सीटों के आधार अपर 68 लिखा) तक सीमित रही। वो उस से बाहर कभी हिमाचल का भविष्य नहीं देख पाए। उन्हें सत्ता में रहने में मजा आता है। वो इसके मंजे हुए खिलाड़ी भी हैं। यह काबिल-ए-तारीफ़ भी है, मगर 80 के दशक के बाद से लेकर आज तक जो दशा-दिशा वे तय कर सकते थे, उसमें वे नाकाम रहे।

बेरोजगारों की लम्बी फौजें, खस्ताहाल स्वास्थ्य सुविधाएं, खराब सड़कें, कॉन्ट्रैक्ट दिहाड़ीदार एम्प्लॉयी, बद से बदतर होती शिक्षा व्यव्यस्था… क्या ये चीजें हिमाचल के नेताओं से इन इतने सालों के शासन का हिसाब नहीं मांगेगीं? वे लोग अपनी सत्ता के लिए अपने पार्टी के अंदर-बाहर के विरोधियों को तो चित करते रहे, मगर शह-मात के इस खेल में वे यह ध्यान नहीं दे पाए कि इस प्रदेश की उपलब्धियों का दायरा राष्ट्रीय भी हो सकता था।

आज हिमाचल के बुजुर्ग नेता कभी अवैध कब्जों को नियमित करते हैं तो कभी एक्स सर्विसमेन द्वारा किए गए कब्जों को नियमित करने का एलान करते हैं। और वे इसी मनोदशा में अगली जीत का स्वाद चखने के लिए बेता हैं, जिसे हिंदी में कहते हैं- तुष्टीकरण। नेतृत्व को समय से आगे रहना पड़ता है। समय से आगे सोचना पड़ता है। मगर हिमाचल के राजनेता कभी समय के कदम से कदम मिलाकर नहीं, बल्कि अपने नफे-नुकसान के हिसाब से चले।

भविष्य की राह देखती PTA, एसएमसी, पैट वगैरह-वगैरह अध्यापकों की फ़ौज किसकी नीति का परिणाम है? इन्हीं विज़नहीन नेताओं की। प्रदेश के लाखों स्नातक जम्मू-कश्मीर जाकर जिस दौर में B.Ed. करने जाते थे, उस दौर में हिमाचल की सरकारें कभी नहीं सोच पाई कि B. Ed. करने के लिए ऐसा क्या इंफ्रास्ट्रक्टर चाहिए, ऐसी क्या सुविधाएं, कितना बजट चाहिए कि हमारे लोगों को बाहर न जाना पड़े और वे हिमाचल में ही बी.एड कर सकें। मगर न जाने कितने ही लोग वहां से बी.एड करके आए।

फिर सरकारी टीचर लगने के लिए जहां तरफ जहां अच्छा-खासा कमिशन का टेस्ट पास करना होता था, वहां इन्हीं सरकारों ने चंद तनख्वाह पर पीटीए, एसएमसी और आउटसोर्स्ड आदि के नाम से लोगों को रख लिया गया। इनका न ढंग से टेस्ट होता था और न ही इंटरव्यू। होता भी था को क्या गारंटी उन लोगों पर स्थानीय नेताओं का दबाव न होता हो कि किसी रखना है किसे नहीं।  और फिर इन लोगों का शोषण करने राजनेताओं ने उन्हें रेग्युलर करने का कार्ड खेल दिया।

अब यह कहां का न्याय था कि एक तरफ़ तो कुछ लोगों को स्टेट लेवल का कमिशन देना पड़े, बाकायदा प्रतिस्पर्धा से आना पड़े और फिर नौकरी लगे, जबकि दूसरी तरफ मुख्यमंत्री उन लोगों के लिए नीति बनाने लगें जिनका इंटरव्यू प्रदान, प्रिंसिपल, सब्जेक्ट एक्सपर्ट आदि ने लिया हो। नौकरियों की तैयारी करते हुए कई साल खपाने के बाद लोग खुद खप गए, मगर वोट बैंक की राजनीति चलती रही।

इसका फायदा इन पीटीए, अनुबंध, आउटसोर्स्ड आदि कर्मचारियों को भी नहीं मिल पाया। वे आज बी कमशकश की स्थिति मे हैं। इतना समय नेताओं की चुग में पक्के होने के लिे गुजार दिए, मगर घोषणापत्रों में सिर्फ लॉलिपॉप मिला। अब अगर वे भावनात्मक आधार पर पक्के हो भी जाते हैं, तो उन लोगों का क्या होगा जो एक अदद टेस्ट और वेकंसी की राह देख रहे हैं?

अब कब्जे भी नियमित हो रहे हैं। नाजायज क्यों जायज हो रहा है, इसका न कोई सवाल करता है न कोई जबाब देता है। यह एक आधारशिला है आगे लोगों को यह बताने की जिसकी लाठी उसकी भैंस। सब कब्जे करो, सरकार वोट बैंक पर झुककर सब रेगुलर कर देगी। प्रदेश में लोग BA, MA करने के बजाय प्रफेशनल शिक्षा का रुख कर रहे हैं यहां के नेता लोग नए-नए कॉलेज खोले जा रहे हैं और पगड़ी कदमों में रख देने पर ऐलान कर दे रहे हैं कॉलेज खोलने का। एक बार इन नेताओं को प्रदेश के चार युवाओं को बुलाकर पूछना चाहिए कि क्या किसी कोने में बीए, बीएससी करवाने वाले कॉलेज की जरूरत है? कम से कम यही पता कर लीजिए कि अभी कॉलेजों की स्ट्रेंग्थ कितनी है।

जिन नए कॉलेजों का ऐलान किया जाता है, वे वर्षों तक पहले तो किराए पर चलते रहेंगे। न बच्चे पूरे होंगे न स्टाफ पूरा मिलेगा न शिक्षा मिलेगी। मिलेगा बस तुष्टीकरण। ऊपर से यह चरमराती हुई  शिक्षा व्यवस्था ताने मारती रहेगी और मज़बूरी का उपहास उड़ाती रहेगी। खासकर तब, जब हमारे बच्चे क्लर्क का एग्जाम भी पास नहीं कर पाएंगे। कौन इसका जिम्मेदार हुआ, कोई नहीं जानेगा। यही हालत स्वास्थ्य, पर्यटन, बागवानी, कृषि समेत तमाम क्षेत्रों की भी रही। टूरिस्ट अपने से आते हैं, अपने से जाते हैं मगर हम ढंग से कुछ डिवेलप नहीं कर पाए।

वक़्त के साथ मैंने यह जाना कि राजनीति के ये उस्ताद विज़न के हिसाब से प्रदेश को कुछ नहीं दे पाए और न ही अब देने की सोच रहे है। उम्मीद तो थी कि इन नेताओं के बीच कोई तो ऐसा आएगा जो कूटनीति से निकलकर हिमनीति पर चलेगा। मगर अफसोस, ऐसा होता दिख नहीं रहा। हिमाचल में शायद मौसम बदलने के लिए अभी इंतज़ार करना होगा। और यह बदलाव तभी होगा, जब जनता अपनी सोच बदलेगी।

(लेखक हिमाचल प्रदेश से जुड़े विभिन्न मसलों पर लिखते रहते हैं। इन दिनों इन हिमाचल के लिए नियमित लेखन कर रहे हैं।)

DISCLAIMER: ये लेखक के अपने विचार हैं

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