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विधायकों के वेतन-भत्ते बढ़ने पर मचे हो-हल्ले का मतलब क्या है?

आशीष कुमार।। हिमाचल प्रदेश के ‘माननीयों’ की सैलरी बढ़ा दी गई है। ये कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस बात को लेकर लोगों को ‘हल्ला’ भी नया नहीं है। जब-जब किसी की सैलरी बढ़ेगी तब-तब किसी के पेट में दर्द होगा। दरअसल मुझे विधायकों और मंत्रियों की सैलरी बढ़ाने पर किए जाने वाले गैरवाजिब हल्ले से दिक्कत है। मुझे दिक्कत है उन लोगों से जो अपनी पुरानी पेंशन के लिए तो पुरजोर लड़ते हैं, समय-समय पर अपने DA बढ़वाने के लिए तो तत्पर खड़े होते हैं, लेकिन जब दूसरे के हित की बात आए तो नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं। ये सरकारी कर्मचारी उन्हीं कॉरपोरेट घरानों की तरह हैं कि अपनी जेब में तो माल आता रहे, लेकिन दूसरों का भला नहीं होना चाहिए।

यहां मैं उस तर्क से भी सहमत नहीं जो लोग कहते हैं कि कर्मचारी तो टेस्ट लड़कर लगा है। तो भाई जो विधायक बना है वो क्या खुद से बन गया? विधायकों और मुख्यमंत्री बनने के लिए तो कर्मचारी-अधिकारी बनने से भी कहीं अधिक प्रतिस्पर्धा है। कर्मचारी लाखों में हैं, हिमाचल का IAS कैडर करीब 153 है, इनकी संख्या ज्यादा भी हो सकती है, लेकिन सुक्खू जी को 153 में सुख मिल रहा है (वो नहीं चाहते कि उनकी सरकार में और ज्यादा अफसर हावी हों)। इसीलिए उन्होंने आगे और IAS के अफसर लेने से मना कर दिया।

एक और मूर्खों वाला तर्क दिया जाता है कि ये विधायक और मंत्री तो भ्रष्ट हैं। पहले ही इतना लूट रहे हैं, इनकी तनख्वाह क्यों बढ़ा रहे? इस तर्क के हिसाब से तो क्या सरकारी कर्मचारी, अधिकारी भ्रष्ट नहीं हैं? तो उनकी सैलरी और DA भी क्यों बढ़ाए जाएं? ग्राम पंचायत से लेकर शीर्ष प्रदेश की ‘पंचायत’ तक में भ्रष्टाचार है। हां, ये बात सही है कि न सभी अधिकारी और न ही सभी विधायक-मंत्री भ्रष्ट होते हैं।

वैसे ही संदर्भ के लिए याद करवा दूं कि एक पूर्व विधायक की हालात ये हो गई थी वो गुजर-बसर करने के लिए मेले में चूड़ियां बेच रहे थे। उस समय विधानसभा क्षेत्र का नाम मेवा होता था जिसे आज भोरंज के नाम से जाना जाता है। वहां से विधायक अमर सिंह को जब तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. यशवंत सिंह परमार ने चूड़ियां बेचते देखा तो ये दृश्य देखकर उनका दिल पसीजा और उन्होंने पेंशन शुरू की। मकसद भी यही था कि नेता भ्रष्ट ना हो इसीलिए उसको भी काम के अच्छे पैसे और भत्ते दो। हां ये बात दीगर है कि नेता वेतन-भत्ते लेते तो हैं लेकिन अपने काम का जनसेवा का रूप देते हैं पत्रकारों और अधिकारियों की तरह।

यदि फिर भी ये कहा जाए कि विधायक-मंत्री भ्रष्ट हैं तो उन्हें भ्रष्ट बनाया किसने? उनकी जवाबदेही तय क्यों नहीं हुई? क्योंकि लोग बिकते हैं 300 यूनिट बिजली के लिए, OPS के लिए, फ्री बस सर्विस के लिए। पूर्व में भी बिके हैं अपने नाजायज, अतिक्रमण की हुई जमीनों को रेगुलर करवाने के लिए। नो वर्क नो पे जैसे शानदार फैसले को पलटने के लिए।

माननीयों की संपत्ति बढ़ती देखी होगी आपने, लेकिन सोचा है कि उनकी संपत्ति बढ़ गई और ये आपको कैसे पता चला? क्योंकि कानून में प्रावधान है कि चुनाव लड़ने के लिए संपत्ति का ब्योरा देना पड़ता है। बेमन और गलत ही सही पर वो कम से कम बता तो रहा है कि उसने कितने कमा लिए 5, 10 और 15 वर्षों में, लेकिन उन अधिकारियों-कर्मचारियों का हिसाब कहां है जो रिश्वतखोरी से अथाह संपत्ति जमा कर चुके हैं? उच्च अधिकारी ऐनुअल प्रॉपर्टी रिटर्न भरते हैं लेकिन उसका ब्योरा तो सार्वजनिक नहीं होता। फिर नीचे के अधिकारियों और कर्मचारियों का क्या?

मगर अक्सर विधायकों औऱ मंत्रियों के नाम पर बिल फाड़ा जाता है ताकि अपना हिसाब ना देना पड़े। पत्रकार तबका भी अच्छे से जानता है कि बद्दी, बरोटीवाला, नालागढ़, ऊना, कालाअंब जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में डटे अफसर कर्मचारी कितना अथाह पैसा कूट रहे हैं। खबरें ये भी आती रही हैं कि यहां तो ट्रांसफर के लिए भी चंदा लगता है तो फिर ये धंधा क्यों अच्छा नहीं लगता?

खनन का तो कुछ पता नहीं है कि कहां कितना हो गया, ‘सरकारें आएंगीं जाएंगी, सत्ता बिगड़ेगी बनेगी पर खनन चलता रहेगा, रिश्वत चलती रहेगी‘। इस लाइलाज बीमारी का हल है ही नहीं। यदि है तो वो है नैतिकता और सिस्टम में पारदर्शिता। विधायक और मंत्री अस्थायी सरकार होते हैं, कर्चमारी-अधिकारी तो स्थायी सरकार है। इसीलिए अगर नेता की ईमानदारी चाहिए तो इस वर्ग को भी वही सहयोग देना पड़ेगा।

ये लेखक के निजी विचार हैं।

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