(मूलत: 18 जनवरी, 2018 को प्रकाशित इस लेख को दोबारा प्रकाशित किया गया है)
आई.एस. ठाकुर।। बीजेपी पर हमेशा से संस्कृत और हिंदू संस्कृति के नाम पर तुष्टीकरण वाली राजनीति करने के आरोप लगते रहे हैं और देश में कहीं पर भी नई सरकार बनती है, वहां पर ऐसे विषयों को लेकर शिक्षा मंत्रियों का बयान देना नया नहीं है। इस कड़ी में हिमाचल प्रदेश के शिक्षा मंत्री सुरेश भारद्वाज भी शामिल हो गए हैं।
सुरेश भारद्वाज ने नई दिल्ली में केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की 65वीं बैठक में शामिल हुए। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि हिमाचल में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना की जाएगी। सुरेश भारद्वाज ने कहा कि प्रदेश सरकार संस्कृत भाषा को बढ़ावा देने में हरसंभव प्रयास करेगी और शिक्षा को और अधिक बेहतर बनाने की ओर प्रयास किए जाएंगे।
यूनिवर्सिटी खोल देने से बढ़ावा नहीं मिल जाता
दरअसल कोई भी भाषा तभी व्यावहारिक होती है, जब उसमें रोज़गार मिलता हो। आज के दौर में जहां हिंदी भाषा ही अंग्रेजी के आगे कमजोर हो रही है और मल्टीनैशनल कंपनियों से लेकर सरकारी कामकाज तक अंग्रेजी में होने लगा है। इस दौर में हिंदी भाषा में पढ़े लोगों के लिए रोज़गार मिलना थोड़ा चुनौतीपूर्ण हो गया है। जब हिंदी में ही रोज़गार नहीं मिल रहा तो संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित करके क्या हो पाएगा? यहां से निकले छात्र कहां रोज़गार पाएंगे?
देश में संस्कृत की सीटें भर नहीं रहीं
हालात ये हैं कि दिल्ली यूनिवर्सिटी में संस्कृत की सीटें बड़ी मुश्किल से भरती हैं, जहां पर बाकी कोर्सों में ऐडमिशन के लिए मारामारी रहती है। राजस्थान की संस्कृत यूनिवर्सिटी में कई सीटें खाली पड़ी रहती हैं। अन्य राज्यों की यूनिवर्सिटी के विभागों का यही हाल है। फिर हिमाचल प्रदेश सरकार के शिक्षा मंत्री किस आधार पर कह रहे हैं कि संस्कृत यूनिवर्सिटी खोलेंगे।
एचपीयू में पहले से है संस्कृत विभाग
बेहतर होगा कि हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग है, उसे और मजबूत किया जाए, सीटें और कोर्स बढ़ाकर देखें और स्टाफ भी। वो भी तब, पहले देखें कि उन कोर्सों की उपयोगिता है या नहीं। ऐसा नहीं कि लोगों को यह दिखाने के लिए आप करोड़ों रुपये खर्च करके नई यूनिवर्सिटी खोल दें कि हम संस्कृत के लिए कुछ कर रहे हैं। नाहन मेडिकल कॉलेज और नेरचौक मेडिकल के डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहे बच्चे सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं और कक्षाओं का बहिष्कार कर रहे हैं, उस तरह किसी का ध्यान नहीं है।
पहले रोज़गार पैदा करें, फिर बढ़ावा दें
और अगर संस्कृत के लिए कुछ करना ही है तो पहले इसे अपनी सरकार में इस्तेमाल करना शुरू कीजिए, बोलचाल में इस्तेमाल कीजिए, सरकार में पद सृजित कीजिए, प्राइवेट सेक्टर में इसके इस्तेमाल को बढा़ने के तरीके सोचिए। इसे जन-जन तक पहुंचाने के लिए सोचिए। आज अगर कोई जर्मन या फ्रेंच सीखना चाहता है तो उसकी उपयोगिता है क्योंकि ये भाषाएं रोज़गार देती हैं। मगर संस्कृत पढ़कर कहां रोज़गार मिलता है? शास्त्री या अन्य कोर्स करने के लिए पहले से ही कई संस्थान मौजूद हैं। आपकी यूनिवर्सिटी क्या नया देगी?
शिक्षा का रोज़गारपरक होना जरूरी
शिक्षा का उद्देश्य भले ही ज्ञान से उत्थान करना हो मगर आज के दौर में बड़ी समस्या रोज़गार की है। संस्कृत को बचाना अगर मंत्री जी का मकसद है तो उन्हें पहले सोचना चाहिए कि संस्कृत विलुप्तप्राय क्यों हो रही है। इसलिए हो रही है क्योंकि इसका प्रैक्टिकल इस्तेमाल कहीं नहीं बचा है आज। क्या लोग आपस में संस्कृत में बात करते हैं? क्या वे लिखते हैं इस भाषा में? क्या इस भाषा में पत्र-पत्रिकाओं की भरमार है? क्या सरकारी काम-काज संस्कृत में होता है? किसी समय फारसी हिंदुस्तान में खूब चलती थी। आज कहां है फारसी? ऐसा ही हाल संस्कृत का है।
बेहतर होगा फंड को एचपीयू या अन्य पहले से मौजूद कॉलेजों छात्रों को ऐसी शिक्षा देने पर फोकस करेंगे तो लेटेस्ट और अपडेटेड हो और जो उन्हें स्वावलंबी बना सके। पहले से ही बेरोजगारी बढ़ी हुई है, ऐसे में आप इसे बढ़ाना चाहते हैं? खैर, यह देखना दुखद है कि प्रदेश की नई सरकार भी शोशेबाज़ी में पड़ गई है, व्यावहारिकता से उसे कोई मतलब नहीं।
(लेखक लंबे समय से इन हिमाचल के लिए लिख रहे हैं, उनसे kalamkasipahi @ gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)