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पशुधन की सेहत को लेकर कितना गंभीर है हिमाचल?

प्रतीकात्मक तस्वीर

डॉ. पंकज राणा।। करीब 68 लाख 65 हजार की आबादी वाला पहाड़ी प्रदेश 55,673 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में बसा है। प्रदेश की संस्कृति ने पशुधन एवं मनुष्य को माला की भांति रिश्ते मे पिरो कर रखा है। पशुधन एक तरफ तो मनुष्य को खाद्य सुरक्षा प्रदान करता है तो दूसरी तरफ आजीविका की व्यवस्था भी करता है।

स्पष्ट है कि हिमाचल प्रदेश में पशुधन का स्वास्थ्य वह महत्वपूर्ण कड़ी है जिसके बिना प्रदेश में खुशहाली नहीं लायी जा सकती। किन्तु क्या प्रदेश की संस्कृति के इस अभिन्न अंग के स्वास्थ्य की सुध कभी ली गई? इन मूक पशुओं की व्यथा की बानगी ही है कि ये महज चुनावी वादों और दावों का हिस्सा मात्र बनकर रह गए।

19वीं पशुगणना 2012 के अनुसार हिमाचल प्रदेश में कुल 48,44,431 संख्या में पशुधन है। इस कुल संख्या में 21,49,259 गौवंश, 7,16,016 भैंस प्रजाति, 8,04,871 भेड़, 11,19,491 बकरियां एवं 15,081 घोड़े हैं। इन आंकड़ों पर गौर कीजिये कि संपूर्ण पशुधन के स्वास्थ्य की सुध लेने के लिए प्रदेश में केवल 439 पशु चिकित्सकों के पद ही स्वीकृत है। लेकिन विडंबना ही है प्रदेश में इनमे से भी केवल 320 पदों पर ही चिकित्सक तैनात हैं। सरल शब्दों में समझें तो 21000 पशुधन पर केवल 1 चिकित्सक है।

ये अनुपात ही प्रदेश में पशु स्वास्थ्य सुविधा की खस्ता हालत बताने के लिए पर्याप्त है। यह कहना अतिशियोक्ति न होगी कि ये पशुधन के साथ अन्याय तो है ही साथ ही उस महत्वपूर्ण कड़ी के साथ भी खिलवाड़ है, जिसके तहत मानव एवं पशु स्वास्थ्य एक दूसरे से बंधे हुए हैं।

प्रदेश में सड़कों में घूम रहे बेसहारा गोवंश की समस्या को हल करने की कवायद भी जारी है। गौ सेंचरी बना कर निस्संदेह हम कुछ समय तक तत्काल राहत पा सकते हैं किन्तु यह समस्या के मूल का निवारण नहीं है। हाँ, भयावह रूप धारण कर चुकी परिस्थति के निदान के लिए अनिवार्य भी है परन्तु गोवंश सड़कों पर आए ही न, ये ऐसा उपाय नहीं है।

क्यों आज तक गोवंश के संरक्षण की कोई ठोस योजना एवं नीति धरातल पर नहीं उतर पाई? सत्य यही है कि गोवंश के संरक्षण एवं देख- रेख की केवल बातें हुईं है। यदि गोवंश के खान-पान के लिए चरागाह विकसित किए जाएँ, उनके इलाज के आधारभूत ढांचा बनाया जाए एवं उनके इलाज़ को नीम हकीमों के भरोसे न छोड़कर प्रशिक्षित डॉक्टर उपलब्ध करवाएं जाएं तो काफी हद तक हम समस्या के मूल को ठीक कर सकतें हैं।

प्रदेश के कृषि विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार करीब 55 % बेसहारा मादा गौवंश मादा स्त्री रोगों से ग्रसित पाया गया। अर्थात इलाज़ के बाद इनमें से बहुत से गोवंश को दोबारा पशुपालकों द्वारा पाला जा सकता है।
आवारा कुत्तों की समस्या से भी हम सब परिचित हैं। गौरतलब है कि राजधानी शिमला में ही हर वर्ष करीब 1000 लोग आवारा कुत्तों द्वारा काट लिए जाते हैं। फिर पूरे प्रदेश में यह आकंड़ा कितना बड़ा होगा।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी पिछले वर्ष शिमला को आवारा कुत्तों से मुक्त करवाने के आदेश दिए थे। किन्तु जब कुत्तों की नसबंदी के लिए प्रदेश में पशु चिकित्सक ही न हों, न ही आधारभूत ढांचा और न ही नीति तो आवारा कुत्तों की रोकथाम की बात करना महज हवामहल ही है। इस परिस्थिति की जिम्मेदारी किसकी है? रेबीज़ जैसी भयंकर बीमारी का डर भी यदि सरकारों को सोचने पर विवश नहीं करता तो फिर कुछ कहना लिखना भी व्यर्थ है।

ऐसा नहीं है कि पशु चिक्त्सिक उपलब्ध नहीं है, किन्तु वे प्रदेश छोड़कर महानगरों में प्राइवेट प्रैक्टिस करने के लिए विवश हैं। 
हमें आवश्यकता है की वादों और दावों से निकलकर चरणबद्ध वैज्ञानिक ढंग से पशुधन के स्वास्थ्य के लिए कार्य करें। पशुधन के उचित स्वास्थ्य के लिए चरागाह विकसित करने होंगे, आधारभूत ढांचा विकसित करना होगा एवं पशु चिकत्स्कों को तैनाती देनी होगी। गौ सेंचरी, गोसदन और गोशाला बना कर हम अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाते बल्कि वहां भी उनके खान-पान एवं स्वास्थ्य के विषय में विचार करना होगा। जनतंत्र में यह तभी होगा जब जनता इन मांगों को सरकार के समक्ष उठाये क्योंकि पशुधन स्वयं वोटबैंक नहीं।

(लेखक डॉक्टर पंकज राणा से 9816601776 पर संपर्क किया जा सकता है)

नोट- ये लेखक के अपने विचार हैं, इनके लिए वह स्वयं उत्तरदायी हैं।

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