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‘आज भी मन में सवाल उठता है कि वह कोई सामान्य महिला थी या कोई देवी’

DISCLAIMER: हम न तो भूत-प्रेत पर यकीन रखते हैं न जादू-टोने पर। ‘इन हिमाचल’ का मकसद अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है। हम लोगों की आपबीती को प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि अन्य लोग उसे कम से कम मनोरंजन के तौर पर ही ले सकें और इन अनुभवों के पीछे की वैज्ञानिक वजहों को कॉमेंट में बता सकें।

(लेखक अमेरिका में रहते हैं, उन्होंने इंग्लिश में अपनी कहानी हमें भेजी थी, जिसका अनुवाद नीचे पेश कर रहे हैं)

पता नहीं यह हॉरर एनकाउंटर है भी या नहीं। मेरे ख्याल से यह पवित्र एनकाउंटर है। खैर, बात उन दिनों की है, जब मैं पढ़ाई के बाद पहली बार अमेरिका गया था। डेढ़ साल यहां अमेरिका में काम करने के बाद मुझे पहली बार घर जाना था। 1983 की बात रही है। मेरा घर हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के सरकाघाट में दूर-दराज में है। उन दिनों आने-जाने के साधन नहीं थे। एक दिन दिल्ली में अपने दोस्त के यहां रुका और फिर वहां से चंडीगढ़ पहुंचा और चंडीगढ़ से मंडी के लिए बस पकड़ ली। मंडी जाकर मुझे अमेरिका से एक परिचित द्वारा भेजा गया सामान पहुंचाना था। मैंने सोचा कि बाद में कौन जाएगा, जब बस मडी तक जा ही रही है तो वहीं पहुंचा दूंगा और फिर बला टलेगी। मंडी पहुंचकर वह सामान सौंपने के बाद शाम हो चुकी थी। अब उस वक्त वहां से सरकाघाट के लिए कोई बस नहीं थी। उन दिनों टैक्सियां भी नहीं होती थीं कि उनकी मदद ली जाए।

बस अड्डे पर बैठा उधेड़-बुन में ही था कि रात के साढ़े 8 बज गए। किसी ने बताया कि पास ही गुरुद्वारे में रुक जाओ और सुबह बसें चलेंगी तो चले जाना। मैं गुरुद्वारे की तरफ गया। वहां संयोग से पता चला कि एक सरदार जी का ट्रक हार्डवेयर का कोई सामान लेकर सरकाघाट जाने वाला है। सरदार जी से मैंने पूछा तो मुझे वह साथ ले चलने के लिए तैयार हो गए।सवा 9 बजे वह, उनका हेल्पर और मैं मंडी से चल दिए। सरदार जी मस्त मिजाज थे और खूब बातें कर रहे थे। रास्ते में उन्होंने भूतों के किस्से सुनाने शुरू कर दिए कि कैसे उन्हें रात को क्या-क्या दिखा है ड्राइवरी के अब तक के करियर मे।

मेरी उम्र 27 साल थी उस वक्त, फिर भी मैं डरपोक सा था। मैं अपने मम्मी-पापा का इकलौता बच्चा और बहुत लाड से रखा था। अमेरिका में जॉब के लिए भी नहीं भेजना चाहते थे वो मुझे, मगर मैं किसी तरह गया। पहली बार घर से बाहर निकला था। और अगर पहली बार घर जा रहा था। अमेरिका हो आया था, लेकिन था तो वही मासूम सा पहाड़ी लड़का। मुझे चिंता सताने लगी कि रात को ये लोग मुझे उतार देंगे, तो आगे क्या होगा। उन दिनों फोन भी नहीं हुआ करते थे।

खैर, धीरे-धीरे चल रहे सरदार जी ने करीब साढ़े 3 पौने 4 घंटों में सरकाघाट पहुंचा दिया। साढ़े 12 या 1 बजे का टाइम रहा होगा। सरदार जी ने पूछा भी कि चले जाओगे या कहीं किसी सराय में रुक जाओ या जिनके यहां सामान उतारना है, उनसे बात कर लेता हूं। मैंने कहा कि नहीं, मैं चला जाऊंगा, पास ही है गांव। सरदार जी ने मेन रोड पर ही वह सामान उतारना था और वापस रात को ही मंडी लौटना था। जहां उन्होंने सामान उतारना था, वहां पर पहले से ही तीन-चार लोग इंतजार कर रहे थे। सच कहूं तो मेरा मन था कि इनमें से कोई मेरी मदद करे या अपने यहीं रुकने को कहे, मगर किसी ने नहीं कहा।

मेरे पास एक बैग था और मैं उसी को कंधे पर लादकर रात के 1 बजे चल दिया। मेरा गांव पपलोग के पास है। काफी दूर है और उन दिनों रास्ते में घर भी नहीं थे। जंगल था। मेरे पास सिर्फ एक टॉर्च थी। रास्ते पर मैं बढ़ा चला जा रहा था। बीच में सरदार जी ने जो भूत के किस्से सुनाए थे, उनसे भी डर लग रहा था। हर आवाज पर मैं चौंकता, हर परछाई लंबी होती प्रतीत होती। ऐसा लगता कि कोई पीछे चल रहा है। कभी गर्दन के पीछे के बाल हिलते, तो कभी ठंडी-ठंडी लहर सी दौड़ जाती। दिल मुंह पर धड़कता जा रहा था। इतने में मुझे पीछे से ऐसी आवाज सुनाई दी, जैसे कोई पायल पहनकर चल रहा हो। मैं घबराया और तेज कदमों से आगे बढ़ने लगा। कच्चा रास्ता, कहीं झाड़ियां उग आई थीं, कहीं ऊंचे-नीचे टप्पे। आवाज तेज होती जा रही थी।

मैंने सुना था कि पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए। इसलिए मैं भागने लगा। दो कदम ही भागा था कि ठोकर लगी और औंधे मुंह गिर गया। बाथ से बैग भी छिटककर दूर जा गिरा और टॉर्च भी बुझ गई औऱ पता नहीं कहां चली गई। पीछे से आवाज आई- क्या गल ओ बच्चा, लगी ता नी? सुले-सुले हांड। आवाज किसी महिला की थी, जो थोड़ी बुजुर्ग जैसी लग रही थी। इसका अर्थ है- क्या बात है बेटे, चोट तो नहीं आई? धीरे-धीरे चलो। मैं घबराया। मैंने सुना था कि कोई आवाज दे तो जवाब नहीं देना चाहिए। मगर इस महिला ने तो आवाज नहीं दी, उल्टा मुझे कुछ सलाह ही दे रही है। अंधेरे में कुछ नहीं दिख रहा था, फिर भी साफ दिखा कि एक महिला खड़ी हुई है, ठीक वैसे कपड़ों में, जैसे घर के बुजुर्ग पूजा-पाठ के दौरान पहनते हैं।

चांद पूरा नहीं था, मगर फिर भी उसकी रोशनी थी थोड़ी-बहुत। मैंने देखा कि महिला ने लाल रंग के कपड़े पहने हुए हैं और बहुत सारे गहने भी। इससे पहले कि मैं कुछ कर पाता या सोच पाता- उस महिला ने कहा- चुक समाना कने चल। मेरी जान में जान आई और लगा कि कोई महिला ही है, शायद आसपास रहती हो। मैंने अपना बैग उठाया औऱ टॉर्च ढूंढने लगा। महिला ने कहा- टार्चा री नी जरूरत, तारे लगिरे। नैरुआ ता नी होइरा? (टॉर्च की जरूरत नहीं है, तारे हैं आसमान में। आंख में कोई समस्या तो नहीं जो कुछ दिख नहीं रहा?)

मैं उस महिला के इस कटाक्ष से मुस्कुरा दिया। मैंने बैग उठाया और कुछ और देर टॉर्च ढूंढी मगर वह नहीं मिली। फिर मैंने पूछा कि आप कौन। महिला बोली- हाऊं एथी ए रेहां इ बच्चा। घराला जो चलिरी, बच्छी सूणे जो आइरी, राती देखणा पौंदी। (मैं तो यहीं रहती हूं बेटा, गउशाला को जा रही हूं। बछिया गर्भवती है, रात को देखनी पड़ती है।)

अब मेरी जान में जान आई कि कोई स्थानीय महिला है। अब उसने मुझसे पूछा कि मैं कौन हूं और कहां जा रहा हूं। मैंने बताया कि ऐसे-ऐसे फ्लां का बेटा हूं और ऐसे-ऐसे जा रहा हूं। महिला ने कहा बच्चा अगर तू डरणा लगिरा तो हाऊं चलूं सोगी घरा तक। अपणे इलाके मंझ कोई गल्ल नी होंदी डरने वाली। (अगर तू डर रहा बेटा तो मैं चलती हूं घर तक साथ। डरने वाली कोई बात नहीं होती है अपने इलाके में।)

मैं डरा हुआ था और सहारा पाकर हिम्मत आई थी। तो मैंने कह दिया कि हां जी, थोड़ा आगे तक छोड़ आओ। वह महिला मेरे साथ-साथ चलती रही और मेरे से बात करती रही। मेरे परिवार के सब सदस्यों का हाल-चाल लिया उसने। बीच में खड्ड आई, जिसमें पत्थरों से पुल बनाया हुआ था। उसे पार किया। जैसे ही गांव से बाहर एक घर दिखा, उस महिला ने कहा- ठीक हा ताा बच्चा, आई गेया तेरा ग्रां, मैं चलदी कने देखती हुण बछिया जो। (ठीक है बेटा, तेगा गांव आ गया, मैं चलती हूं और देखती हूं बछिया को।)

मैंने उस बुजुर्ग महिला को धन्यवाद कहा और उसके पांच छुए। वह महिला मुस्कुराई। इस बार मैंने बड़े ध्यान से उस महिला का चेहरा देखा। आंखें बड़ी सी, उम्र करीब 40-45 साल, नाक में नथ, सिर पर भी लाल ओढ़नी और कपड़े भी लाल, हाथों में सोने की चूड़ियां और गले में सोने की माला, जिनका डिजाइन वैसा नहीं था, जैसा महिलाएं पहनती थीं। चेहरा कुछ अलग सा था। जैसे बहुत खुश होता है कोई तो उसका चेहरा जैसे दमकता है, वैसा।

खैर, मैं खड़ा रहा और वह महिला पलटी और तेज कदमों से रास्ते में वापस चली गई। मैं मुड़ा और करीब 10 मिनट में अपने घर में था। मैंने दरवाजा खटखटाया- सबसे पहली ताई जी ने दरवाजा खोला। सबसे मिला और मैंने सबको बताया कि कैसे बगल के किसी गांव की कोई महिला मुझे यहां तक छोड़ आई। घर के आधे लोग परेशान हुए, आधे हैरान। कुछ का कहना था कि मुझे कोई भूत मिला है और मुझे तुरंत नहाकर पूजा-पाठ करना चाहिए। मेरी दादी जो सबकुछ ध्यान से सुन रही थी, उसने कहा कुछ करने की जरूरत नहीं है। दादी ने बोला कि वो जो कोई भी थी, उसने बच्चे को सुरक्षित घर पहुंचाया है। उन्होंने कहा कि वो हमारी कुलदेवी भी हो सकती थीं, जिनका पास ही मंदिर है और वह पूरे इलाके के लोगों की रक्षा करती हैं।

मैं आज अमेरिका में हूं और साइंट ऐंड टेक्नॉलजी से जुड़ी एक कंपनी में आईटी डिपार्टमेंट का चीफ हूं। मेरा अब तक का नॉलेज और समझ मुझे इजाजत नहीं देता कि मैं चमत्कार पर यकीन करूं। मगर आज भी मुझे लगता है कि वह महिला कोई गांव की सामान्य महिला नहीं थी। क्योंकि ऐसे सज-धजकर कोई गउशाला नहीं जाता वह भी सोने के ढेरों गहनों के साथ। मगर भूत-प्रेत और देवी-देवता भी कैसे ऐसे साक्षात आ सकते हैं। जो भी हो, मैं आज भी कुलदेवी के प्रति श्रद्धा रखता हूं और मानता हूं कि वही देवी उस रात मेरी मदद के लिए आई थीं और उन्हीं ने मुझे घर सुरक्षित पहुंचाया। जय मां।

(लेखक का जन्म हिमाचल में हुआ, पढ़ाई भी यहां से हुई मगर अब अमेरिका के स्थायी निवासी हैं।)

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