Site icon In Himachal | इन हिमाचल

मैं खड्ड से घर उठा लाई छोटा सा आईना और उस आईने में…

DISCLAIMER: हम न तो भूत-प्रेत पर यकीन रखते हैं न जादू-टोने पर। ‘इन हिमाचल’ का मकसद अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है। हम लोगों की आपबीती को प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि अन्य लोग उसे कम से कम मनोरंजन के तौर पर ही ले सकें और इन अनुभवों के पीछे की वैज्ञानिक वजहों को कॉमेंट में बता सकें।

मैं 7वीं क्लास में पढ़ती थी। गांव से स्कूल 4 किलोमीटर दूर था औऱ हम सब गांव के कुछ परिवारों के बच्चे एकसाथ स्कूल जाते और एकसाथ चले आते। बीच में एक सूखी हुई खड्ड थी। मैं औऱ मेरी सहेली चंपा साथ ही आते-जाते थे। बाकी बच्चे कभी आगे होते या कभी पीछे। खड्ड में जिस तरफ से हम उसे क्रॉस करते थे, उससे दूर बड़ी सी चट्टान दिखाई देती थी, जिसपर झंडा लगा हुआ था। बड़ा मन करता था उस चट्टान पर जाने का। मगर कभी भी बड़े बच्चे वहां जाने नहीं देते थे।

एक दिन मैं और चंपा छुट्टी पर स्कूल के पास ही झाड़ी में लगे आखे खाने रुक गईं। बाकी लोग चले गए। हम मस्ती में घर लौट रही थीं काफी लेट। गर्मियों के दिन थे और और स्कूल ढाई बजे खत्म होता था। शायद 4 बज रहे थे उस वक्त शाम के। हम अकेले थे तो मैंने खड्ड पार करते वक्त मैंने चंपा को कहा कि चलो न, आज उस चट्टान के पास चलते हैं। चंपा ने पहले आनाकानी की, मगर मैं उसे मनाने में कामयाब हो गई। दरसअल दो दोस्तों में भी एक पर्सनैलिटी डॉमिनेटिंग होती है। इस रिलेशनशिप में मैं डॉमिनेटिंग थी, जबकि चंपा शांत और शर्मीली थी। मैं आगे-आगे चली और चंपा पीछे-पीछे।

कितनी सुंदर चट्टान थी वो। नीले से रंग की संगमरमर जैसी मखमली लग रही थी। खड्ड मे कभी हमने बरसात के अलावा पानी नहीं देखा था, मगर सदियों पहले बहकर आई ये चट्टान घिस-घिसकर कोमल सी हो गई थी। मैंने देखा कि उस चट्टान के नीचे कुछ टोकरियां रखी हुई थीं, जिनमें चूड़ियां, बिदिया, शीशा (आईना), रिबन वगैरह थे। बहुत सारे थे। कुछ पुराने थे और खड्ड की रेत में धंसे हुए थे तो कुछ ताजे। टोकरियों मे धूप के जले हुए अवशेष भी थे। इस बीच मुझे गोल सा छोटा आईना दिखा। मैंने उशे उठा लिया। चंपा ने कहा कि मत उठा, फेंक इसे और चल। मैंने उसे फेंकने का नाटक किया और चुपके से अपने पास छिपा लिया। वहां से हम दोनों घर की तरफ चल दीं।

घर पर आकर रोज की दूध पिया, जो दादी अम्मा मेरे आने का इंतजार करके बैठी रहती थीं और मक्खन औऱ नमक लगी रोटी खाई। फिर बैग पटका और इधर-उधर चलने लग गई। शाम को ध्यान आया कि मैं जो आईना लाई थी, उसे देखूं। मैंने उसे बैग में रख लिया था। पढ़ाई के बहाने मैंने बैग खोला और उस आईने को देखने लगी। सिल्वर कलर का फ्रेम गोल सा और बीच में छोटा सा वो शीशा। मैंने उसमें अपना चेहरा देखा। मैं उससे खेलने लगी। कभी मैं अपने बालों को चेहरे पर लाती और कभी हटाती। मगर एक पल के लिए मैं तब चौंकी, जब मुझे उसमें अपने बजाय कोई और चेहरा दिखा।

प्रतीकात्मक तस्वीर

आज कई साल हो गए हैं, मगर मैं याद करूं तो वो चेहरा अजीब सा था। मतलब किसी बूढ़ी सी महिला का, मगर पता नहीं कैसा। मतलब मैं लिखने में उतनी अच्छी नहीं हूं कि उसका चेहरा डिस्क्राइब कर सकूं। मगर अजीब सा था, जो इंसानों जैसा होकर भी इंसानों जैसा नहीं था। मैं डरी और शीशा वहीं फेंककर चिल्लाई जोर से। मेरी आवाज सुनकर मेरी चाची दौड़ती हुई आई। मैं उनसे लिपट गई। मुझे बुखार हो गया और मैं कुछ न बोलूं। इसके बाद जो हुआ, वह मुझे याद नहीं। मगर बाद में मैंने परिजनों से जो सुना, उनके हवाले से बता रहा हूं। परिजनों ने बताया कि-

उस रात को मैं अजीब सी आवाज में बात कर रही थी और सबको उनके नाम से बुला रही थी। यही नहीं, मैंने चाची के दादा, पड़दादा तक का नाम ले लिया। मैं सबको चुनौती दे रही थी और हंस रही थी। मेरी आंखों का रंग लाल हो गया था और जीभ दांतों तले कट गई थी। मेरे हाथ-पैर नीले पड़ गए थे। मुझे डॉक्टर के पास ले जा गया अस्पताल, वहां से मुझे पीजीआई रेफर किया गया। पीजीआई में डॉक्टरों ने कहा कि इसे या रेबीज़ हो गया है या टिटनस, क्योंकि मेरी बॉडी अकड़ रही थी।

बाद में टेस्ट में दोनों ही बातें ठीक नहीं निकलीं। किसी ने कहा कि एपिलेप्सी (मिर्गी) का मामला है तो कोई कुछ औऱ कहे। इस बीच कोई और समझ पाता। मैं अचानक ठीक हो गई। दादी का कहना था कि उन्होंने मेरे हाथ में कोई जंतर बांधा था, जिसकी वजह से मैं उश वक्त ठीक हुई। डॉक्टरों ने और टेस्ट लिखे औऱ मुझे छुट्टी दे दी।

मैं घर आई और घर पर आने के दो दिन बाद फिर वही। मैंने घर में उठा-पटक मचाई। इतनी छोटी लड़की के पास कितनी ताकत होगी? मगर परिजनो ने बताया कि मैंने बड़े-बड़े एक कोने से उठाकर दूसरे कोने में पटक दिए, दरवाजे को तोड़ दिया और बाहर जाकर आंगन में लगे बादाम के पेड़ पर चढ़ गई और वहां से हंसने लगी।

पूरा गांव इकट्ठा हो गया था। किसी तांत्रिक को बुलाया गया। उशने कुछ जाप पढ़े तो कहते हैं कि मैं पेड़ से कूदी और जंगल की तरफ भागने लगी। आगे-आगे मैं थी औऱ पीछे-पीछे तात्रिक और गांव। रास्ते में कहीं मैं ठोकर खाकर गिरी औऱ बेहोश हो गई। मुझे घर लाया गया। वहां कोई तांत्रिक प्रक्रिया की गई और मेरा कथित तौर पर ‘इलाज’ शुरू किया गया। कहते हैं कि मैंने तांत्रिक के पूरे खानदार का नाम ले लिया औऱ उसे कहा कि कुछ भी कर ले, मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।

परिजनों ने बताया कि उस तांत्रिक ने मुझे पीटा-मारा और पूछा कि कौन हूं। इस पर मैंने जवाब दिया कि मैं ******** हूं और मुझे ये लड़की यहां लाई है, मैं कहीं नहीं जाऊंगी। इस पर उसने कुछ मंत्र फूंके और कहा कि चली जा, बदले म क्या चाहती है। कहते हैं कि मैंने कहा कि मैं जाऊंगी तो सही, मगर इसकी जान लेकर जाऊंगी। तो तांत्रिक (चेले) ने कहा कि मैं जान तो इसकी नहीं, मगर तेरी ले लूंगा। भलाई इसमें है कि कुछ औऱ चाहती है तो बता। कहते हैं कि इस पर मैंने मैंने एक काली मुर्गी मांगी। इसके बाद अगली सुबह 4 बजे काली मुर्गी का इंतजाम किया गया और सुबह मेरे को खड्ड में कहीं ले जाकर कुछ पूजा-पाठ किया गया और वहीं पर काली मुर्गी का सिर काटकर उसे छोड़ दिया गया।

अब मैं जो कहने जा रही हूं, वह मेरी याद में ताजा है। मुझे अहसास हुआ कि मैं कहां हूं। मैं अंधेरे मे हूं और कुछ लोग मेरे पास हैं। मैं घबराई। इतने में मेरे पापा औऱ चाचा ने मुझे कहा कि बेटा घबरा मत हम हैं। मैं हैरान थी। मुझे ऐसा लगा कि मैं तो आईने के साथ खेल रही थी और अगले ही पल इस अंधेरी जगह पर हूं। यानी मुझे आईने में वह अजीब चेहरा दिखने से लेकर सुबह अजीब जगह लाकर मुर्गी का सिर काटने के बीच कुछ पता नहीं था। मैं कहां थी, मुझे नहीं पता।

बाद में बताया गया कि मुझमें कोई बुरी आत्मा का साया आ गया था और इस बीच वही मेरे शरीर मे काबिज रही। मुर्गी की बलि देकर उसे संतुष्ट करके मेरे शरीर से निकाला गया। उसके बाद मैं नॉर्मल हो गई। न मुझे कुछ अजीब लगा न मेरे परिजनों को। मैं रोज की तरह स्कूल जाती। हां, चंपा ने मेरे साथ आना-जाना छोड़ दिया, मगर बाकी गांव के बड़े बच्चे मेरा पूरा ख्याल रखते। फिर मेरे साथ कोई घटना नहीं घटी।

मैं पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकती कि मेरे साथ क्या हुआ था, क्योंकि बीच के कुछ दिनों के बारे मे री याद्दाश्त नहीं है। बीच में जो कुछ हुआ, वह मेरी दादी और मां ने मुझे बताया बाद में कि मेरे साथ ऐसा हुआ था। मैं तो ठीक हो गई, मगर एक दिन एक अजीब घटना घटी। एक दिन मैं स्कूल से घर लौटी, तो देका कि मेरी बुआ मेरे घर आई हुई है। उनके साथ उनकी 17 साल की बेटी मोनू भी आई हुई थी। घर पहुंचकर मैंने देखा कि मोनू कोने में चुपचाप बैठकर अपनी गोद में देखकर मुस्कुरा रही है। मैंने उसे उत्साह में जाकर बोला मोनू…. मैं खुश थी कि वो आई थी बड़े दिनों बाद। मगर उसने मेरी आवाज नहीं सुनी। पास जाकर मैंने देखा कि उसकी गोद में वही शीशा रखा हुआ है, जो मैंने उस दिन खड्ड से उठाया था।

पढ़ें: उस कोठी में कुछ तो अजीब था

किस्सा लंबा है, इसलिए दो हिस्सों में बांट दिया है। आगे का घटनाक्रम कुछ दिन बाद। जिसमें आप जानेंगे कि आगे क्या हुआ।

(लेखिका मूलरूप से हिमाचल के बिलासपुर की हैं और इन दिनों परिवार के साथ न्यू जीलैंड में बसी हुई हैं। वह पहली लेखिका हैं, जिन्होंने नाम या पता छिपाने की अपील नहीं की)

Exit mobile version