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‘पहले सपनों में आई और फिर पेड़ पर रुमाल टांग गई वो बूढ़ी महिला’

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प्रस्तावना: हिमाचल प्रदेश के गाँव-कस्बों में पहले संयुक्त परिवार जब फ़ुरसत के समय बैठा करते थे, तब खूब किस्से-कहानियां सुनाते थे। इन क़िस्सों के बीच भूत-प्रेत की कहानियाँ भी होती थीं जिन्हें कुछ लोग अपने साथ घटी सच्ची घटनाएँ बताकर सुनाया करते थे। उनके दावों में कितनी सच्चाई होती थी, ये तो वो ही जानते होंगे। मगर रोमांचक कहानियों को पढ़ने-सुनने या देखने में मज़ा तो आता ही है। इसीलिए आज भी हॉरर फ़िल्में और वेबसिरीज़ खूब पसंद की जाती हैं। इसी बात को देखते हुए इन हिमाचल ने पाँच साल पहले हॉरर एनकाउंटर सीरीज़ शुरू की थी जो बहुत सारे पाठकों को पसंद है। इन पाठकों से आ रहे बहुत सारे संदेशों पर विचार-विमर्श करने के बाद हमने फिर इस सिरीज़ को शुरू करने का फ़ैसला किया है।

पाठक हमें लगातार कहानियाँ भेज रहे हैं मगर हमने फ़ैसला लिया है कि उनके द्वारा भेजी गई जगहों की डीटेल्स को छिपा देंगे। यानी किस गाँव में या किस इमारत में क्या हुआ, यह नहीं बताएँगे। लोगों के नाम तो हम पहले भी छिपा ही रहे थे। ऐसा इसलिए ताकि किसी भी जगह को लेकर बिना वजह डर का माहौल न बने। क्योंकि इन कहानियों को छापने का मकसद यह दावा करना नहीं है कि भूत-प्रेत वाकई होते हैं। हम अंधविश्वास फैलाने में यकीन नहीं रखते। हमें खुशी होती है जब हॉरर कहानियों के पीछे की संभावित वैज्ञानिक वजहों पर आप पाठक चर्चा करते हैं। इसलिए इन्हें मनोरंजन के लिए तौर पर ही पढ़ें।

आज की कहानी हमें भेजी है शालिनी ने जो इन दिनों बेंगलुरू में बिज़नस एनालिस्ट हैं। वह भी चाहते हैं कि आप इन कहानियों को काल्पनिक मानकर ही पढ़ें ताकि बिना वजह डर या अंधविश्वास का प्रसार न हो। तो आगे पेश हैइन हिमाचल’ की बेहद लोकप्रिय ‘हॉरर एनकाउंटर’ सीरीज़ के पाँचवें सीज़न की दूसरी कहानी-

ये उन दिनों की बात है जब मैं स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली गई थी। पहली बार घर से बाहर निकलना पड़ा था तो याद भी बहुत आती थी। जब भी मौका मिलता मैं बस पकड़ती और हिमाचल चली आती। महीने में एक चक्कर तो मेरा पक्का लगता था।

पढ़ाई के बाद नौकरी भी उसी शहर में लग गई मगर महीने में एक बार घर आने का सिलसिला नहीं चूका। जब भी मन होता, बिना बुकिंग करवाए आईएसबीटी पहुंचती और जो बस घर की ओर जा रही होती, उसे पकड़ लेती। कई बार रास्ते में दो-तीन अड्डों पर बसें बदलनी पड़तीं तो लेट हो जाती।

फिर मुख्य सड़क से मेरा गांव चार किलोमीटर दूर है। मगर बचपन में स्कूल आने-जाने से लेकर मुख्य कस्बे तक कई बार उसी रास्ते से आई-गई थी। आधे रास्ते में घर थे मगर बीच में एक खड्ड पड़ती थी। खड्ड को पार करने के लिए पहले उतराई में जाना पड़ता, एक छोटी सी पुलिया पार करनी पड़ती और फिर चढ़ाई चढ़कर कुछ दूर चलने पर फिर लोगों के घर आ जाते।

ये आज से 10 साल पहले की बात है। होली पर घर जाने का कोई प्लान नहीं था मगर आखिरी समय में न जाने क्या लहर उठी कि इस बार तो होली घर पर ही मनानी है। होली दो दिन बाद थी। ऑनलाइन बुकिंग करवाई नहीं थी तो बस मिलने में भी संकट होना था। फिर भी आईएसबीटी पहुंच गई।

वहां हिमाचल जाने वालों की भारी भीड़ थी। सभी बसें भरी हुई थीं। मगर घर जाना था तो जाना था। सीटीयू की बस से चंडीगढ़ गई। रात को चंडीगढ़ में पता चला कि वहां हिमाचल के लिए बस सुबह जानी है और वो भी हरियाणा रोडवेज की। फिर सुबह होते ही वो बस पकड़ी और चल पड़ी हिमाचल की ओर। बस ठसाठस भरी हुई थी। शुक्र था कि मुझे सीट मिल गई थी। बाकी लोगों के खड़े होने के लिए भी जगह नहीं थी।

बस धीमी रफ्तार में चल रही थी। थी तो तेज मगर उस रफ्तार में नहीं चल रही थी जिस रफ्तार पर हरियाणा रोडवेज की बसें चलती हैं। लोगों को जगह-जगह उतारा गया तो और लेट हो गई। जब मैं अपने कस्बे में उतरी तो साढ़े 11 बज गए थे। मेरे पास एक लैपटॉप बैग और एक छोटा डफल बैग था। घर वालों को कह दिया था कि खुद ही आ जाऊंगी।

तो मैं पैदल चल दी गांव की ओर। रास्ते में चल रही थी कि एक जगह डफल बैग का स्ट्रैप टूटा और वो कीचड़ में गिर गया। मैंने जैसे तैसे उसे एक ओर से पकड़ा और फिर चलने लगी। बैग को संभालने में मुश्किल हो रही थी। इतने में खड्ड से पहले उतराई में मेरा पैर किसी ढीले पत्थर पर पड़ा और मैं गिर पड़ी। बचने के लिए मैंने हाथ आगे किया तो उसमें थोड़ी चोट आ गई।

मैंने कपड़े झाड़े, बैग उठाया और देखा कि लैपटॉप को कोई नुकसान तो नहीं हुआ। इतने में अहसास हुआ कि हाथ से खून निकल रहा है। मैंने उसे रुमाल से दबाया कुछ देर और वहीं बैठी रही। फिर हिम्मत जुटाकर चल दी। नीचे खड्ड के पास पहुंची तो सोचा कि पुलिया पार करके खड्ड में उतरती हूं और खून से सने हाथ को धो लेती हूं। थोड़ी जलन भी हो रही थी। तो मैंने डफल बैग को पुलिया की रेलिंग से बांधा और लैपटॉप बैग को लेकर सावधानी से खड्ड में उतर गई।

किनारे पर बैठकर मैंने जूते उतारे, रुमाल को एक ओर रखा और एक पत्थर पर जाकर बैठ गई। हाथ को मैंने ठंडे पानी में डुबोया तो थोड़ी राहत मिली। मैंने सोचा कि खून के दाग वाले रुमाल को भी धो लूं ताकि पक्के निशान न पड़ जाएं। लेकिन तभी पीछे से आवाज सुनाई दी- क्या लगियो मुनिए करना एथु? (लड़की, क्या कर रही हो यहां?)

मैं चौंकी और पीछे मुड़कर देखा तो एक बूढ़ी सी महिला, एकदम सफेद कपड़े पहने हुए मेरी ओर बढ़ी चली आ रही थी। मैंने आसपास देखा, दूर-दूर तक और कोई नहीं था। मैंने सुना हुआ था कि भरी दोपहर में खड्ड, नालों या एकांत जगहों पर नहीं जाना चाहिए था। अचानक मेरा ध्यान गया कि पुलिया से कुछ मीटर दूरी पर श्मशान घाट भी है। मैंने घड़ी का टाइम देखा तो 12 बजकर कुछ ही मिनट हुए थे।

प्रतीकात्मक तस्वीर

मेरे गला सूख गया और चक्कर आने लगा। मैंने बूढ़ी महिला को देखा तो वो मुस्कुराते हुए मेरी ओर बढ़ी जा रही थी। मैं खुद में सोच रही थी कि ये क्या ये भूत है, चुड़ैल है, क्या है? मैंने सुना था कि चुड़ैलों के पैर उल्टे होते हैं। मैंने महिला के पैरों की ओर देखा तो उसकी सलवार के पोंचे इतने नीचे थे कि पैर नजर ही नहीं आ रहे थे।

मैं इसी सोच में डूबी हुई थी कि महिला ने पूछा- क्या करा दी मुनिए, एथु.. देह टैमा (लड़की, यहां पर क्या कर रही है इस समय)।

मैंने कहा कि जी कुछ नी बस मैं गिर गई थी तो हाथ धोने आई हूं। इतने में वो महिला मेरे और करीब आई और सामने बैठ गई। बोली- दस भला हाथे, लगी ता नी? (हाथ दिखाना जरा, चोट तो नहीं लगी)। मैंने कहा कि नहीं लगी चोट। तो महिला बोली- ता ए कपड़े ता ध्रेसले होई गैयो (तो ये कपड़े तो तुम्हारे खून से सन गए हैं)। महिला ने मेरी कमर की ओर इशारा किया। मेरा ध्यान ही नहीं गया था कि खून की बूंदें कलाई से रिसकर मेरी टीशर्ट में लग गई थीं।

मैं डर गई, बहुत बड़े दाग़ थे। मैं खून से डरती तो नहीं थी मगर येलो शर्ट पर बहुत सारे दाग देखकर, बुढ़िया की मौजूदगी से पैदा हुए खौफ के कारण दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं, सांस लेने में दिक्कत होने लगी और मैं बेहोश हो गई।

जब मुझे होश आने लगा तो ऐसा महसूस हुआ कि किसी ने मुझे पकड़कर उठाया हुआ है और चल रहा है। क्योंकि मुझे पेट पर दबाव महसूस हो रहा था। नींद खुली तो देखा कि नीचे रास्ता पीछे की ओर जा रहा है। यानी वाकई किसी ने मुझे कंधे पर उठाया हुआ था।

मैं जोर से चिल्लाई तो जिसने मुझे उठाया था, उसने जमीन पर रखा। मैंने घबराकर देखा कि मुझे उठाने वाला शख्स एक पुरुष था और उसके साथ दो महिलाएं भी थीं। उनमें से एक ने मेरा डफल बैग उठाया था और दूसरी ने हाथ में दरातियां और मेरा लैपटॉप बैग। एक महिला बोली- ‘डर मत मुनिए, तो फ्लांणे दी बेटी है ना?’ (डरो मत, तुम फ्लां व्यक्ति की बेटी हो न?)

प्रतीकात्मक तस्वीर

मैंने घबराकर कहा कि हां। तो वो बोली कि ‘जब हम लोग घास काटने जा रहे थे तो तुम पुल पर बेहोश पड़ी मिली। क्या हुआ था?’ मैंने कहा कि मैं रास्ते में जा रही थी तो पैर फिसल गया था।

महिला ने कहा, तभी तुम्हें चक्कर आ गया होगा। हमने तुम्हें होश में लाने की कोशिश की मगर तुम्हें होश नहीं आया। हम लोग डर गए थे। ये तो तुम्हारे बैग में तुम्हारा कार्ड मिला तब पता चला कि बगल वाले गांव की हो। ये मेरे पति हैं और ये सास। हम यहीं पास के गांव में रहते हैं और तुम्हारे परिवार को जानते हैं। हमने प्रधान को भी फोन कर दिया है। हम तुम्हें उठाकर तुम्हारे घर ही ले जा रहे थे।

मैं डरी हुई थी और कुछ समझ में नही आ रहा था। सोचा कि अपना मोबाइल लेकर घर पर फ़ोन करूँ। मगर इतना तनाव सा हुआ कि फिर बेहोश हो गई। अगली बार होश आया तो अपने घर पर थी। मम्मी पापा और परिवार के लोग आसपास थे और अस्पताल ले जाने की तैयारी में थे। उन्होंने मेरी तबीयत पूछी। मैंने कहा कि ठीक है। उन्होंने पूछा कि हुआ क्या था। मैंने यही कहा कि रास्ते में चलते हुए गिर गई थी।

घरवालों को चिंता हुई कि कहीं सिर वगैरह में चोट न आई हो। उन्होंने बताया कि बगल के गांव के लोग मुझे कंधे पर उठाकर घर तक लेकर आए हैं। उन्हें मैं रास्ते में पड़ी हुई मिली थी और फिर होश में आने के बाद एक बार फिर बेहोश हो गई थी। मैंने घरवालों को बताया कि मेरे सिर पर बिल्कुल चोट नहीं लगी, सिर्फ हाथ में लगी है।

मैंने उन्हें बताया कि मेरे साथ हुआ क्या था। मैंने बताया कि हाथ में चोट लगने पर मैं खड्ड में गई थी ताकि जख्म को पानी से धो सकूं। इतने में एक सफेद बालों और कपड़ों वाली बूढ़ी आई थी जो मेरे से बातचीत करने लगी थी। इसके बाद मैं बेहोश हो गई थी, शायद डर के मारे। या इसलिए भी क्योंकि रात भर अनकम्फर्टेबल होकर सफर किया था और सुबह ब्रेकफास्ट भी नहीं किया था।

घर वालों ने पूछा कि कौन बूढ़ी आई थी। मैंने कहा कि पता नहीं, कोई थी जो मेरे से पूछ रही थी कि मैं इतनी दोपहर को खड्ड में क्या कर रही हूं। घरवाले डरे कि वो कौन महिला थी, जिसके सामने मैं अगर किसी कारण बेहोश भी हुई तो उसने बाकी लोगों को क्यों नहीं बताया।

घरवाले इस बात से भी परेशान थी कि अगर मैं खड्ड के किनारे बेहोश हुई थी तो मेरी मदद करने वाले लोगों को मैं पुल पर कैसे मिली थी। अगर उस बूढ़ी महिला ने मुझे उठाकर रास्ते में रखा था तो वो वहीं छोड़कर क्यों चली गई थी। मदद के लिए उसने किसी और को क्यों नहीं बुलाया।

प्रतीकात्मक तस्वीर

इतने में परिवार के लोग कमरे से बाहर चले गए और बाहर धीमी आवाज में बात करने लगे ताकि मुझे सुनाई न दे। मगर मैं उठी और दरवाजे के पास जाकर खड़ी हो गई। मैंने सुना कि वे लोग शक जता रहे थे कि शायद वो कोई आत्मा थी जो मेरे पास खड्ड में आई थी। घरवाले किसी तांत्रिक को बुलाने की योजना बना रहे थे।

मैंने तुरंत दरवाजा खोला और कहा कि भूत-प्रेत, तांत्रिकों के चक्कर में मत पड़ो। वो पास के गांव की कोई महिला होगी जो पशुओं को चरा रही होगी वहीं कहीं। या फिर किसी और काम से वहां आई होगी और मुझे अकेली देख मेरे पास चली आई होगी। हो सकता है मेरे बेहोश होने पर उसी ने मुझे पुल तक छोड़ा होगा और फिर मदद के लिए लोगों को बुलाने कहीं गई हो। इससे पहले कि वो मदद ला पाती, वो तीन लोग वहां से गुजरे और मुझे उठाकर यहां ले आए। इसलिए खुद भी मत डरिए और मेरे मन में भी वहम मत डालिए।

घरवाले चुप हुए और अपने काम में लग गए। चाची मुझे गांव की डिस्पेंसरी ले गईं जहां पर मेरे हाथ में लगी चोट को लिक्विड से साफ किया गया और इसे खुला रखने को छोड़ा गया क्योंकि घाव गंभीर नहीं था और ब्लीडिंग भी रुक चुकी थी। मैं फिर से घर आई और रेस्ट करने के लिए सो गई।

शाम को एक बेहद डरावने सपने के साथ मेरी नींद खुली। सपने में वही बूढ़ी महिला मुझे मुस्कुराते हुए दिखाई दी। उसने पहाड़ी में कहा- बिटिए, तू अपना कुछ भुलि गेई (बेटी, तू अपना कुछ सामान भूल गई है)। इतने में मेरी नींद खुल गई। पसीने से तर-ब-तर हो चुकी थी। खैर, मैंने इसे डरावना सपना माना और उठकर बैग से सामान वगैरह निकालकर रखने लगी।

प्रतीकात्मक तस्वीर

रात को डिनर किया और सो गई। रात को फिर वह महिला सपने में दिखी। उसने कहा- बिटिए, अपणा समान नि छडणा चाहिंदा वीरानी जगह। केई कुछ होंदा जेढ़ा नुकसान करी सकदा। (बेटी, अपना सामान वीरानी जगह नहीं छोड़ना चाहिए। बहुत सारी चीज़ें होती हैं जो नुकसान कर सकती हैं।)

आगे उस सफेद बालों और सफेद कपड़ों वाली बूढ़ी ने कहा, “फिकर मत करदी, मैं संभाली ने रखया तेरा समान। (फिक्र न करना, मैंने तुम्हारा सामान संभालकर रखा है।)” ये कहकर उस बूढ़ी ने मुस्कुराते हुए हाथ आगे की ओर बढ़ाया और एक रुमाल दिखाया। ये मेरा फेवरिट रुमाल था। वही रुमाल, जो गिरने पर मैंने अपनी चोट पर लगाया था।

ये देखकर फिर मेरी नींद खुल गई। मैं सोचने लगी कि मेरा वो रुमाल कहां है। वाकई वो रुमाल मेरे सामान में नहीं था। मुझे याद आया कि उस रुमाल को मैंने धोने के लिए पत्थर पर रखा था मगर बुढ़िया के आने के कारण मैं बेहोश हो गई थी और वो बाद में लोग मुझे उठाकर घर ले आए। वो रुमाल खड्ड में ही रह गया था शायद।

खैर, मैंने करवटें लेकर नींद लेने की कोशिश की मगर आई नहीं। अलगी सुबह होली थी। सब लोग होली खेलने गए। मैं लड़की हूं फिर भी बचपन से भाई-बहनों के साथ होली की टोली में शामिल होती हूं। पूरे गांव में हमने जमकर होली खेली और फिर रात को होलिका दहन के लिए घर के पास खेतों में लगाई झाड़ियों की ढेरी के पास गए। हम चार परिवार मिलकर होलिका इकट्ठी करते हैं और फिर आग लगाते हैं। घर के सारे लोग वहीं थे। इतने में छोटे भाई ने कहा कि हमने इसमें पटाखे तो डाले ही नहीं। उसने मुझसे कहा कि मैं वापस घर जाकर सीढ़ियों के नीचे रखे बैग से पटाखे ले आऊं। मैं दौड़ती हुई घर गई और सीढ़ियों के नीचे लिफाफे खोलकर देखने लगी कि पटाखों को लिफाफा कौन सा है। इतने में फिर कानों में जानी-पहचानी आवाज सुनाई दी- मुनिए… (बेटी)

मैंने पीछे मुड़कर देखा तो वही महिला मेरे आंगन के बाहर पेड़ों के पास खड़ी थी। मैं सन्न… मुंह से कुछ नहीं निकल रहा था, दिल चेहरे पर धड़कता हुआ महसूस हो रहा था। बूढ़ी बोली- सुण, ए लै तेरा रुमाल (सुनो, ये लो तुम्हारा रुमाल)। ये कहते हुए बूढ़ी ने अपना हाथ उठाया जिसमें उसने रुमाल पकड़ा हुआ था। ये मेरा ही रुमाल था। बूढ़ी ने वो रुमाल पेड़ की कटी हुई टहनी से बनी खूंटी में फंसाया और मुस्कुराकर घूमी और धीरे-धीरे चलते हुए अंधेरे में गुम हो गई।

प्रतीकात्मक तस्वीर

मैं चीखना चाहती थी मगर चीखी नहीं। क्योंकि चीखती तो घरवालों को सारी बात बतानी पड़ती और ऐसा करती तो वो मुझे तांत्रिकों के चक्कर में डाल देते। मैं डरते डरते उस रुमाल के पास गई और नजदीक से देखा तो पाया कि मेरा ही रुमाल था। मैंने एक डंडी से उस रुमाल को उठाया, पटाखों वाले लिफाफे में डाला। और दौड़ती हुई होलिका दहन वाली जगह गई और उस लिफाफे को बीच में फेंक दिया।

भाई नाराज हुआ कि पटाखों को अलग-अलग जगह डालने के बजाय मैंने पूरा लिफाफा एक ही जगह खाली कर दिया। होलिका को आग लगाई गई। ऊंची-ऊंची लपटें उठ रही थीं। मेरा ध्यान उस हिस्से पर था जहां वो रुमाल वाला लिफाफा गिरा था। कुछ ही पलों में वहां भी आग पहुंची और पूरी होलिका धू-धू करके जलने लगी। पटाखों की आवाज बता रही थी कि उस लिफाफे में आग लग चुकी है और रुमाल भी जल गया होगा।

मैंने चैन की सांस ली। वापस आकर नल के पास हाथ-पैर धोए, डिनर किया और फिर सोने की कोशिश करने लगी। न जाने कब नींद आ गई। फिर सपना आया। उसी महिला का। सफेद बालों और सफेद कपड़ों वाली महिला ने कहा- ‘मुनिए, खरा कित्ता फुक्कीता. ए ता मैं हे जाणदी किंया बचाया मैं ए तिन्हां ते। अगर ए तु अपणे बाल रखदी भी तां तिन्हा तेरा पिच्छा नी छडणा था। बस हुण इक कम करयां, दोबारा तिस रस्ते मद जांदी। सै तेरी मुस्क जाणदे हुण। बाकी फिकर मर करदी।’ (बेटी, अच्छा किया जो रुमाल जला दिया। ये तो मैं ही जानती हूं कि मैंने उन लोगों से कैसे बचाया इसे। अगर तू इसे अपने पास रखती तो भी वो तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ते। बस एक काम करना, दोबारा उस रास्ते से मनत जाना। उन्हें अब तुम्हारी गंध मालूम है। बाकी फिक्र मत करना)

फिर मैंने देखा कि बूढ़ी महिला उड़ती हुई कहीं चली गई। मेरा सपना टूट गया।

ये आखिरी सपना था उस महिला का। मुझे नहीं पता कि वो सपने क्यों आए और उस दिन के बाद क्यों नहीं आए। मुझे ये भी नहीं पता कि वो महिला कौन था। असल में थी या डर व चोट लगने के कारण मेरे दिमाग ने उसे इमैजिन कर लिया। या फिर सामान्य महिला को मैंने डर के कारण कुछ और समझ लिया और फिर उसी के सपने आने लगे। मगर वो रुमाल का गुम होना और फिर पेड़ के पास बुढ़िया द्वारा लौटा जाना क्या था? क्या वो भी कल्पना थी? बिल्कुल नहीं। मेरे लिए तो बिल्कुल नहीं।

मैं आज तक सोचती हूँ कि वो किन लोगों की बात कर रही थी और कौन लोग मेरी गंध पहचान गए थे। आज लगता है कि 10 साल पहले मेरे साथ जो हुआ, वो छलावा था। मगर फिर भी डर लगता है। और बाक़ी मामलों में मैं कितनी भी आत्मनिर्भर और मज़बूत क्यों न होऊँ, मगर आज तक हिम्मत नहीं हुई उस रास्ते से चलने की। लोगों के साथ भी मैं उस रास्ते से नहीं गुजरी। हमेशा दूसरे रास्तों से होकर जाती हूं ताकि वो खड्ड पार न करनी पड़े।

DISCLAIMER: इन हिमाचल’ पिछले चार सालों से ‘हॉरर एनकाउंटर’ सीरीज़ के माध्यम से हिमाचल प्रदेश से जुड़े भूरोमांचक किस्सों को जीवंत रखने की कोशिश कर रहा है। ऐसे ही किस्से हमारे बड़े-बुजुर्ग सुनाया करते थे। हम आमंत्रित करते हैं अपने पाठकों को कि वे अपने अनुभव भेजें। इसके लिए आप अपनी कहानियां inhimachal.in @ gmail.com पर भेज सकते हैं। हम आपकी भेजी कहानियों को जज नहीं करेंगे कि वे सच्ची हैं या झूठी। हमारा मकसद अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है। हम बस मनोरंजन की दृष्टि से उन्हें पढ़ना-पढ़ाना चाहेंगे और जहां तक संभव होगा, चर्चा भी करेंगे कि अगर ऐसी घटना हुई होगी तो उसके पीछे की वैज्ञानिक वजह क्या हो सकती है। मगर कहानी में मज़ा होना चाहिए और रोमांच होना चाहिए।यह एक बार फिर स्पष्ट कर दें कि ‘In Himachal’ न भूत-प्रेत आदि पर यकीन रखता है और न ही इन्हें बढ़ावा देता है।

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