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बस इतना बता दें कि आपको हिमाचल में जमीन क्यों खरीदनी है?

(पत्रकार आदर्श राठौर के ब्लॉग से साभार) मैं पिछले 14 साल से दिल्ली में रह रहा हूं। हर साल कम से कम 50 लोग ऐसे मिल जाते हैं जो पूछते हैं- आपके यहां बाहर के लोग जमीन नहीं खरीद सकते न? उनमें से कम से कम 10 लोग ऐसे होते हैं जो हिमाचल में जमीन खरीदने के इच्छुक होते हैं। जब भी पूछता हूं कि आप हिमाचल में जमीन क्यों लेना चाहते हैं तो अधिकतर का जवाब होता है- जन्नत है यार हिमाचल, वहां एक छोटा सा घर हो तो मजा आ जाए।

इस हिसाब मैं सोचता हूं कि कितने सारे लोग होंगे जो इसी तरह इस ‘जन्नत’ में बसने का ख्वाब देखते होंगे और उनमें से कितने सारे जमीन खरीदने की हैसियत भी रखते होंगे। जो लोग हिमाचल में बसना चाहते हैं, वे ऊना, बिलासपुर, देहरा, नूरपुर, नालागढ़, जाहू, नगरोटा या सुजानपुर की बात नहीं कर रहे होते। वे जमीन चाहते हैं शिमला, कु्ल्लू, मंडी, सोलन, चंबा और किन्नौर के पहाड़ी इलाकों में।

आज जितने भी लोग हिमाचल में जमीन खरीदने के इच्छुक हैं, वे ऐसी इच्छा न जताते अगर हिमाचल में धारा 118 न होती। क्योंकि हिमाचल में पहले से ही भीड़-भड़क्का होता, जिस पहाड़ी में देखो, वहां इमारतों की भरमार होती, उन इमारतों को बनाने के लिए खड्डों और नदी नालों को रेत-बजरी के लिए खोखला कर दिया गया होता। हिमाचल की ईकोलॉजी बुरी तरह प्रभावित हो गई होती और सबसे बड़ी बात, न तो आबादी मात्र 68 लाख होती और न ही यह छोटा सा पहाड़ी राज्य कम जनसंख्या के चलते तेजी से विकास की राह पर बढ़ रहा होता।

Image courtesy: Himachal Watcher

कुछ लोग कहते हैं कि जब हिमाचल के लोग अन्य जगह जाकर जमीन ले सकते हैं तो हिमाचल में बाहरी लोगों के लिए पाबंदी क्यों है। उनके लिए मेरा जवाब है- यह पाबंदी है, इसीलिए हिमाचल इतना खूबसूरत बचा हुआ है कि आपको यहां लगी पाबंदी अखर रही है। अगर यहां के हरे-भरे और कम आबाद इलाकों में भी शिमला की तरह कंक्रीट के जंगल खड़े हो जाते तो  क्या आप यह कहते कि यार मुझे हिमाचल जाना है, मैं ग्रेटर नोएडा वेस्ट के ऊंचे टावर की 17वीं मंजिल से दूसरे टावरों को देखकर थक चुका हूं, अब हिमाचल जाकर वहां के पहाड़ों पर बनी इमारतें देखनी हैं, वहां जाकर गर्मी महसूस करनी है?

कुछ लोगों को मेरी चिंता बेमानी लग सकती है मगर बहुत से लोग मेरी बात से सहमत होंगे क्योंकि वे जानते हैं कि पहाड़ों की हालत कैसी हो गई है। अभी जब तथाकथित बाहरी लोगों के जमीन खरीदने पर सख्ती है, उसके बावजूद धर्मशाला, मनाली, मंडी और शिमला में बहुत सारे होटेल और रिजॉर्ट दिल्ली और पंजाब वालों के हैं। या तो उन्होंने जमीन को या होटलों को लीज़ पर लिया है या फिर अपने किसी हिमाचली परिचित के नाम काम चला रहे हैं। इसके अलावा संपन्न हिमाचली भी अंधाधुंध और बेतरतीब निर्माण में जुटे हैं।

आज जो हम बची-खुची जन्नत देख पा रहे हैं, उसका सीधा श्रेय धारा 118 को जाता है। यह धारा न होती तो आज जहां लोग ट्रेकिंग पर जाते हैं, वे जगहें पॉप्युलर हनीमून डेस्टिनेशंस होतीं। कल्पना कीजिए अगर हिमाचल में सीधे जमीन खरीदने पर लगी रोक हट जाए, संपन्न लोग मुंहमांगी कीमत देने को तैयार हो जाएं तो आपके गांव के कितने सारे लोग (या आप खुद) उछलते-कूदते अपनी जमीन बेचने के लिए तैयार हो जाएंगे?

अब कुछ लोग कहेंगे कि कोई बेचना चाहता है यह उसका अपना मैटर है। लेकिन मेरा मानना है कि यह दो व्यक्तियों के बीच के सौदे का नहीं बल्कि पर्यावरण संरक्षण का भी मसला है। ऐसा इसलिए क्योंकि हिमाचल प्रदेश में पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कानूनों का पालन तो ढंग से हो नहीं रहा है। लोग मनमानी कर ही रहे हैं। ऐसे में धारा 118 ही है जो इस मनमानी की रफ्तार को कम किए हुए है, जमीनों की बिक्री और उसपर निर्माण पर लगाम लगाए हुए है और पर्यावरण के संरक्षण में अहम भूमिका निभा रही है। यह कोई बहुत आदर्श स्थिति नहीं है मगर धारा 118 की गेट कीपिंग अब तक तो हिमाचल के लिए मददगार ही रही है।

ऐसी खबरें समय समय पर सामने आती रहती हैं।

अचानक यह सवाल इसलिए उठा क्योंकि संसद में 370 पर चर्चा के दौरान कई बार हिमाचल प्रदेश का जिक्र हुआ। जब संसद में अनुच्छेद 370 पर चर्चा चल रही थी तब कई लोगों ने चिंता जताई कि इसके हटने से तो कोई भी ज म्मू, क श्मीर और लद्दाख में जाकर जमीन ले लेगा जिससे वहां के पर्यावरण और प्राकृतिक सौंदर्य को खतरा हो सकता है। इसके जवाब में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा- “370 हटते ही वहां भारत के अन्य कानून लागू हो जाएंगे, चिंता न करें। भारत में पर्यावरण संरक्षण के लिए पहले से कानून है।”

मुझे इस बात को सुनकर हंसी आई क्योंकि हिमाचल में भी देश के कानून पहले से ही लागू हैं। मगर क्या उनका पालन हो रहा है? नेताओं के बेटे खुलकर खड्डों में खनन कर रहे हैं, कुछ बिना परमिट क्रशर चलाते रहे, कुछ नेताओं के रिश्तेदार नियमों को ताक पर रखकर अवैध निर्माण करते हैं और उस पर एनजीटी की ओर से आपत्ति आती है तो राज्य सरकारें कानून बदल देती है। ऐसे हालात में कोई क्या उम्मीद रखे? मैं तो कहता हूं कि ज म्मू-क श्मीर और लद्दाख में भी धारा 118 जैसी व्यवस्था होनी चाहिए।

जो लोग तर्क दे रहे हैं कि जमीन न खरीदने देने से विकास रुक जाता है, वे बताएं कि जहां जमीनें खरीदने-बेचने की खुल्लमखुल्ला छूट है, वहां कौन सा विकास के कीर्तिमान स्थापित हुए हैं? हिमाचल में जब अभी ही हालात पर नियंत्रण नहीं है तो 118 के हटने के बाद जब बड़ी संख्या में संपन्न लोग यहां जमीनें खरीदेंगे, निर्माण करेंगे, चारों ओर कंक्रीट की इमारतें खड़ी होंगी। तब हिमाचल की हालत की हालत नेपाल के चुरे पर्वत वाले इलाके जैसी हो जाएगी जिसकी ऐसी-तैसी हो चुकी है।

ऐसे सौंदर्य को है खतरा

है क्या धारा 118
हिमाचल प्रदेश ने साल 1972 में टेनेंसी ऐंड लैंड रिफॉर्म्स ऐक्ट बनाया था जिसमें धारा 118 के तहत एक विशेष प्रावधान किया गया था। इसके तहत हिमाचली कृषकों के अलावा और किसी को भी हिमाचल की लैंड ट्रांसफर किए जाने पर रोक लगा दी गई। इस धारा को जोड़ने का मकसद यह था कि तब हिमाचल नया-नया बना था और यहां के लोगों की आर्थिक सामाजिक स्थिति कमजोर थी। यह देखा जाने लगा था कि पड़ोस के राज्यों के और यहां आकर बस गए संपन्न लोग औने-पौने दाम में गरीब हिमाचलियो की जमीनें खरीद रहे थे।

हिमाचल के संस्थापक कहे जाने वाले पहले मुख्यमंत्री डॉक्टर यशवंत सिंह परमार के पास ऐसे कुछ मामले आए जहां किसानों के साथ ठगी हो गई थी। ये कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ लोग कम दाम में अपनी जमीनें बेच चुके थे और फिर उससे मिले पैसे को भी उड़ा चुके थे। आमदनी का कोई स्रोत था नहीं, गुजारे लायक जमीन भी जा चुकी थी। अब उनके सामने खाने तक के लाले पड़ गए थे। ऐसे मामले बढ़ रहे थे कि लोगों ने बिना कुछ पढ़े बस अंगूठा लगा दिया या फिर पैसा आता देख आंख मूंदकर हस्ताक्षर कर दिए।

ऐसे में धारा 118 यह सुनिश्चित करती थी कि लोगों के साथ ऐसी ठगी न हो पाए। इसे सख्त बनाते हुए यह प्रावधान भी किया गया था कि हिमाचल का ही कोई शख्स अगर यहां पहले से खेती वाली जमीन का मालिक नहीं है तो वह भी कृषि योग्य जमीन नहीं खरीद सकता। यह माना गया कि जो हिमाचल का मूल निवासी है और हाल फिलहाल बाहर से आकर नहीं बसा है, उसके पास पुश्तैनी जमीन तो होगी ही। उस समय बाहर से आकर यहां कारोबार करने के लिए रह रहे लोगों से जमीनों को बचाने के लिए यह प्रावधान किया गया था। हालांकि इस वाले प्रावधान में कुछ गड़बड़ थी, जिसके बारे में आगे बात करूंगा।

लूप होल
समय-समय पर संशोधित इस कानून के प्रावधान कहते हैं कि हिमाचल के शहरी इलाकों में कोई भी भारतीय नागरिक कारोबार या आवास के लिए निश्चित आकार का भूखंड खरीद सकता है। रिहायशी संपत्ति खरीदने पर भी रोक नहीं।इसके अलावा अगर आपको खेती वाली जमीन लेनी है, तब भी एक रास्ता है। आप बेचने वाला ढूंढिए, उसके साथ मिलकर 118 के बताए गए निर्देशों के आधार पर ज़मीन खरीदने के लिए आवेदन कीजिए, औपचारिकताएं पूरी कीजिए, फिर सरकार तय करेगी कि आपको जमीन खरीदने की इजाजत देनी है या नहीं।

खनन के कारण कई पहाड़ हो चुके हैं खोखले

यही प्रावधान गड़बड़ देता है। सरकार या समझिए कैबिनेट को इस मामले में यह जो अधिकार मिला है, उसी के दुरुपयोग के कारण आज धारा 118 एक मजाक बनकर रह गई है। ऐसा इसलिए क्योंकि सभी दलों की सरकारों ने समय-समय पर 118 में छूट देने में मनमानी की है। इसी कारण आपको उनकी पार्टी के नेताओं और अन्य रसूखदारों के नाम हिमाचल पर जमीनें मिल जाएंगी।

और इजाजत देने के इस खेल में भ्रष्टाचार न हुआ हो, ऐसा होने की संभावनाएं बहुत कम हैं। हाल ही में हिमाचल प्रदेश के एक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी ने आरोप लगाया था कि एक मुख्यमंत्री ने धारा 118 के मामलों का जिम्मा अपने एक करीबी मंत्री को दिया हुआ था। इस अधिकारी के खिलाफ 118 के दुरुपयोग की जांच चल रही थी मगर इस बयान के बाद जांच का क्या हुआ, कुछ पता नहीं।

सोचिए, 118 के नाम पर इजाजत देने के लिए अगर इस स्तर पर करप्शन होता तो बहती गंगा में अधिकारी हाथ न धोते हों, यह हो नहीं सकता। पिछले दिनों एक रिपोर्ट छपी थी जिसमें हिमाचल के कुछ प्रशासनिक अधिकारियों की संपत्ति चौंकाने वाली थी। उनकी आय के स्रोतों को लेकर भी जानकारी स्पष्ट नहीं थी। बहरहाल, धारा 118 के इसी लूप होल का परिणाम है कि रसूखदार लोगों के घर आपको मनाली, धर्मशाला और शिमला के ग्रामीण इलाकों में मिल जाएंगे।

ये ऐसे लोग हैं जिनका हिमाचल से कोई सीधा संबंध नहीं, हिमाचल के लिए इनका कोई योगदान नहीं। इन्हें तो सरकारों ने आसानी से जमीन खरीदने की इजाजत दे दी, मगर हिमाचल के गठन से पहले से यहां रह रहे गैर-कृषक हिमाचलियों को ऐसी ही इजाजत लेनी हो तो उन्हें पापड़ बेलने पड़ते हैं। उनके पास तो बमुश्किल जमीन खरीदने और उसके ऊपर घर बनाने के पैसे जुटते हैं। फिर वे कैबिनेट तक कैसे लॉबीइंग करेंगे, कैसे अपनी सिफ़ारिश लगवाएंगे? इसी तरह हिमाचल में लूट-खसोट मचाकर उस पैसे से दिल्ली-चंडीगढ़ में चल-अचल संपत्ति जोड़ने वाले अधिकारियों की मौज है मगर बाहर से आया जो ईमानदार कर्मचारी या अधिकारी हिमाचल में अपनी उम्र खपाकर यहीं का होकर रह जाना चाहे, वह हिमाचल में जमीन नहीं ले सकता। थैंक्स टु धारा एक सौ अठारह।

बाबाओं की मौज, हिमाचलियों से अन्याय
सरकार किसी की भी हो, इसी धारा के आधार पर गरीब और बिना पहुंच वाले गैर कृषक हिमाचलियों के आवेदन निरस्त किए जाते रहे हैं मगर ढोंगी-डफंतरी बाबाओं, नेताओं, अभिनेताओं और रसूखवालों को छूट दी जाती रही। क्या यह उन लोगों के साथ अन्याय नहीं है जिन्होंने हिमाचल को अपना सबकुछ दिया है? यह कई पीढ़ियों से हिमाचल में रह रहे लोगों के साथ अन्याय है जो यहां के होकर भी यहां जमीन नहीं ले सकते। सिर्फ इसलिए कि उनके पूर्वज भूमिहीन थे।

अभी हिमाचल के लोग ही अपने पहाड़ों को बर्बाद कर रहे हैं, 118 के कमजोर होने से यह रफ्तार बढ़ सकती है।

यह भूमिहीन हिमाचलियों के साथ इसलिए भी अन्याय है क्योंकि इसी हिमाचल में ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने सीलिंग ऐंड लैंड होल्डिंग्स ऐक्ट में अपने पक्ष में प्रावधान करवाकर बड़े-बड़े बगीचे अपने पास रख लिए, इस शर्त पर कि वह इसे बेचेंगे नहीं। जबकि बाकियों को 300 कनाल से ज्यादा भूमि सरकार को देनी पड़ी। जिन लोगों ने अपनी जमीन दे दी, वे कई हिस्सेदारों में बंटी और आज उनके वंशज भूमिहीन हो गए। वे तो अपने लिए हिमाचल में जमीन नहीं ले सकते मगर बगीचे वालों की मौज है। वे अपने हिसाब से लॉबीइंग करके सरकारों से छूट पाकर बीच-बीच में अपनी जमीन बेचते रहते हैं और नोट छापते रहते हैं। खैर, सीलिंग ऐंड लैंड होल्डिंग्स ऐक्ट के खेल पर किसी और दिन बात होगी।

बाबा राम रहीम, आसाराम जैसों को हिमाचल में डेरे चलाने के लिए जमीन मिल गई, मगर अन्य किसी भी राज्य से आए उस अधिकारी को हिमाचल में जमीन नहीं मिल सकती जो पूरे देश में कहीं भी जा सकता था मगर उसने काम के लिए हिमाचल चुना। यहां वह 30 साल ईमानदारी से काम करता रहा, प्रदेश के लिए लाभकारी योजनाएं बनाता रहा, योजनाओं को लागू करता रहा, लोगों की मदद करता रहा, यहीं टैक्स देता रहा; उसके बच्ची यहीं पैदा हुए, यहीं पढ़े, यहीं से लगाव रखते हैं। मगर रिटायर होने के बाद वह अधिकारी घर बनाने और साथ में सब्जियां उगाने के लिए हिमाचल में थोड़ी सी जमीन नहीं ले सकता। मगर बागवानी के ही नाम पर दो-दो बार एक सरकार ने अपनी पार्टी की नेत्री को जमीन खरीदने की छूट दे दी।

तो क्या किया जाए?
इन हालात को देखकर तो ख्याल आता है कि इस धारा के नाम पर बंदरबांट करने से बेहतर है कि इसे खत्म करके खुली छूट दे दो। मगर फिर चिंता उठती है कि ऐसा हुआ तो हिमाचल का जो बंटाधार अगले 50 सालो में होने वाला है, वह 5 सालों में ही हो जाएगा। बेशक इस कानून में कुछ खामियां हैं मगर इसका मतलब यह नहीं है कि धारा 118 को खत्म कर दिया जााए। क्योंकि अगर ये एक बार हटी तो इसे दोबारा नहीं लगाया जा सकेगा। ऐसा इसलिए कि संविधान के अनुच्छेद 3 71 का हवाला देने पर ही इस धारा की इजाजत हिमाचल, मिजोरम और उत्तराखंड को मिली थी। यानी हिमाचल के इस प्रावधान के लिए 3 71 का कोई सब सेक्शन समर्पित नहीं है, यूं समझिए कि गुडविल में यह विशेष अधिकार मिला है कि हिमाचल अपने यहां ऐसी व्यवस्था कर सकता है। वरना 2016 में गोवा ने भी ऐसी ही मांग की थी, जिसे ठुकरा दिया गया था।

बहरहाल, धारा 118 को हटाने के पक्ष में कुछ लोग तर्क देते हैं कि अब हिमाचल पहले वाला हिमाचल नहीं रहा जब यहां के लोगों को कोई भी फुसला सकता था। कहा जा रहा है कि यहां के लोग शिक्षित हैं, वे अपना भला-बुरा समझ सकते हैं। ऐसा कहने वाले शायद जमीनी हालात से वाकिफ नहीं हैं। मैंने बहुत सारे लोगों को पैसों की जरूरत को पूरा करने के लिए जमीन को औने-पौने दाम में बेचते हुए देखा है। भांग और चिट्टे की गिरफ्त में फंसे बेरोजगार तो पहले ही जमीनें बेचने को तैयार हैं। यह तो शुक्र है 118 का वरना ये लोग अब तक जमीनों को भी धुएं में उड़ा चुके होते।

कई जगह ऐसे मामले सामने आए हैं जह नशे के चंगुल में फंसे लोगों ने कर्ज उतारने या नशा खरीदने के लिए चुपके से जमीनें बेच दीं।

प्रेशर में तो नहीं है सरकार?
कुछ लोगों, यहां तक कि सरकार का भी यह कहना है कि धारा 118 हिमाचल के विकास की राह में बाधक है क्योंकि औपचारिकताओं के चलते कंपनियां यहां नहीं आना चाहतीं। यह बात समझ से परे है क्योंकि जिसे बिज़नस करना है, वह जमीन लीज पर लेकर भी कर सकता है और बहुत सारी कंपनियां ऐसा कर भी रही हैं। इसके लिए सरकार ने स्पेशल एरिया भी बनाए हुए हैं। किसी कंपनी को अपने प्रॉडक्ट बनाने के लिए हिमाचल में कारखाने वगैरह खोलने के लिए निवेश करना है या हिमाचल में जमीन लेकर?

मुझे लगता है कि सरकार 118 के नियमों का सरलीकरण रियल एस्टेट में निवेश के लिए करना चाहती है। यानी सरकार चाहती है कि बड़े बिल्डर और कंपनियां हिमाचल में आएं, यहां टाउनशिप, होटेल और रिजॉर्ट बनाए। हालांकि यह काम लीज पर भी हो सकता है मगर ऐसा लगता है कि निवेशक यह दबाव डाल रहे हैं कि वे तभी आएंगे, जब जमीन उनके नाम ट्रांसफर होगी। 50 हजार करोड़ के कर्ज में डूबे प्रदेश को उबारने के लिए सरकार को अगर यही रास्ता नजर आता है तो इस अप्रत्यक्ष ब्लैकमेलिंग के आगे झुकने के बजाय उसे समझदारी से काम करना होगा। उसकी समस्या का समाधान धारा 118 में ही छिपा हुआ है। मगर वह सरलीकरण या इसके खात्मे में नहीं, इसके संशोधन और सुधार में है।

धारा 118 में लाई जाए पारदर्शिता
यह सही है कि सरकार लालफीताशाही को खत्म करके प्रक्रिया को सरल करना चाहती है। वह 45 दिनों में ऑनलाइन ही यह बता देगी कि आवेदन मंजूर हुआ या नहीं। मगर इस तरह की जल्दबाजी करने से पहले जरूरी है कि धारा 118 में संशोधन किया जाए। पहला संशोधन तो यह हो कि आंख मूंदकर किसी को भी जमीन खरीदने की इजाजत देने के विशेषाधिकार को छोड़ा जाए। तय नियम बना दिए जाएं कि किसे, किस आधार पर हिमाचल में जमीन खरीदने की इजाजत दी जा सकती है। पारदर्शिता के लिए यह बेहत जरूरी है।

जितने उतावलेपन से आप बाहर के प्रदेशों के लोगों को 118 में छूट देते हैं, उतनी चिंता आपको हिमाचल प्रदेश के गैर-कृषकों की क्यों नहीं होती? दशकों से हिमाचल में रह रहे, यहां के विकास में मददगार गैर कृषक हिमाचलियों को भी  हिमाचल में जमीन खरीदने का अधिकार मिलना चाहिए क्योंकि वे भी कृषक हिमाचलियों से कम हिमाचली नहीं। यही नहीं,  हिमाचल में सरकारी नौकरी या लंबे समय तक प्राइवेट नौकरी या कारोबार कर हिमाचल के विकास में योगदान देने वालों को भी निश्चित अवधि के बाद जमीन खरीदने की इजाजत दी जाए। उनका भी हिमाचल में योगदान रहता है। वे यहीं रहकर कमाते हैं, यहीं खर्च करते हैं, यहीं टैक्स देते हैं। वे उन लोगों की तरह टूरिजम के लिए या एक आध हफ्ते के लिए छुट्टी मनाने नहीं आते जिन्हें आप नियमों को ताक पर रखकर इजाजत देते हैं।

शिमला जैसे शहर पहले ही बेतरतीब निर्माण का खामियाजा भुगत रहे हैं।

जो निवेशक हिमाचल में जमीन में खरीदना चाहते हैं, उन्हें सशर्त इजाजत दी जाए। यह देखा जाना चाहिए कि उनके हिमाचल आने से कितने लोगों को रोजगार मिलेगा, सरकार को कितने राजस्व की प्राप्ति होगी। उनके लिए एक समयसीमा तय की जाए कि इस अवधि तक आप हिमाचल में काम करेंगे तो ही आपको जमीन का मालिकाना हक मिलेगा। उन्हें बताया जाए कि इस अवधि तक जमीन लीजहोल्ड रहेगी और उसे तब तक फ्रीहोल्ड (पूरा मालिकाना हक देना) नहीं किया जाएगा, जब तक कि वे कुछ खास शर्तों को पूरा नही करते। इसमें समय पर जमीन पर निर्माण कार्य पूरा करके कारोबार शुरू करना, प्रदेश के लोगों को रोजगार देना और टैक्स आदि समय पर देना शामिल हो। अगर कोई भारतीय नागरिक निजी तौर पर यहां जमीन खरीदने के लिए आवेदन करता है तो उसके लिए भी पैमाना होना चाहिए।

साथ ही पारदर्शिता के लिए हर महीने वेबसाइट पर सूची डाली जाए कि किस व्यक्ति या कंपनी को किस आधार पर इजाजत मिली और किसे क्यों नहीं। कैबिनेट को अगर इस मामले में फैसला करने का अधिकार है तो कैबिनेट में बैठे मंत्री भी जनता के भेजे हुए हैं और जनता को यह जानने का अधिकार है कि उनके चुने नुमाइंदे क्या कर रहे हैं।

साथ बैठे सत्ता पक्ष और विपक्ष
यह हमारे चुने विधायकों, भले वे सरकार में हों या विपक्ष में, की जिम्मेदारी है कि मिलकर 118 पर चर्चा करें। हिमाचल को वाकई बचाना है तो यह काम सड़कों पर चर्चा करके या फेसबुक पर स्टेटस डालकर नहीं होगा। इस पर विधानसभा में चर्चा करनी होगी, प्रस्ताव लाना होगा और जरूरत हो तो संशोधित बिल लाना होगा। मगर लगता है कि अभी से विपक्ष इस मुद्दे पर वॉकआउट की तैयारी करके बैठा है। जब आप सदन से वॉकआउट करके गायब रहेंगे तो सरकारों को सदन से बाहर चुपके से नियमों में बदलाव करने का मौका मिलेगा ही।

दरअसल समस्या यह है कि धारा 118 को लेकर कोई भी दल संजीदा नहीं है। सत्ता में आकर मौका मिलने पर हर कोई इसका फायदा उठाता है और विपक्ष में बैठ जाने पर सरकार पर आरोप लगाता है। आज ‘सेव हिमाचल’ अभियान चला रहा विपक्ष वह बताए खुद सत्ता में रहते हुए क्या उसने भी ऐसे ही नियमों को ताक पर रखकर धारा 118 के तहत अनुमतियां देने में बंदरबांट नहीं की थी? विपक्ष में होकर साधु-संत बनना आसान है मगर आज के दौर में तथ्य छिपाए नहीं जा सकते।

हिमाचलियों के हित में एकजुट हों सरकार और विपक्ष
Image courtesy: Flickr/ Olivier Galibert

सरकार को धारा 118 में सकारात्मक संशोधन अपने से नहीं बल्कि विपक्ष और जनता की राय लेकर और उसे विश्वास में लेकर करना होगा। मगर हिमाचल के हालात को देखकर लगता नहीं कि यहां पर ऐसा हो पाएगा। एक पक्ष है जो धारा 118 को हटा देना चाहता है, जबकि दूसरा पक्ष है जो जानता है कि इसमें सुधार जरूरी हैं मगर फिर भी और कोई राजनीतिक मुद्दा न होने के कारण कह रहा है कि धारा 118 में कोई बदलाव नहीं होना चाहिए। दोनों ही गलत हैं और तात्कालिक लाभ के लिए हिमाचल के हितों को नजरअंदाज कर रहे हैं।

यह लेख हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले संबंध रखने पत्रकार आदर्श राठौर के ब्लॉग से लिया गया है। आप यहां क्लिक करके उनके फेसबुक पेज से जुड़ सकते हैं।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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