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हिमाचल के कई देव-दरबारों में चमत्कारी रिश्वत है बकरा

दीपक शर्मा की फेसबुक टाइमलाइन से साभार।। क्या जालपू राम का डर और बेबसी आपके भीतर कुछ नहीं पिघलाते? ज़ाहिर है रिकॉर्डिंग उसके अपने लोगों के बीच लौटने के बाद की है. काबिल-ए-ग़ौर है कि वीडियो में महिलाएं ही इस वाकये से आक्रोश में दिखती हैं. मर्द आउट ऑफ फोकस आराम से खड़े नज़र आते हैं. बल्कि एक जगह बैकग्राउंड से महिला को चुप हो जाने के कहती पुरुष आवाज़ सुनी जा सकती है. हालांकि महिला की बात में तर्क था. (वीडियो देखें)

ये तो बुज़ुर्ग थे. कल को बच्चे अगर गुग्गा महाराज के दर्शनों की भूल कर बैठें तो क्या उनके साथ भी यही सुलूक होगा? देवताओं की मंडलियां यूं भी हमारे गांवों में सबसे प्रिय तमाशों में एक होती हैं. ईश्वर के रूप भले ही कहलाते हों लेकिन बच्चे क्या जानें देवता की पवित्रता की महानता?

पढ़ें- कब थमेगा बकरे खाने के लिए देवता का डर दिखाने का सिलसिला

हालांकि हिमाचल के ज़्यादातर गांवों में बच्चों का बपतिस्मा कम ही उम्र में हो जाता है. खेलते कदम अपनी जाति के दायरों को कभी ग़लती से भी लांघ जाएं तो मां-बाप खुद ही टोक देते हैं. वैसे तो स्कूल में ही ये दीक्षा हो जाती है. इसीलिए हमारे कुछ स्कूलों में दलित बच्चों को प्रधानमंत्री का भाषण सुनने के लिए दहलीज़ से बाहर बैठना पड़ता है. दोपहर का सरकारी खाना अलग कतार में बैठकर खाना पड़ता है. लेकिन जब ख़बर बनती है तो चुभती है. क्योंकि एक सुंदर प्रदेश के सुंदर नागरिक होने का इगो आहत होता है.

हालांकि सामूहिक पहचान के दायरे सिर्फ हिमाचल में ही तंग नहीं हो रहे. सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक..नोंचने का चलन है. फिर भी ये वीडियो कभी सुर्खी नहीं बनेगा. क्योंकि हिमाचल से टीआरपी नहीं आती,, ना ही ये सियासी कुर्सी का अखाड़ा है. कुछ जगहें इन दोनों के अभाव में भी ख़बर बनते हैं क्योंकि वहां संविधान के दायरे के भीतर या बाहर, जैसा भी, संघर्ष है. पहाड़ों के बीच बदलावों की बयार से इतना दूर रहे कि हमारे यहां के दलितों में संघर्ष की चेतना अब तक नहीं है.

आप कई बार ख़ुद एक दलित को अपने घर के भीतर चलने के लिए राज़ी नहीं कर सकते, अगर आप  ऊंची जाति से हैं तो. वीडियो में महिला भी कह रही है कि अगर रसोई में गए होते तो फिर भी एक बार पिटाई को जायज़ मान लेते. हमारे यहां के बुद्धिजीवी, जिनमें अधिकांश प्रगतिशील भी शामिल हैं, यूं नज़रअंदाज़ कर जाते हैं मानो ये समस्या है ही नहीं. नेता सदियों से चली आ रही व्यवस्था को छेड़ना नहीं चाहते क्योंकि इसी से उनका हित सधता है.

हिमाचल के समाज में जातिवाद पर चुप्पी संपूर्ण है. इसकी एक वजह देव परंपरा में गहरी आस्था है. प्रदेश के एक बड़े हिस्से में देवता हर इंसान की ज़िंदगी में सुबह-शाम पूजी जाने वाली मूर्तियों से कहीं ज़्यादा जीवंत भूमिका निभाते हैं. मज़ेदार बात ये है कि जिन मामलों में सहूलियत हो उनमें इंसान देवता को हमेशा मनाते आए हैं. उनकी मर्ज़ी के खिलाफ़ भीड़ और धूल से भरे मेलों में ले जाना, आमदनी के लिए उनके सदियों से सहेजे मंदिरों का बाज़ारीकरण, देवताओं की कमेटी में पुजारी से लेकर भंडारी तक के चयन में देवताओं से ज़्यादा इंसानों की ही चलती है.

कमरूनाग के आसापास के बड़े इलाके में हर देवी-देवता के रूठकर ‘उन्हीं के पास जाने की प्रथा है. यकीन मानिए हर बीतते साल के साथ कमरूनाग के यहां रूठे मेहमानों की तादाद बढ़ती ही जा रही है. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ जब कारदार उन्हें वापस चलने के लिए राज़ी करने में नाकाम रहे हों.

जब बलि प्रथा पर कोर्ट का डंडा चला तो सुनने को मिला कि कई देवी-देवता अब सिर्फ नारियल की बलि या पशु बलि को महज़ सांकेतिक बनाने के ऐसी ही किसी उपाय के लिए मान गए हैं. ये देवी-देवता अमूमन किसी शहर के आसपास के इलाकों में बसे गांवों के ही अधिष्ठाता थे. वो जगहें जहां पुलिस से लंबे वक्त तक कुछ भी छिपाए रखना मुमकिन ना हो. दूर-दराज के इलाकों में ये प्रथा कभी नहीं रुकी. वहां की दैवीय शक्तियों को ‘नश्वर’ अदालतों की नाफरमानी से कभी गुरेज़ ना हुआ.

बात बलि की चली है तो ये बकरे का किस्सा भी दिलचस्प है. कई देव-दरबारों में ये बकरा वाकई चमत्कारी रिश्वत है. आपकी आस्था को ठेस लगती हो तो दंड कह लें. अक्सर बकरा देव परंपरा में संगीन से संगीन जुर्म की भी ज़मानत बन जाता है. मंदिर में दलित घुस आया है तो शुद्धि के लिए बकरा काट दो, देवता का कोई वायदा पूरा नहीं हुआ और दैव प्रकोप सता रहा है तो बकरा काट दो, घर की लड़की नीची जाति के लड़के के संग हो ली तो बकरा काट दो…

कुछ ऐेसे देवी-देवता भी हैं जो पॉपुलर हिंदू मान्यताओं के मुताबिक शुचिता के लिए जाने जाते हैं. कई बार उनके मामले में सफाई दी जाती है कि बलि दरअसल उनके साथ मौजूद गण चाहते हैं. बलि से जो मटन बनता है वो बिना जातिभेद के बंटता है. लेकिन कई जगहों पर सबसे लजीज़ माने जाने वाले हिस्सों पर गूर या पुजारी का अधिकार होता है.

हम मांस तो बांट लेते हैं लेकिन जिसके साथ ज़िंदगी के हर मेले-मरग, खेत-खलिहान, ब्याह-कारज में रहे होते हैं उसके साथ सम्मान नहीं बांट सकते. मैं नहीं जानता देवी-देवता होते हैं या नहीं. चाहता हूं कि होते हों. ताकि पूछने की गुंजाइश बनी रहे कि क्या ऐसी संतानों पर उन्हें गर्व होता होगा?

(लेखक हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले से हैं और विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर लिखते रहते हैं। यह टिप्पणी उनकी फेसबुक टाइमलाइन से ली गई है)

हिमाचल में घर, गांव और राजनीति से लेकर देव परंपरा तक फैला है जातिवाद

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