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आपने नहीं देखी होंगी हिमाचल की ये 16 अनोखी और खूबसूरत तस्वीरें

इन हिमाचल डेस्क।। स्पर्शरहित रहना खूबसूरती के लिए कई मायनों में खुशनसीबी होती है, भले ही मुरीदों के लिए महरूमियत साबित हो. कुछ ऐसी ही ‘अनटच्ड ब्यूटी’ हैं करसोग की वादियां. वक्त यहां भी बदला है लेकिन इंटरनेट युग के सजीलेपन ने यहां के कस्बों और गांवों की सादगी को फीका नहीं किया है. इसी सादगी में आप वहां के अतीत और परंपरा का अक्स देख सकते हैं.

पेश हैं मंडी जिले के करसोग की वादियों की ऐसी तस्वीरें, जो आपमें से ज्यादातर लोगों ने पहले शायद ही देखी होंगी। सभी तस्वीरें और उनके कैप्शन मंडी जिले के दीपक शर्मा की टाइमलाइन से साभार।

कुटाहची गांव में देव महासु मेले की तस्वीर- शहरी चेतना में मेला यानी भीड़भाड़, शोर. लेकिन ये एक मेला कुदरत के मौन में ख़लल नहीं डालता. इसका मतलब ये नहीं कि इस सालाना मेले में रौनक नहीं होती. शायद इसी मौन से ऊबकर पहाड़ों में तकरीबन हर जगह ऐसे सालाना आयोजनो का सिलसिला निकला होगा. नगाड़ों की थाप और नरसिंघों के अलाप में वो पल भी आता है जब ऐसा लगता है मानो मेले का पूरा का पूरा हजूम साथ नाच रहा हो. जब से देख रहा हूं हर साल दुकान सजाने वाले ‘पिछले साल की तरह काम’ ना होने का शिकवा करते हैं. लेकिन हर साल रंग बिरंगे तंबुओं में दुकानें सज ही जाती हैं. यहां कमाने वालों और खरीदारों- दोनों की हसरतें बौराई नहीं हैं. मुश्किल से एक-डेढ़ दर्जन तंबू. ऐसा सामान जिसका दाम शॉपिंग मॉल वालों को आज़ादी से पहले का लग सकता है. बच्चों को रोमांचित करने के लिए गगनचुंबी झूलों की ज़रूरत नहीं होती वो 5 रूपये की कुल्फी से भी खुश हो जाते हैं.
झुंगी के नज़दीक शंडरा गांव में बना एक घर- सीमेंट के घर संपन्नता की निशानी हैं लेकिन पहाड़ी घरों की अपनी उपयोगिता, ‘ग्रेस’ है. ऊपर की मंज़िल की हर आहट का नीचे पता चलता है. परिवार को घर की इमारत भी ‘कनेक्ट’ रखती है. इस मायने में परिवार का जीवंत हिस्सा होती है. मौसम के अधिक अनुकूल तो खैर ये घर होते ही हैं. क्योंकि पैसा नहीं है इसलिए इनमें ऐश्वर्य नहीं मिलेगा. लेकिन अमीर बाग़वानों, कारोबारियो और अफसरों के कुछ घरों में यही ग्रेस सजा हुआ भी दिख जाता है. आधुनिकता और परंपरा के जिस सांमजस्य की बात मैं ऊपर कर रहा था वो देखी जा सकती है. बनाने वाले यथाक्षमता सीमेंट का घर बनवाकर अपनी तरक्की की घोषणा की है. लेकिन लकड़ी के घर को सिर्फ पुराना होने की वजह से नहीं गिराया.
‘पौंडा..’- और पहाड़ी घर के बरामदे का कोना.. घर के बुज़ुर्गों के लिए हुक्का पीने की फेवरेट जगह या फिर घर की बूढ़ी औरतों के लिए ऊन कातने की. यहां से पगडंड़ी पर भी नज़र रखो, मौसम का भी जायज़ा लेते रहो और अपने खेत, पशुओं पर भी नज़र रखो..
चिंडी मंदिर का तालाब- करसोग इलाके का इकलौता गांव, जहां के एकांत रास्तों में आपको विदेशी या हिंदुस्तान के दूर राज्यों के लोग नज़र आ सकते हैं. इसे पर्यटन के सरकारी नक्शे में जगह ज़रूर मिली है लेकिन इसकी ज़्यादा वजह बड़ी यहां सरकारी होटल का खुलना है. बिना शोकेस किए भी चिंडी में जो बाहरी सैलानी पहुंचते हैं उनमें से ज़्यादातर को या तो पर्यटन के किसी गहरे जानकार की सलाह मिली होती है या उनके गूगल में सर्च करने का हुनर शानदार होता होगा. यहां का टॉप आकर्षण यहां का खूबसूरती है. जंगलों में बनी सड़कें साइक्लिंग के लिए भी मुफीद हैं. हालांकि यहां के चिंडी मंदिर का प्रताप भी कम नहीं माना जाता. देव महासु की बहन कहलाने वाली चिंडी माता के स्नान के लिए इसी तालाब से पानी लिया जाता है.
His Grace ‘The Ghuri’- पहाड़ी देवता कोई मूर्तियों में मुस्कुराते भगवान नहीं होते. आस्था ने उन्हें अलग-अलग चरित्र दिए हैं जो हमेशा ईश्वर के लिए बनाए मानकों पर फिट बैठें ज़रूरी नहीं. ये इंसानों को उनसे ज़्यादा करीब होने का ऐहसास देता है. राजसी व्यवहार उनकी कई मानवीय कमज़ोरियों में एक है. इसलिए उनके अपने दरबान होते हैं जिनके संदेश-माध्यम (गूर) भी ज़्यादातर निचली जातियों के ही होते हैं. घूरी महादेव के सेवकों में एक हैं. पॉप-ज्ञान का सहारा लूं तो अघोरी का अपभ्रंश भी हो सकता है. आप इस मूर्ति की केश सज्जा, गहनों और आंखों में एक कबीलाई, असुर या ध्यान योगी, तीनों में जिसकी चाहें उसकी शक्ल देख सकते हैं. रक्त रंजित अधरों को छोड़ दें तो कुछ-कुछ बौद्ध गुरू पद्मसंभव जैसी लगती है.
चिंडी मंदिर का दरवाज़ा- मंदिर में लकड़ी की ये नक्काशी कुछ साल पहले कुल्लू के कारीगरों का कमाल है. दरवाज़े पर लगा मुंड आपको पुराने अंग्रेज़ी ड्राइंग रूम की याद दिला सकता है. आप इसे परंपरा में गहरे तक बसी बलि प्रथा की अवचेतन अभिव्यक्ति के तौर पर भी देख सकते हैं. कौन कहता है अब पहले जैसे कारीगर नहीं होते!
माहूंनाग के मंदिर का दरवाज़ा- पुराने मंदिरों के वास्तुकार लोकेशन चुनने के महारथी कहला सकते हैं. पहाड़ी मंदिर अक्सर ऐसी जगह पर होते हैं जहां कुदरत की खूबसूरती सबसे ज़्यादा निखार पर होती है. माहूंनाग मंदिर भी इसी श्रेणी में जगह रखता है. जबसे जगह-जगह माहूंनाग मंदिर बनने लगे, तबसे ये जगह ‘मूल माहूंनाग’ मंदिर हो गई है. देवताओं के लिए ना सही, इंसानों के लिए आज के दौर में ब्रैंडिंग ज़रूरी है. माहूंनाग करसोग के सबसे प्रतापी माने जाने वाले ही नहीं, धनी देवताओं में भी एक है. चांदी का ये दरवाज़ा इसकी मिसाल है.
जहल देवता- प्रचंड छवि के देवता, वैसे कई जगह इनके अपने मंदिर भी हैं लेकिन यहां माहूंनाग की सेवा में तैनात हैं.
पहाड़ी योद्धा- महादेव मंदिर में मौजूद एक और मूर्ति. क्या ऐसे दिखते होंगे पहाड़ी पूर्वजों के योद्धा? हल्की, छोटी ढाल लेकिन मोटी तलवार. बड़े कुंडलो पर ग़ौर करें. क्या पहाड़ी टोपी उनके लिए सिर के कवच का भी काम करती होगी? ये योद्धा है लेकिन दिखने में भीषण नहीं है. हालांकि ये समझना मुश्किल है कि पहाड़ों में भी कोई सिर्फ आधा तन ढककर युद्ध कर सकता होगा?
महादेव मंदिर, गांव बिठरी- सादगी हर कला का चरम रही है. सौंदर्य का सर्वोच्च शिखर. वास्तु कला में इसी का एक नमूना. ये गांव शिकारी के पहाड़ों की तलहटी में बसा है. बड़े-बूढ़े कहते हैं मंदिर कभी बाढ़ में बहकर शिकारी के पास से बहकर यहां आया था जिसे गांव के लोगों ने संजोया. उनके पास ‘नोआ की बाढ़’ का अपना वर्ज़न है! कुछ ही जातियों को मंदिर के भीतर जाने का हक है बाकियों के निचले खेत से ही दर्शन करने होते हैं. मंदिर के भीतर एक छोटे पत्थरनुमा शिवलिंग के अलावा कुछ नहीं है.
बड़े भाई से मिलने चले महादेव- इस यात्रा में वो पहला मोड़ जहां से बड़े भाई देव महासु का मंदिर नज़र आता है, वहां महादेव का रथ नमन करने को रुकता है. रिश्तों में मानवीय मोह देवताओं की एक और मानवीय प्रवृत्ति है. जब दोनों भाइयों के रथ इस अतिरेक में मिलते हैं मानों सदियों बाद मिले हों.
दैवीय ‘छत्र’छाया- इस पूरे दैवीय उपक्रम में ऊंची जातियों को महत्ता मिलती है, बजाने वालों के हिस्से कम से कम दाद तो आती है. लेकिन देव सवारी के राजसी ठाठ में इन छत्रों को भी उठाना होता है. लोग इस काम को बिना शिकायत करते हैं.
पहाड़ी ‘स्फिंक्स’?- आप तस्वीर के शीर्षक को अतिश्योक्ति मान सकते हैं. लेकिन यहां भी सिर मानवीय है और धड़ पशु का. ग्रीस के स्फिंक्स की मुद्रा आंखों में विजय गौरव की चमक से भरे सम्राट सी लगती है लेकिन अपना वाला भक्ति में नत नमन है.
माहूंनाग मंदिर की धूनी- कहा जाता है कि ये धूनी कई हज़ार सालों से अखंड जल रही है. इस बात का ख़ास ख्याल रखा जाता है कि इस कुंड में आग पूरी तरह कभी ना बुझे.
चिंडी मंदिर- मिथक के मुताबिक एक शख्स को सपने के बाद जो जगह मिली उसमें चींटियों का बना घेरा पाया गया था. उसी घेरे के मुताबिक मंदिर का मूला तामील हुआ था. लोग इसे देव महासु की बहन मानते हैं और उनके मंदिर के ठीक सामने की पहाड़ी पर ये मंदिर है. माता को कौमार्य प्रिय है और मिथक में उसे बरकरार रखा गया है. चिंडी माता का गूर याचकों को पीठ दिखाकर मुखातिब होता है, कहा जाता है मां कुंवारी होने के कारण किसी को शक्ल नहीं दिखाती. न्योते पर एक गांव (जिसे एक किवंदती के मुताबिक उसके मायके का दर्जा हासिल है) को छोड़कर किसी के यहां रात को नहीं रुकती. लोग मानते हैं कि अपने मेले में जब नृत्य करती है तो देव महासु देवता के मंदिर वाला पहाड़ धुंध में ढक जाता है. ऐसा कई बार मैंने भी होते देखा है हालांकि पहाड़ों में धुंध कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है. कभी-कभी मंदिर की इमारत से दोपहर या शाम की गाढ़ी खामोशी को तोड़ती छनछनाहट कोई मिथक नहीं है. इसमें लकड़ी की झालरें हवा से छूते ही गुनगुनाने लगती हैं. मंदिर की काष्ठकारी अव्वल दर्जे की है. कुछ ऐसी जो हज़ारों साल बाद अवशेष की शक्ल में भी इस युग के इंसानों के हुनर की गवाही देंगीं.

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