नवनीत शर्मा की फेसबुक टाइमलाइन से साभार।। जॉन एलिया (जौन एलिया) यानी ऐसा नाम, कौतूहल जिनके नाम के साथ ही शुरू हो जाता है। अमरोहा में जन्मे,विभाजन के बाद भी दस साल तक भारत में रहे और फिर कराची चले गए। उसके बाद दुबई भी गए। संवाद शैली में,आसान शब्दों में,लगभग हर विषय पर नज्म या ग़ज़ल कह सकने वाले … मन के उलझे हुए तारों के गुंजलक को बड़ी सादगी के साथ सुलझाने वाले जौन मौत के बाद और भी अधिक मश्हूर हुए। उनकी गजलों पर दो किताबें देवनागरी में सामने आई हैं।
हिंदी जानने पढ़ने वालों को भी इस शायर के पास हर एहसास की ग़ज़लें दिखी हैं। नौजवान हों या बुजुर्ग, जॉन को सब पसंद करते हैं। उनका सोचने और कहने का ढंग लगभग सभी शायरों से अलग है। अब दौर यह है कि सोशल मीडिया पर जॉन अहमद फरा़ज और ग़ालिब से भी अधिक लोकप्रिय दिखते हैं।
14 दिसंबर 1931 को अमरोहा में जन्मे एलिया अब के शायरों में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले शायरों में शुमार हैं।’शायद’,’यानी’,’गुमान’,’लेकिन’ और गोया’ प्रमुख संग्रह हैं। इनकी मृत्यु 8 नवंबर 2004 को हुई। पाकिस्तान सरकार ने उन्हें 2000 में प्राइड ऑफ परफार्मेंस अवार्ड भी दिया था। उन्हें अब तक सहज शब्दों में कठिन बात करने वाला,अजीब-ओ-गरीब जिंदगी जीने वाला,मंच पर ग़ज़ल पढ़ते हुए विभिन्न मुद्राएं बनाने वाला शायर ही माना गया है,लेकिन जॉन को अभी और बाहर आना है।
वह केवल रूमान के शायर नहीं थे, उनकी निजी जिंदगी जितनी भी दुश्वार क्यों न रही हो, वह ऐसे शायर हैं जिन्हें हर पीढ़ी पढ़ती है। एक दिन ऐसा लगा कि जॉन के साथ उनके जीते जी तो मुलाकात हो नहीं पाई, क्या अब बात हो सकती है?क्यों नहीं। फिर एक दिन माहौल बना और एक काल्पनिक मुलाकात हुई। मुलाकात में यथार्थ दाल में नमक जितना भी नहीं है। बावजूद इसके शायद यह बातचीत कुछ सच्ची बात कहे। आइए, उनकी जयंती पर मिलते हैं जॉन के साथ:
यह अमरोहा की शाम थी। कमाल अमरोही वाले ‘यूं ही कोई मिल गया था, सरेराह चलते-चलते’ को गुनगुनाते हुए उस दिन का सूरज गुरूब हो रहा था। सामने से जॉन एलिया आ रहे थे। अमरोहे की मिट्टी माथे पर लगी हुई थी। हाथ में सिगरेट लिए हुए… लेकिन सुलगाई हुई नहीं थी। इसरार ऐसा किया जिसमें हुक्म था, ‘जला के दो न…जला के दो!!!’कुर्ता पहना हुआ था। जैसे ही कहा कि आपसे मिलने की बहुत ख्वाहिश थी,ठहाका मार कर हंसे। उस हंसी में खांसी थी,क्षय रोग के दौरान का हांफना था और था हल्का सा रोना भी। बोले, ‘क्या कहा ?’ फिर से कहा कि आपसे मिलना था। इतना सुनते ही अपने सिर पर हाथ मारा और दो तीन बार मारा …फिर कहा, ‘अरे बदबख्त …कैसे ढूंढ़ लिया मुझे तुमने। जबकि मैं तो यही कहता आया हूं, कोई मुझ तक पहुंच नहीं सकता इतना आसान है पता मेरा।
आप तो सब जगह होते हैं। कहां नहीं हैं आप?
शुक्रिया जानी। मुझे पता चला है मैं लोगों के दिलों में रहता हूं…यार मैं हर उस जगह में रहता हूं जो पूरी नहीं है। जहां कहीं जो अधूरापन है,समझ लो मैं वहीं हूं। बाकी मेरा क्या पता होगा,वामपंथी रहा लेकिन खुदा को भी मानता हूं। हुस्न अच्छा लगता है लेकिन हुस्न ही सब कुछ हो ऐसा भी नहीं,मैं हर पांच मिनट बांद कुछ और ही हूं। मैं सब कुछ हूं,सब जगह हो सकता हूं लेकिन मक्कारी के साथ नहीं हो सकता।
क्या अधूरापन, दुख या अज़ीयत है आपकी ?
मेरे जानने वालों और पढ़ने वालों ने भी मेरे साथ बहुत इंसाफ नहीं किया है। मैं इतनी भाषाएं जानता हूं…उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी, फरसी, अरबी, हिब्रू और न जाने क्या क्या। कितने ही काम किए संपादक रहा,अनुवाद किए लेकिन बस लोग शेर सुनते हैं और वाह-वाह में डूब जाते हैं। जॉन केवल भाषा के हवाले से लिखे गए शेरों में नहीं है बल्कि खयाल के हवाले से मजबूती के साथ कहे गए शेरों में भी है। सबके लिए जॉन एलिया एक शायर है,बस और कुछ नहीं। इसलिए कहता हूं प्यारे,इतना आसान है पता मेरा। दूसरा दुख पाकिस्तान बना कर मुझे वहां धकेल दिए जाने का दुख है।
एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं
कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं
कभी खुद तक पहुँच नहीं पाया
जब के वाँ उम्र भर गया हूँ मैं
लेकिन आप पाकिस्तान के होते हुए भी भारत के रहे?
हां,मैं अमरोहे का था,भारत का था,भारत का ही रहा। मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद जानते हैं कि मैं जब पाकिस्तान से भारत आया तो अमरोहा पहुंच कर उस मिट्टी में लोट गया था। मैंने चूमा उस मिट्टी को यार…। मैं भारत का ही हो सकता था और हो सकता हूं। कई दिन तक तो मैं माना ही नहीं कि मुल्क के दो टुकड़े हो गए हैं। मैं इस विभाजन के खिलाफ था। मुखालिफ़ था इस तरह की तकसीम का। लेकिन जाना पड़ा। फिर आना भी चाहा लेकिन आ नहीं पाए।
भारत और पाकिस्तान में फर्क क्या है?
फर्क यह है कि आपके यहां…..यानी मेरे भारत में फनकार के लिए बंदिश नहीं रही कभी। हमारे यहां जो लोग थोड़े से ऊपर पहुंच जाते हैं, वे किसी शायर, अदीब या फनकार को नहीं मानते। आपके यहां पंडित जवाहर लाल नेहरू अपने गले का हार पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को देते हैं, लाल बहादुर शास्त्री बड़े गुलाम अली खान साहब का तानपूरा उठा कर चलते हैं और अटल बिहारी वाजपेयी मेहदी हसन के इलाज की पेशकश करते हैं। मेरे साथ कराची में क्या हुआ जानते हो…. एमक्यूएम पार्टी का मुशायरा चल रहा था, अरे उनका कोई लीडर आया, सब उठे, मैं नहीं उठा। फिर मैंने कोई सच्ची बात बोल दी। उनके कारिंदों ने मुझे स्टेज से फेंक दिया। यह फर्क है भाई। पाकिस्तान को बुरा नहीं कहता मैं लेकिन मेरी रूह भारत में रही है जानी। दूसरी बात यह कि आपके यहां कोई भी कुछ भी बोल सकता है। पाकिस्तान में जि़या उल हक़ के वक्त में हम पर प्रतिबंध था। खैर….एक ही फ़न तो हमने सीखा है, जिससे मिलिए, उसे खफा कीजिए।
मलिकज़ादा जावेद कहते हैं कि जॉन भाई को दुनिया के किसी भी कोने में कुछ अपराध या बुरी बात होती थी तो बुरी लगती थी और वह बेहद संवेदनशील हो जाते थे। क्या यही कारण है कि आपको सलीम जाफरी जाैन औलिया भी कहते थे?
देखो जानी,दर्द तो दर्द है। दर्द का कोई मुल्क,मज़हब,कौम या सरहद नहीं होती। दिल सबके पास है। धड़कता है। पूर्व में भी पश्चिम में भी। मेरा बेहद संवेदनशील होना मेरी फितरत है। और मैंने बख्शा भी किसी को नहीं है।
क्या आपको पता है कि व्यंग्य के बड़े आदमी मुश्ताक अहमद यूसुफी साहब ने आपके नाम के बारे में कहा था कि जब पत्रिकाओं में आपकी ग़ज़लें छपा करती थी तो वह और उनके दोस्त बड़े शौक से पढ़ते थे…यह सोच कर कि यह किसी आवारा एंग्लो इंडियन लड़की की ग़ज़लें हैं?
(ठहाका लगाते हुए बोले) नाम तक मत जाओ जाने जानाना। (फिर सिर के बेतरतीब बालों को हाथ से पीछे की ओर धकेल कर माथा चमकाते हुए बोले) एलिया तो शुरू से है लेकिन जहां तक जॉन की बात है। अब तो यार सभी कहते हैं कि और कौन सिवाय जॉन । फिर हंसे। नाम को लेकर आपका एक कविता है, सुनाएंगे ?
लो सुनो:
शर्म, दहशत, झिझक परेशानी
नाज़ से काम क्यों नहीं लेतीं
आप, जी, वो मगर ये सब क्या है
तुम मेरा नाम क्यों नहीं लेतीं
अब मुझे पता है तुम और क्या सुनना चाहते हो….। लो उसे भी सुनो :
मेरी अक्ल-ओ -होश की सब हालतें
तुमने सांचे में जुनूं के ढाल दीं
कर लिया था मैं अहद-ए-तर्क-ए-इश्क़
तुमने फिर बांहें गले में डाल दीं
अच्छा एक बात बताएं, इतना अलग कैसे लिखा आपने? सहल-ए-मुमतिना यानी आसान शब्दों में शायरी करने वालों में जितनी मशहूरी आपको मिली, उतनी किसी और को नहीं। ऐसा क्यों?
यह सवाल ही बेवकूफाना है जानी। जॉन एलिया के साथ जो हुआ, वह ऐसा है कि बहुत कम लोगों के साथ हुआ। तुर्रा यह कि उस सबको मैंने जिस तरह लिया और सोचा, उसके मुताबिक मैं और कैसा लिख सकता था? अमरोहे में पैदाइश हुई, फिर कराची में रहा। वही कराची….जहां के मच्छर डीटीटी से नहीं मरते, कव्वालों की तालियों से मरते हैं। पाकिस्तान में कई काम किए। देश की बड़ी पत्रकार ज़ाहिदा हिना के साथ शादी की। खूबसूरत बच्चियां हुईं। फिर अलग भी हो गए। जो बीता है, वही तो रकम किया है। मैंने कोशिश की है कि लहजा मेरे शब्दों में बोले। अचानक सिर पर हाथ मारा और कहने लगे, ले यार सुन:
मैं भी बहुत अजीब हूं इतना अजीब कि बस
खुद को तबाह कर लिया मलाल भी नहीं
तबाह कैसे किया खुद को?
तबाह करने का कोई एक तरीका होता है? वह सब किया, जिससे मैं तबाह हो सकता था। जब पांचवीं किताब आनी चाहिए थी, तब मेरी पहली किताब आई। छपना नहीं चाहता था मैं। आज बीस साल की उम्र के शाायर दीवान छपवा रहे हैं, मैं साठ बरस का था, तब पहली किताब आई।
दुख क्या है आपका?
लो शेर सुनो :
शर्मिंदगी है हमको बहुत हम मिले तुम्हें
तुम सरबसर खुशी थे मगर ग़म मिले तुम्हें
ग़म ये नहीं कि तुम ही बहुत कम मिले हमें
ग़म तो ये है कि तुम भी बहुत कम मिले तुम्हें
घर क्यों नहीं संभाल सके?
देखो! …..कुछ चीजों के जवाब नहीं होते। सुनो शेर
एक ही मुज्दा सुबह लाती है
धूप आंगन में फैल जाती है
कौन इस घर की देखभाल करे
रोज एक चीज टूट जाती है।
चीजों को संभालना क्या इतना मुश्किल है?
हां यार। मुझसे नहीं संभलीं। जबकि मैं यह मानता हूं कि कठिन काम करना आसान है और आसान काम करना बेहद कठिन।
मशहूर शायर मलिकज़ादा मंजूर अहमद ने किसी मुशायरे में निज़ामत करते हुए कहा था, अनुभवों की वादी में जब तक इंसान सीने के बल न चल ले, वह जॉन एलिया नहीं हो सकता। क्या आप भी ऐसा मानते हैं?
(कुछ याद करते हुए) जानी! याद नहीं कब कहा लेकिन कहा तो ठीक ही है। अमरोहे में ऐसे परिवार से हूं जहां इल्म और इल्म की बात होती थी। उसके बाद मुल्क बंट गया। लकीर खिंच गई। मैं मानने को तैयार नहीं था। दस साल तक नहीं माना। कैसे छोड़ देता अमरोहा, बरेली, कानपुर या लखनऊ ? बताओ ? 1957 में पाकिस्तान चला गया। कराची में रहा। पाकिस्तान की आधिकारिक भाषा बनाने में मदद की। इल्म साथ चला। जिंदगी में इतने हादसे हुए कि तजुर्बों की कमी कहां रही। शादी की जो चली नहीं। बच्चियों के लिए कभी अच्छा पिता नहीं बन पाया।
क्या यह सच है कि आपने भारत की नागरिकता भी चाही थी?
हां, सच है। लेकिन मुझे दी नहीं किसी ने। वीजा कुछ देर के लिए एक्स्टेंड हुआ लेकिन फिर हुआ कुछ नहीं।
आप दोबारा शादी भी करना चाहते थे?
हां, करना चाहता था। लेकिन कुछ हो नहीं सका।
आपके पाकिस्तान के एक शायर हैं, मशहर बदांयुनी। उनका एक शे’र है जिसे मैं आपके लिए सवाल की तरह पेश कर रहा हूं :
चढ़े दरिया से वापस आने वालो
कहो कैसा रहा उस पार रहना?
कुछ नहीं यार….जवाब में मेरा ही शेर सुन लो :
बाहर गुज़ार दी कभी अंदर भी आएंगे
हमसे ये पूछियो कभी हम घर भी आएंगे?
खद से बिछड़े लोग कभी कुछ कह पाते हैं भला। क्या पूछ रहे हो?
अच्छा आप दस साल तक अवसाद में रहे, टीबी हो गया। फिर ये किताबें, मुशायरे ये सब कैसे हुआ, रोशनी में कैसे आए?
मेरा एक दोस्त था सलीम जाफरी। कमाल की निज़ामत करता था मुशायरों की। उसने देखा कि जॉन तो मेंटल केस हो रहा है। वह मुझे दुबई ले गया। अंधेरों से मोहब्बत करने वाला यह शख्स वहीं रोशनी में आया।
किसी के गले लग कर भी तन्हा रहने की जो अदा है आपकी, यह तो किसी को पहलू में बिठा कर भी तन्हा होने का अहसास है आपका….उसके बारे में कुछ बताइए?
यह अदा नहीं है बच्चे और न अहसास है। यही मेरी हकीकत है। मैं फितरतन ऐसा हूं। किसी चीज के परवान चढ़ने में ही उसकी ढलान लिखी होती है। मैं इल्म का सताया हुआ, इल्म का मारा हुआ आदमी हूं। इल्म सब कुछ नहीं है यार। शेर सुनाे :
आप अपना गुबार थे हम तो
याद थे यादगार थे हम तो
हमको यारों ने याद भी न रखा
जॉन यारों के यार थे हम तो
और सुन…..
अपना ख़ाका लगता हूँ
एक तमाशा लगता हूँ
उस से गले मिल कर ख़ुद को
तन्हा तन्हा लगता हूँ
कुछ कमी रह गई हो तो यह भी सुनो
तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो
जो मिले ख़्वाब में वो दौलत हो
तुम हो ख़ुशबू के ख़्वाब की ख़ुशबू
और इतने ही बेमुरव्वत हो
तुम हो पहलू में पर क़रार नहीं
यानी ऐसा है जैसे फुरक़त हो
अपने समकालीनों में किन लोगों को अधिक पसंद करते हैं?
नाम लेना अजीब लगता है। लेकिन पीरज़ादा कासिम, ओबेदुल्ला अलीम, कतील शिफाई, परवीन शाकिर, अहमद फराज़, फैज़ साहब समेत कई लोग हैं। पुराने वालों में सिर्फ मीर साहब। गालिब इसलिए नहीं क्योंकि मेरी नजर उन्होंने बमुश्किल 25 शे’र ठीक से कहे होंगे। भारत में मजरूह सुल्तानपुरी से लेकर मलिक जादा मंजूर अहमद, शुजा खावर, नवाज देवबंदी, वसीम बरेलवी, शहरयार जैसे नाम हैं। नए लोगों पर नहीं कहूंगा लेकिन अमीर इमाम ने रंग बांधा हुआ है। सच्ची बात सुनो जानी…भारत का हर शायर प्यारा है क्योंकि मैं सारी उम्र मन से भारतीय ही रहा हूं।
अब क्या प्रोग्राम है,आगे कहां जाएंगे?
है बिखरने को ये महफ़िल-ए-रंग-ओ-बू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
हर तरफ़ हो रही है यही गुफ़्तुगू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
हम हैं रुस्वा-कुन-ए-दिल्ली-ओ-लखनऊ अपनी क्या ज़िंदगी अपनी क्या आबरू
‘मीर’ दिल्ली से निकलने गए लखनऊ तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
आप क्या चाहते हैं कि जॉन को कैसे याद रखा जाएृ?
दो जॉन एलिया हैं। एक निजी जिंदगी आैर थियेट्रिक्स वाला जॉन एलिया और दूसरा है शायर, अनुवादक, संपादक। गुजारिश है कि मेरे अंदर के शायर को और खोदें।
वह दान वाला शेर सुनाइए न !!!
उम्र गुजरेगी इम्तिहान में क्या
दाग ही दोगे मुझको दान में क्या
यूं जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या
ये मुझे चैन क्यों नहीं पड़ता
एक ही शख्स था जहान में क्या
(लेखक ‘दैनिक जागरण’ के राज्य संपादक हैं. अख़बार में प्रकाशित उनके लेख को अनुमति लेकर यहां प्रकाशित किया गया है।)