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काफल: स्वाद के साथ सेहत और सबक भी देता है ये पहाड़ी फल

इन हिमाचल डेस्क।। गर्मियां आते ही हिमाचल प्रदेश के बाजारों में काफल नजर आने लगते हैं। ऊंचे इलाकों में रहने वाले लोग टोकरियों वगैरह में काफल लाते हैं और उन्हें बेचते हैं। लाल रंग का यह फल (बेरी कहें तो ज्यादा ठीक होगा) देखने में ही इतना आकर्षक लगता है कि खाने को दिल मचलने लगता है। और आप खा लेंगे एक बार तो मन नहीं भरेगा खा-खाकर।

खट्टा-मीठा सा यह फल रसीला होता है और अंदर एक गुठली भी होती है। अगर आप हिमाचल प्रदेश या उत्तराखंड जाएं इस सीजन में तो कोशिश करें काफल चखने को मिल जाए। फोटो देखकर कई बार लोग इसे शहतूत समझ लेते हैं मगर यह बहुत अलग तरह फल है।

काफल या कफल का साइंटिफिक नेम Myrica esculenta है। यह छोटा पेड़ होता है जो हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और नेपाल में पाया जाता है। इसे बॉक्स मर्टल, बेबेरी भी कहा जाता है। यह नेपाल, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के 3 हजार फीट से 6000 फीट ऊंचाई वाले इलाकों में ज्यादा पाया जाता है। नेपाल में तो यह 1500 मीटर ऊंचाई वाले इलाकों में भी मिलता है।

Image: @burnie.420

आयुर्वेद में इसे कई औषधीय गुण बताए गए हैं। फूलों के रंग के आधार पर इसकी दो वराइटीज़ बताई गई हैं आयुर्वेद में- सफेद और लाल। इसकी छाल को टैनिंग के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। काफल फैमिली की कई किस्में एशिया के अन्य देशों, यूरोप, अफ्रीका और अमेरिका में भी पाई जाती हैं। उनके पौधों की किस्म अलग होती है और फल भी थोड़े-बहुत अलग होते हैं।

लोक संस्कृतियों में काफल का बड़ा महत्व है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में कई गाने ऐसे हैं जिनमें काफल का जिक्र है। काफल को लेकर कई कहानियां भी प्रचलित हैं। इनमें से एक कहानी ऐसी है कि जिसे हिमाचल प्रदेश में बुजुर्ग लोग बच्चों यह शिक्षा देने के लिए सुनाया करते थे कि तुरंत किसी नतीजे पर नहीं पहुंचना चाहिए और बेवजह गुस्सा नहीं करना चाहिए:

एक मां अपनी बेटी के लिए काफल लेकर आई। मां ने बेटी से कहा कि अभी मैं किसी काम से जा रही हूं, शाम को आऊंगी तो साथ खाएंगे। बेटी ने कहा ठीक है, साथ ही खाएंगे। मां काम से चली गई और बेटी खुशी-खुशी इंतजार करती रही कि कब मां आएगी और कब हम काफल खाएंगे। शाम को मां आई तो बेटी चहक उठी। मां ने कहा लाओ वो टोकरी। बेटी झट से टोकरी ले आई।

मां ने देखा कि सुबह जब वह जंगल से काफल तोड़कर लाई थी, तब तो टोकरी लबालब भरी थी। मगर अब काफल कम हो गए है। पक्का इसने मेरे पीछे खाए होंगे। मां को गुस्सा आ गया कि उसकी बेटी इतनी लालची हो गई मेरी बात ही नहीं मानी। गुस्से में मां ने बेटी को घर से निकाल दिया और कहा कि निकल जा यहां से और दोबारा अपनी शक्ल मत दिखाना। बेटी रोते हुए बोलती रही कि मां, मैंने नहीं खाए काफल। मगर मां ने एक नहीं सुनी और दरवाजा बंद कर लिया।

रात हो गई। मां ने भी काफल को हाथ नहीं लगाया। टोकरी वहीं आंगन में पड़ी हुई थी। चूंकि दिनभर के काम से थककर आई थी तो उसे नींद भी आ गई थी। सुबह अहसास हुआ कि मैंने तो बेटी को रात भर बाहर छोड़ दिया। जंगल के बीच इतने जानवर हैं… हाय, कैसी मां हूं मैं। झट से उसने दरवाजा खोला। सामने वही टोकरी पड़ी थी जिसमें काफल थे। वह टोकरी भर गई थी और काफलों से लबालब हो गई थी। मां को अहसास हुआ कि मैंने बिना वजह बेटी पर शक किया, काफल दिन में गर्मी की वजह से सिकुड़ गए थे, इसी वजह से मुझे लगा कि कम हो गए। मगर रात को शीतल और नम हवाओं से फिर अपने सामान्य आकार में आ गए और टोकरी भर गई।

मां को अहसास हुआ कि मैंने बेवजह बेटी पर शक किया। वह निकली और बेटी को ढूंढने लगी तो उसके खून के निशान मिले। शायद रात को किसी जंगली जानवर ने लड़की को शिकार बना लिया था। मां ने आत्मग्लानि में नदी के पास जाकर ऊंची ढांक से छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। कहते हैं कि आज भी वो मां-बेटी पंछियों के रूप में गर्मियों में एक पेड़ से उस पेड़ पर फुदकती हैं और अपना पक्ष रखती हैं। बेटी कहती है- काफल पके, मैं नी चखे यानी मैंने काफल नहीं चखे हैं। नीचे सुनें उस पक्षी की आवाज, जिसका जिक्र इस दंतकथा में है-

कुकु-कुकु की आवाज निकालने वाला भारतीय पक्षी- Cuculus micropterus

दूसरे पक्षी की आवाज सुनाई देती है जो काफी दर्द भरी लगती है- “पूरा है पुत्री, पूरा है। वैसे जिस पक्षी का उल्लेख किया गया है वह भारतीय रिंग नेक डव है। उस फाख्ते की आवाज तो हमें नहीं मिली मगर उसकी अन्य प्रजातियों की आवाजों से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वह कैसी आवाज निकालता होगा।

दंत कथाएं हमारे पूर्वजों की कल्पनाशीलता को दिखाती है। इस कहानी से सबक यही मिलता है कि बिना वजह किसी पर शक नहीं करना चाहिए और दूसरी बात यह कि गुस्सा नहीं करना चाहिए क्योंकि उससे नुकसान भी हो सकता है।

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