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जानें, कैसे हुआ सरकारी स्कूलों का बंटाधार, कैसे होगा हालत में सुधार

बोर्ड एग्जाम के रिजल्ट आ रहे थे। मेरिट लिस्ट में एक एक ट्रेंड मैंने नोटिस किया की बच्चे अब शायद ज्यादा प्रतिभाशाली होते जा रहे हैं। यह बात मैं मेरिट होल्डर्स द्वारा अर्जित पर्सेंटेज मार्क्स के बेस पर कह रहा हूं। एक दशक पहले जब मैं स्कूल से निकला था, उस दौरान मेरिट 85-90 पर्सेंटेज के बीच रहती थी। जो अब 95 से ऊपर या यूं कहें कि लगभग 100 परसेंट को छूने लगी है। इसके क्या कारण हैं, इन पर मैं नहीं जाता। इसका श्रेय मैं बच्चों को ही देना बेहतर समझता हूँ। परन्तु जिस चीज ने मेरा ध्यान ज्यादा अपनी और खींचा और मुझे व्यथित किया वो यह थी कि 10वीं और 12वीं दोनों बार्ड के रिजल्ट में सरकारी स्कूलों की भागीदारी नगण्य थी। वर्षों तक एक सरकारी स्कूल का छात्र होने के नाते मैं सरकारी स्कूलों की इस दुर्दशा को आमतौर पर अन्य लोगों की तरह मैं अध्यापकों के सर पर नहीं मढ़ सकता बल्कि इस चिंतन में हमेशा रहा हूं कि आखिर सरकारी स्कूल क्यों पिछड़े? यही अध्यापक तो आज भी हैं, जो इन्हे दशकों तक सिरमौर बनाए हुए थे। फिर किन कारणों से यह मेरिट लिस्ट की दौड़ से बाहर हुए। क्या सिर्फ शिक्षा व्यवस्था का एकमात्र स्तम्भ सिर्फ शिक्षक ही है?

हम लोग मिलकर चर्चा आरम्भ करेंगे तो हो सकता है इस दिशा में कुछ बेहतर निकल कर आये। क्योंकि cause and effect रिलेशन पर अगर माथापच्ची की जाए तो समस्या का समाधान ( solution ) निकल सकता है। अगर हम सिर्फ किसी एक पैरामीटर यानि सिर्फ कॉज या सिर्फ इफ़ेक्ट को पकड़ कर गला फाड़ते रहें तो सिवाय नकारात्मकता के कुछ भी हाथ नहीं आएगा। इसलिए उपरोक्त फिलॉसफी को ध्यान में रखते हुए अपने लेख के माध्यम से मैं अपने अनुभव के आधार पर सरकारी स्कूलों के पिछडने के हर कारण की व्यवख्या करना चाहूंगा और इन कारणों से उत्पन्न इफेक्ट पर रौशनी डालूंगा। साथ ही इसमें क्या सुधार किया जा सकता है, उस पर भी अपने विचार रखूंगा।

सोशल मीडिया पर लोगों के तर्कों के आधार पर सरकारी स्कूलों के बिगड़ते स्तर से सबंधित विभिन्न कारण मैंने इक्कठे किए हैं। इनमे से बहुत से वही कारण है जो मैं भी अपने व्यक्तिगत अनुभव से फील करता हूँ। साक्षी ठाकुर ने इसका कारण इनकम लेवल को भी बताया है , वहीं तन्वी गुप्ता का कहना है की ग्रेडिंग सिस्टम से पढ़ाई पर असर पड़ा है। फेल न होने के डर से क्वॉलिटी डाउन हुई है। वहीं ऋषि संन्यासी का मानना है की अब यह देखादेखी का चलन भी बन गया है कि पडोसी का बच्चा अगर कॉन्वेंट स्कूल में जाता है तो मेरा भी जाना चाहिए। खैर ऐसे बहुत से कारण लोगों ने गिनाए।

1992 से लेकर 2001 तक मैं भी सरकारी स्कूल में पढ़ा। मेरे गांव के बगल में वो स्कूल था। उस दौर में शिक्षा का निजीकरण इतना नहीं हुआ था। राजकीय स्कूलों के साथ या सिर्फ DAV और ससरस्वती विद्या मंदिर जैसे स्कूल थे या सिर्फ शिमला डलहौजी कसौली के कान्वेंट स्कूल थे जहाँ मध्यमवर्ग अपने बच्चों को पढ़ाने के बारे में नहीं सोच सकता था। हालाँकि इक्का दुक्का और भी निजी स्कूल रहे हों, इस से इंकार नहीं किया जा सकता । यहीं एक अनुभव से मैं पूरे प्रदेश के लिए देखूंगा और सबसे पहले गिरते स्तर के कारणों पर बात करूँगा।

सरकारों की अल्पसोच
जिस दौर में मैंने पढ़ाई की, उस समय आसपास के लगभग 15 गांवों का इकलौता यह स्कूल सिर्फ 8th क्लास तक था। स्कूल के पास जमीन की कोई कमी नहीं थी, न बच्चों की कमी थी, न अध्यापकों की। 5th क्लास तक ही हेडमास्टर मिलाकर 7 टीचर 5 क्लासों के लिए थे। एक दो टीचर अगर अगर गैर-अध्यापन कार्यों में भी लग जाते थे तो भी 5 टीचर कक्षाएं सँभालने के लिए बचते थे। यानि मतदान ड्यूटी , जनगणना ड्यूटी आदि से भी शिक्षा पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता था। कमी थी तो सिर्फ मूलभूत सुविधायों को अपग्रेड करने की। बिल्डिंग सही नहीं थी, बजट नहीं था , टॉयलेट तक नहीं बने हुए थे , फटी पुरानी चटाई पर ही बैठना होता था।

किसी भी समाज को अगर तरक्की की राह पर ले जाना हो तो तीन चीजों पर सबसे पहले कार्य करना होता है वो है शिक्षा , स्वास्थ्य एवं ट्रांसपोर्ट। हिमाचल प्रदेश की सरकारें शिक्षा के मामले में हमेशा उदासीन रहीं। यह जो मैंने स्कूल के हालात बताए इन्हें सुधारने के लिए कोई ध्यान नहीं दिया गया। यह फेलियर ऑफ पॉलिसी है, जो इस देश की बहुत बड़ी समस्या रही है। यहां 28 राज्यों के लिए केंद्र से एक ही पॉलिसी बना दी जाती है। यह नहीं देखा जाता कि यहां हर स्टेट के समीकरण अलग हैं। समस्या अलग है तो समाधान भी तो अलग होगा। बिहार, झारखण्ड, हरियाणा और अन्य भी बहुत से राज्यों में लड़कियों जब गांव के स्कूल में शिक्षा ग्रहण कर लेती थीं तो उन्हें रूढ़िवादी सोच या समाजिक हालात के तहत उस से उच्च शिक्षा लेने के लिए दूसरे गाँव के स्कूल भी नहीं भेजा जाता था। कहीं कहीं देश में देखा गया था कि जिस गाँव में स्कूल हैं, वहां के बच्चे पढ़ रहे हैं परन्तु बाहर के गांवों से बच्चे नहीं आ रहे हैं। इसी समस्या को पूरे देश की समस्या मानते हुए केंद्र ने उस दौर में सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर हर राज्य को नए स्कूल खोलने के लिए बजट देना आरम्भ किया। हिमाचल में उपरोक्त कोई समस्या नहीं थी फिर भी यह मॉडल यहाँ के पालिसी मेकर्स ने भी ऐक्सेप्ट कर लिया।

पहले 15 गांवों का इकलौता स्कूल था, जहाँ ख़ुशी-ख़ुशी बच्चे दूर-दूर से पढ़ने आते थे। मगर अभ उस स्कूल के आसपास सबसे पहले दो प्राइमरी स्कूल खोले गए और वह भी डेढ़ से 3 किलोमीटर के दायरे में। यह दूरी भी बाइ-रोड मानी गई, जबकि पगडंडियों से ये स्कूल नजदीक पड़ते थे।यह किसके लिए हुआ? वोट बैंक के लिए और लोगों के तुष्टिकरण के लिए। एक-एक कमरे में 20-25 बच्चों के साथ यह स्कूल चलने शुरू हो गए। जो 7 टीचर एक स्कूल में थे, उन्हें इन स्कूलों में बांट दिया गया। अब हर स्कूल में औसतन 2 टीचर बचे। जो अध्यापक पहली से पांचवीं तक 40-50 बच्चों के एक बैच को ही पांच साल तक पढ़ाता था। वो अध्यापक एक वर्किंग डे में अब कभी फर्स्ट क्लास के 5 बच्चों को पढ़ा रहा था तो कभी उसी दिन तीसरी क्लास के 9 बच्चों को पढ़ा रहा था। मतगणना में जब उसकी ड्यूटी लगती थी तो स्कूल में उसकी क्लास की पढ़ाई बंद, क्योंकि एक ही टीचर बाकी बचता था। वो 5 क्लास कैसे पढ़ाए और क्या-क्या पढ़ाए?

विकास के नाम पर दिखाने के लिए नेताओं को भी अच्छा मसाला मिल गया। शिक्षा के नाम पर उस दौर में सिर्फ हिमाचल में स्कूल ही खुले। उनकी और पहले से खुले सरकारी स्कूलों की कोई अपग्रेडशन नहीं हुई। आज भी सिर्फ प्राइमरी लेवल की बात की जाए तो यह स्कूल 5 क्लास को 2 या तीन कमरों के भवन में चलाते हैं, बाकी 2 क्लासें कहीं बरामदे या पेड़ की छाया में बैठी होती हैं। शिलान्यास से लेकर उद्घाटन पट्टिकाएं लगती गईं और शिक्षा व्यवस्था सुबकती रही। जब गांवों के स्कूल स्टूडेंट्स से भरे पड़े थे, जनता मांग करती थी कि कमरे बढ़ाए जाएं। 10 हैं तो 12 कर दिए जाएं। तब बजट न होने की बात कही गई। मगर बाद में बजट आया और 2-2 कमरों के स्कूल बना दिए गए। अब बच्चे बंट गए। कमरे ही कमरे बन गए, मगर वहां पढ़ने वाले बच्चे नहीं रहे।

अध्यापकों के टैलेंट का फायदा नहीं उठाया गया
दुनिया बदल रही थी। अंग्रेजी भाषा का ज्ञान आने वाले समय में सबके लिए जरूरी हो रहा था। इंजिनियरिंग, मेडिकल के राष्ट्रीय एवं राजकीय एंट्रेंस एग्जाम इसी भाषा में हो रहे थे। मगर हिमाचल प्रदेश में शिक्षा क्षेत्र के कर्णधार सरकारी स्कूलों में इंग्लिश माध्यम की शिक्षा को भी यूं चुन-चुन कर कुछेक स्कूलों में लागू कर रहे थे, जैसे इसे एकमुश्त हर स्कूल में लागू करने के लिए पता नहीं क्या हवन यज्ञ पहले करवाना पड़ता। जिन स्कूलों में इंग्लिश मीडियम शुरू हुआ, वह भी वहां के अध्यापकों की वजह हो पाया। नेता लोग स्कूल के ऐनुअल फंक्शन में आते और फ्लांना स्कूल इंग्लिश मीडियम होगा, इसकी घोषणा ऐसे करते जैसे जनता पर पता नहीं क्या एहसान कर दिया हो। वो भी उस दौर में जब, गली-गली में दो कमरों के निजी स्कूल भी गाँव-गाँव में खुल चुके थे और शुरू से इंग्लिश मीडियम के नाम पर सरकारी स्कूलों को आधी स्ट्रेंथ अपने नाम कर चुके थे। सरकारी स्कूल का टीचर राजकीय स्तर पर टेस्ट इंटरव्यू क्वॉलिफाई करके आता है। उसके पोटेंशयल का फायदा नहीं उठाया गया। क्या वो इंग्लिश मीडियम नहीं पढ़ा सकता था? शिक्षा के कर्णधार यहां भी सुस्त पाए गए जो कार्य वर्षों पहले हो जाना चाहिए था, वह सरकारी क्षेत्र में 10 साल बाद शुरू हुआ।


हिमाचल प्रदेश में मिड-डे मील योजना भी अभिवावकों द्वारा अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से निकालकर निजी स्कूलों की ओर ले जाने का कारण रही। क्योंकि हिमाचल प्रदेश इतने गरीब राज्यों में नहीं था जहाँ मील के नाम पर लोग अपने बच्चों की स्कूलों में भेजते। लोगों को मत था कि बच्चों को खाना हम खिला देंगे, स्कूल सिर्फ स्टडी पर फोकस करें। इस योजना के कारण एक टीचर जो अब जनगणना से लेकर मतदान तक अपनी ड्यूटी दे रहा था अब रोज-रोज के दाल भात के जुगाड़ में भी बिज़ी कर दिया गया। रोज-रोज चेंज होती खान पान सामग्री की दरों और इन्फ्लेशन के लोचे में उसका सिर चकरा गया है। उसकी चिंता बच्चों की स्टडी नहीं बल्कि कब राशन खत्म हो गया, उसका जुगाड़ करो। मिड डे मील वर्कर हड़ताल पर चले गए अब खाना कैसे बनवाया जाए। पीछे से कोटेशन कुछ और आई थी मार्किट में दाल सब्जी उस से महंगी हो गई अब क्या करे इन्ही मुद्दों पर सिमटकर रह गयी है। हम देख सकते हैं पढ़ाने के लिए जिस व्यक्ति का प्रोफेशन है उसे कहा उलझा दिया।

मिड डे मील सरकार स्कूलों में दे इसमें मुझे आपत्ति नहीं है पर अध्यापकों को उसमे न घसीटे कोई भी राज्य सरकार इसे हैंडल करने के लिए टेंडर निकाले और बाहरी फर्म को यह कार्य सौंपे जो अपने कुक आदि रखकर इस कार्य को देखे। स्कूल शिक्षक सिर्फ गुणवत्ता चेक करें दाल सब्जी स गैस चूल्हा मिटटी का तेल लाने की टेंशन उनके सर पर न मढ़ी जाए तब भी तो मिड डे मील योजना चल सकती है।  निजी स्कूल इन सब उपरोक्त समस्याओं से पर थे। बेशक गांव में कहीं कहीं वो 2 कमरों में चल रहे हैं। पर इंग्लिश माध्यम ड्रेसिंग सेन्स और गाडी भेज कर बच्चे को घर से ले जाने से लेकर छाड्ने पर उन्होंने अभिवावकों का दिल जीत लिया है। टीचर पेरेंट्स को बुलाकर रिपोर्ट कार्ड बता दे रहे हैं। नोट बुक में होम वर्क लिख कर दे देते हैं जिसे घर में माँ पीट-पीटकर बच्चों से करवा रही है।

खैर ये अलग विषय है कि जब माँ को ही घर में बच्चों को पढ़ाना है तो स्कूल किसलिए हैं? सरकारी स्कूल परीक्षाओं में ऐक्चुअल मार्किंग करते थे, मगर निजी स्कूल बढ़ा-चढ़ाकर के मार्क्स देने लगे हैं ताकि हर माँ-बाप को अपना बच्चा होशियार लगे। यह लगे की बेशक वो फीस भर रहे हैं पर बच्चा सही परफॉर्म कर रहा है। हालाँकि वो करता भी है, इसमें दो राय नहीं है। डेस्क पर बैठता है, दुनियादारी सीख रहा है। सरकारी स्कूल अभी भी धूल-मिटटी से सनी चटाई में चल रहे हैं। 2014 -15 में भी राज्य सरकारें जिन स्कूलों में टॉइलट तक नहीं बनवा पाई हैं, यह काम भी अब जाकर स्वच्छ भारत मिशन से होने लगा है। वहां आप देख सकते हैं इंफ्रा स्ट्रक्चर और शिक्षा के उत्थान के लिए क्या विजन लेकर हमारे कर्णधार चले होंगे या आज भी उसी मूड में चल रहे हैं।

और भी असंख्य कारण हैं, उनपर जाता रहूँगा तो लेख नहीं नॉवल बन जाएगा। सरकारी स्कूलों को मुख्यधारा कैसे लाया जाए इसके लिए जो मैं सोचता हूँ, उस पर चर्चा की जा सकती है। सरकारी स्कूलों के पास सम्भवता हर कहीं खुल गए निजी स्कूलों की अपेक्षा ज्यादा एरिया इंफ्रा स्ट्रक्टर बनाने के लिए आज भी जगह या स्पेस मौजूद है। इसलिए इसका बेस्ट यूटिलाइजेशन जरूरी है। स्टाफ भी क्वालिफाइड हैं वो टेस्ट पास करके नौकरी पर लगते हैं यहाँ तक निजी स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापक भी यही सपना लेकर चलते है कि एग्जाम पास करके वो भी अध्यापकर लगकर सरकारी स्कूलों का हिस्सा बने। इसलिए पोटेंशल और टेलेंट की कहीं कमी नहीं हैं।

मॉडल स्कूल कॉन्सेप्ट
जैसा कि मैंने पहले भी कहा दो अध्यापकों के ऊपर चल रहे स्कूलों को बंद करना चाहिए और सर्वे के आधार पर निश्चित एरिया में जनसँख्या के आधार पर जिस स्कूल के पास अभी भी सबसे ज्यादा छात्र और इंफ्रा स्ट्रक्टर के लिए स्पेस है। वहां मॉडल स्कूल कॉन्सेप्ट पर कार्य होना चाहिए। मॉडल स्कूल मेरी नजर में ऐसा स्कूल, जहाँ नैशनल स्तर की लैब सुविधाएं हों। आधुनिक क्लास रूम्स हों। ब्रॉडबैंड से जुडी इंटरनेट सुविधाएं हों। ऑडिटोरियम से लेकर लाइब्रेरी हो। हर तरह की गेम के लिए जगह अवेलबल हो। इसके लिए धन के ज्यादा प्रावधान की भी जरूरत नहीं है, बल्कि जगह-जगह खोल दिए गए स्कूलों को एक दो कमरे डंगा टॉयलेट आदि बनांने के लिए जो बजट दिया जाता है, उसी को एक जगह पर लगाने की जरूरत है। अब जिस स्पेस और खर्चे के साथ चार स्कूलों में सरकार 15 बच्चों की क्लास के लिए चार रूम बन रहा है, उसकी जगह 60 के लिए मॉडल स्कूल के लिए एक बना दे।

मॉडल स्कूल निश्चित दूरी पर होंगे। कुछ छात्रों का निवास स्थान 15 किलोमीटर दूर भी हो सकता है। लेकिन इसमें भी क्या दिक्कत है, जब निजी स्कूल वाला बच्चों को बस सुविधा भेज कर घर-घर से उठा ले जा रहा है। तो क्या सरकारी स्कूल मॉडल स्कूल में परिवहन विभाग से गठजोड़ करके मुद्रिका टाइप बस चला सकते हैं, जो निश्चित क्षेत्र के छात्रों को सुबह शाम घर तक लेकर और छोड़ने जाए। वैसे भी प्रदेश में परिवहन निगम ने सरकारी स्कूल की वर्दी पहने छात्र को बस सेव मुफ्त कर रखी है। हालाँकि जब निजी स्कूल वाले को अभिवावक पैसा दे रहे हैं ट्रांसपोर्ट का तो इस बस में भी देंगे। बशर्ते उन्हें लगे कि नहीं, हमारा बच्चा सचमुच एक वर्ल्ड क्लास स्कूल में पढ़ने जा रहा है।

अध्यापकों की भी ग्रेडिंग होनी चाहिए।
जब एक ही मॉडल स्कूल होगा, बाकी बंद हो जाएंगे तो टीचर एक ही स्कूल में होंगे। इसलिए किसी टीचर की मतगणना या अन्य सरकारी कार्यों में ड्यूटी लगती है तो भी असली रिप्लेसमेंट के लिए स्कूल में टीचर मौजूद रहेगा। इस कारण पढ़ाई पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। साथ ही बच्चों और उनके अभिवावकों और रिजल्ट के फीडबैक के आधार पर अध्यापकों की ऑनलाइन ग्रेडिंग होनी चाहिए। जो अध्यापक हायर ग्रेडिंग पर हैं उन्हें मतगणना। जनगणना आदि जैसे गैर शैक्षणिक कार्यों में नहीं लगाया जाना चाहिए।

मिड डे मील
मॉडल स्कूल में मिड डे मील का कॉन्ट्रैक्ट किसी बाहरी फर्म को देना होगा। फैकल्टी का उसमें सिर्फ गुणवत्ता देखने के सिवा कोई रोल नहीं होना चाहिए। मील जमीन पर बिठाकर नहीं बल्कि एक मेस एरिया में लंच के समय सर्व होना चाहिए इस प्रयोजन से स्टडी इफेक्ट नहीं होनी चाहिए।

गेस्ट लेक्चरर
मॉडल स्कूल में पढ़ाई की गुणवत्ता के साथ-साथ राज्य सरकारों का विभागीय कोर्डिनेशन भी जरुरी होना चाहिए। समय- समय पर अपने अपने क्षेत्रों में अच्छा करने वाले प्रशासनिक एवं अन्य अधिकारी सफल विभूतियां गेस्ट लेक्चरर के रूप में बुलाए जाने चाहिए ताकि उनके अनुभवों से बच्चों को भविष्य के लिए फायदा मिले।

क्या यह नहीं हो सकता? क्या ऐसा मॉडल स्कूल बनाना सरकार के वश में नहीं है ? क्या 10 जगह बूँद-बूँद बजट बांटने की अंतहीन प्रक्रिया की जगह किसी एक स्थान पर ऐसे स्कूलों को डिवेलप करने का वक़्त नहीं आ गया है?  यही एक तरीका है जिस से सरकारी स्कूलों का उद्धार हो सकता है, वरना अभिवावक निजी स्कूलों में लुटते रहेंगे सरकार का शिक्षा बजट प्रदेश में गुणवत्ता बढ़ाने के काम नहीं आ पाएगा। कम से कम जिला स्तर पर एक एक स्कूल से तो शुरुआत बनती है। चलो अभी हर जिला में न सही, किसी क्षेत्र में एक स्कूल को इस मॉडल पर डिवेलप करते हुए तो देखा ही जा सकता है। पाठकों के विचार आपेक्षित हैं ताकि इस चर्चा को आगे बढ़ाया जा सके।

(लेखक हिमाचल प्रदेश से संबंध रखते हैं और आईआईटी दिल्ली में रिसर्च स्कॉलर हैं। क्लीन एनर्जी की फील्ड में काम करने वाली कंपनी ‘सनकृत एनर्जी प्राइवेट लिमिडेट’ के डायरेक्टर भी हैं। उनसे aashishnadda@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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