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पूरे भारत के लिए मिसाल है हिमाचल का यह गांव और यहां की प्रधान

मेरे लिए यह यक़ीन करना मुश्किल हो रहा था कि एक महिला किसी पंचायत की स्वतंत्र मुखिया भी हो सकती है। जी हां, ‘स्वतंत्र’ मुखिया क्योंकि अभी तक मैंने जितनी भी महिला प्रधान या सरपंचों से मुलाक़ात की है, वे सभी अपने पतियों के आसरे हैं। उनके बदले उनके पति ही बात करने के लिए सामने आते हैं। पंचायत का कामकाज उनके पति ही देखते हैं। अब तो महिला प्रधानों के ऐसे पतियों के लिए एक शब्द भी बन गया है ‘प्रधानपति’। पत्नी तो प्रधान होगी लेकिन बतौर प्रतिनिधि पंचायत के सभी अधिकार उसके पति के पास होंगे और यह सामाजिक रूप से स्वीकार्य भी है। गांव के लोग भी महिला प्रधान के पति को ही ‘प्रधानजी’ कहकर संबोधित करते हैं। महिलाएं चुनाव में खड़ी तो होती हैं, मगर यह क़वायद सिर्फ विकल्प के तौर पर होती है। जहां भी पंचायत की सीट महिलाओं के लिए रिज़र्व हो जाती है, वहां पर पुरुष अपनी पत्नी को चुनाव में खड़ा कर देता है। काग़ज पर पत्नी होती है, लेकिन चुनाव का चेहरा तक पति ही होता है। हालांकि शकुंतला देवी के साथ ऐसा नहीं था।
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हिमाचल प्रदेश के सोलन की शकुंतला देवी ग्राम पंचायत शमरोड़ की मुखिया हैं। उनका क्षेत्र वाईएस परमार यूनिवर्सिटी ऑफ हॉर्टिकल्चर ऐंड फॉरेस्ट्री के पास ही है। शकुंतला जी से मिलना मेरे लिए एक सरप्राइज़ ही था। हॉर्टिकल्चर यूनिवर्सिटी में ही मेरे ठहरने का इंतजाम था। रात को ख़्याल आया कि क्यों न इसी यूनिवर्सिटी के आस-पास के गांवों पर भी एक-दो स्टोरी कर ली जाएं। इसी विचार से मैं अपनी टीम के साथ गांवों की ओर बढ़ चला। वहां एक चाय की दुकान पर एक शख्स ने शकुंतला देवी जी के बारे में बताया और कहा कि वह मेरी मदद कर सकती हैं। मुझे बताया गया कि शमरोड़ गांव के ‘पंचायत भवन’ में मेरी उनसे मुलाक़ात हो सकती है। मैं शमरोड़ गांव की ओऱ बढ़ चला। पहाड़ी गांव होने के चलते रास्ता चढ़ाई से भरा था, लेकिन रास्तों में सुविधा का पूरा ख़्याल रखा गया था। पगडंडियों पर टाइल्स लगी हुईं थीं। ख़तरनाक ढलानों पर सीढ़ियां बना दी गईं थीं। गांव के भीतर घुसने ही वाला था कि एक बोर्ड दिखाई दिया। जिस पर लिखा था – ‘यदि कोई व्यक्ति खुले में शौच करता पाया गया तो उस पर 100 रुपये से 500 रुपये तक का जुर्माना किया जा सकता है।’ पॉलिथीन या कूड़ा-कर्कट फेंकने या गांव में सरेआम धूम्रपान करने पर भी जुर्माने का प्रावधान था।

प्राकृतिक सौंदर्य के बीच बसे इस गांव में इस तरह की कोशिश देखकर मेरा मन और हरा-भरा हो गया। हालांकि, मैंने आसपास मुआयना किया कि कहीं बोर्ड के आस-पास गंदगी तो नहीं फैली है लेकिन मुझे दूर-दूर तक कुछ भी दिखाई नहीं दिया। अलबत्ता रास्तों में सोलर लाइटें दिखाई दीं, ठीक वैसे ही जैसे शहरों में स्ट्रीट लाइट्स दिखाई देती हैं। पहाड़ों पर चढ़ते-चढ़ते सांस उखड़ चुकी थी मगर गांव की इन व्यवस्थाओं ने मुझे ऊर्जा से लबरेज कर दिया था। शमरोड़ गांव पहुंचने पर पता चला कि ग्राम प्रधान शकुंतला देवी पंचायत भवन में मीटिंग कर रही हैं। पंचायत भवन! मीटिंग! मैं थोड़ा सा हैरान था। इतने अर्से से मैदानी इलाकों में घूमता रहा हूं, लेकिन किसी भी गांव में ऐसा नहीं देखा कि पंचायत भवन का सही इस्तेमाल हो रहा हो। अधिकांश जगहों पर पंचायत भवन का सिर्फ ढांचा ही दिखाई देता है, जिनमें भेड़-बकरियां बैठी रहती हैं। इंसान के नाम पर जुआरी या शराबी मिलेंगे।

हालांकि शमरोड़ के पंचायत भवन में बाकायदा बैठक चल रही थी। पंचायत भवन के हॉल में से लोगों की चर्चा सुनाई दे रही थी। मीटिंग खत्म होने के बाद मैं शकुंतला जी से मिलने हॉल के अंदर दाखिल हुआ, तो वहां पर नज़ारा बिल्कुल अलग था। सेक्रेटरी साहब कंप्यूटर लिए बैठे हुए थे। ठीक वैसे ही, जैसे दूसरे ऑफिसों में कर्मचारी बैठे रहते हैं। पंचायत सदस्य लाइन से कुर्सी लगाए बैठे थे और शकुंतला जी एक बड़ी सी कुर्सी पर बैठी थीं। इस दौरान बातचीत करते हुए पता चला कि पंचायत सदस्य गांव के बजट पर चर्चा कर रहे थे। शकुंतला जी की पंचायत में 6 गांव आते हैं। इन्हीं गांवों में से एक ‘धारों की धार’ गांव के सरकारी स्कूल से एक अध्यापक भी मौजूद थे। अध्यापक महोदय स्कूल में मिड-डे मील के मेन्यु को लेकर कुछ बात कर रहे थे।

शकुंतला देवी रोज पंचायत भवन में 9 बजे से 12 बजे तक बैठतीं हैं। इस दौरान सभी 6 गांव के लोग अपने जरूरी कागजों को सत्यापित कराने या फिर दूसरे शिकायतों को लेकर पहुंचते हैं जिनका वह समाधान निकालने की कोशिश करती हैं। शकुंतला जी ने महिलाओं के लिए ‘स्वयं सहायता समूह’ का भी गठन किया है। इसके तहत महिलाओं को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के लिए ट्रेनिंग दी जाती है। संगठन से जुड़ी महिलाएं सिलाई-कढ़ाई के अलावा आचार बनाने और घर बैठे बाकी प्रफेशनल काम करती हैं। इस समूह की सदस्या के लिए फीस भी तय है। हर महीने सभी महिला सदस्य को 200 रुपये देने होते हैं। जब किसी महिला के घर शादी या कोई आयोजन होता है, तो सभी मिलकर उसकी आर्थिक मदद करती हैं। इन महिला समूहों ने एक बैंक भी बना लिया है, जो 2 पर्सेंट के ब्याज पर समूह की बाकी औरतों को लोन भी मुहैया करता है।

शमरोड़ गांव के सभी घरों में टॉइलट हैं और जिसके पास टॉइलट बनाने के पैसे नहीं हैं, उसकी मदद पंचायत और ‘स्वयं सहायता समूह’ करता है। शकुंतला जी ने मुझे बताया कि जब उनकी शादी हुई तब उनके घर में टॉइलट नहीं था। शौच के लिए उन्हें बाहर जाना पड़ता था। उन्होंने अपने पति से इसका विरोध किया। शकुंतला जी के पति को उस वक्त यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं लगी। ऐसे में उन्होंने अपने मायके चले जाना ही उचित समझा और वापस तभी लौटीं जब उनके पति ने घर में शौचालय बनवा दिया। शकुंतला जी ने तब इसे एक मुहिम की शक्ल दे दी और यहीं से उनकी सामाजिक और राजनीतिक गतिविधि शुरू हो गई।

उस दौर में उन्होंने अपनी चार-पांच महिला साथियों के साथ मिलकर शौचालय के लिए अभियान चलाया। उन्होंने बताया कि सुबह-सुबह ही वह अपनी महिला साथियों के साथ पहाड़ी के ऊपर चढ़ जातीं और जो भी खुले में शौच करता दिखाई देता उस पर कंकड़ मारतीं। शुरू में मामला काफी तनातनी वाला रहा। लोगों ने उनके पति से शिकायत भी की लेकिन बाद में धीरे-धीरे लोगों ने समझना शुरू किया। जिनके पास पैसे थे, वे लोग अपने घरों में शौचालय बनाने लगे लेकिन ग़रीब तबके के लिए यह एक चुनौती थी। उसी दौरान शकुंतला जी ने पंचायत का चुनाव लड़ा और अच्छे अंतर से जीत भी दर्ज की। ग्राम प्रधान बनते ही उन्होंने सबसे पहले गरीब तबके के लिए शौचालय बनवाने का काम किया। इस दौरान जब पैसों की कमी हुई, तो गांव के ही लोगों ने चंदा देकर मदद की।

आज की तारीख़ में यह गांव न सिर्फ हरा-भरा है, बल्कि साफ-सुथरा भी है। शकुंतला जी के साथ महिलाओं का एक बड़ा समूह काम करता है। इन लोगों ने पहाड़ी के जल-स्रोतों का बेहतर इस्तेमाल ढूंढ निकाला है। सभी की कोशिशों की वजह से गांव के ऊपरी हिस्सें पर एक टैंक बनाया गया है, जहां पानी इकट्ठा किया जाता है। यहां से हर गांव में पानी की सप्लाई पंहुचाई गई है। मैंने शकुंतला जी और बाकी महिलाओं से पूछा भी कि जब वे सभी सामाजिक कामों में लगी रहती हैं, तो उनका घर कैसे चलता है? परिवार के बाकी सदस्य ख़ासकर पति इसका विरोध नहीं करते? जवाब था कि वे नौकरियों में व्यस्त रहते हैं या फिर खेतों में काम करते हैं। बाकी घरेलू काम वे लोग इसी दौरान मैनेज कर लेती हैं। उल्टा इस काम के लिए उनके पतियों का उन्हें पूरा समर्थन हासिल है और यह सिर्फ शमरोड़ ही नहीं, बल्कि सोलन ज़िले के अधिकांश घरों में देखने को मिल जाएगा। हालांकि कमाल की बात यह भी है कि उनके पतियों से खटपट उसी तरह से होती है, जो देश के आम दंपति में होती रहती है।

शमरोड़ के अलावा मैंने उनसे दूसरे गांवों में भी जाने की बात कही। मेरे साथ मेरे और भी साथी थे। हम सभी शकुंतला जी के साथ सोलन ज़िले के सबसे हाइट पर बसे गांव ‘धारों की धार’ की ओर चल दिए। धारों की धार गांव उनकी पंचायत के सबसे आखिरी छोर पर बसा गांव है इसलिए हम लोगों ने पहले अपनी गाड़ी से फिर वहां से पैदल जाने का निश्चय किया। शकुंतला जी का एनर्जी लेवल भी कमाल का था। एक गांव से दूसरे गांव की दूरी वह पैदल ही तय कर लेती हैं। मेरे जैसा युवा आदमी हांफते-फिसलते रास्ता तय कर रहा था मगर उन्हें जंप लगाते और टापमटाप कदमों से चढ़ाई चढ़ते देख मैं हैरान था। ऐसे में रहा नहीं गया और नैतिकता का लबादा फेंक उनसे उनकी उम्र पूछने का दुस्साहस कर बैठा। कई बार मुझे टोका जा चुका है कि महिलाओं से उनकी उम्र पूछना नैतिक रूप से ग़लत है, भले ही वह महिला 70 साल की बुढ़िया ही क्यों ना हो। मेरे सवाल पर शकुंतला जी मुस्कुराईं और पूछा, ‘आप यह क्यों पूछ रहे हैं?’ मुझे उनके इस सवाल की पहले से ही उम्मीद थी, ऐसे में बिना देर किए मैंने उनकी बढ़ाई में ताबड़तोड़ कई बातें रख दीं। इस दौरान वह हंसती रहीं और गेस लगाने की बात कहकर सवाल टाल गईं। बस इतना बताया कि उनके बेटे-बेटियां कॉलेज में पढ़ते हैं।

 ‘धारों की धार’ पहुंचकर हम लोग वहां के जूनियर हाई स्कूल के पास खड़े थे। यहां एक और प्यारी सी बात दिखाई दी। स्कूल जाता हुआ हर स्टूडेंट हमें ‘नमस्ते जी’ बोलकर आगे बढ़ रहा था। मैंने इस विलुप्त होते आचरण के बारे में वहां के बाकी लोगों से पूछा। लोगों ने बताया कि इनके अध्यापकों ने इन्हें इसकी शिक्षा दी है। मैं हैरान था कि सिलेबस के अलावा नैतिक शिक्षा भी दी जाती है और वह भी सरकारी स्कूल में! बच्चों के इस आचरण ने हमारे सभी साथियों को गदगद कर दिया था। जानकारी के लिए बता दूं कि हमारी टीम के सभी साथी दिल्ली या फिर एनसीआर में रहते हैं।

स्कूल में गया तब प्रार्थना-सभा चल रही थी। वहां, बच्चों की संख्या लगभग 60 के आसपास थी। प्रार्थना के बाद छात्रों में से ही एक छात्र देश-विदेश के मुख्य समाचारों को लेकर हाजिर हुआ। इसके बाद दौर शुरू हुआ जीके के प्रश्नों का। यह दृश्य देखकर वाकई मज़ा आ गया। एक तरफ लड़कों की कतार थी और दूसरी तरफ लड़कियों की। जीके के सवालों का दौर 15 मिनट चला। इसके बाद सभी छात्र अपनी-अपनी कक्षाओं में चले गए। स्कूल के प्रधानाध्यापक ने बताया कि प्रार्थना सभा के बाद रोज न्यूज़ रीडिंग के बाद सब्जेक्ट आधारित 15 मिनट की एक प्रतियोगिता होती है।

सरकारी स्कूल में ऐसी पढ़ाई देखकर मन सोच रहा था कि काश! यह सुविधा देश के बाकी सभी हिस्सों में हो जाती। अक्सर मैं स्कूलों की इमारतों में घोटाले देखता हूं, मगर यहां की इमारत काफी अच्छी थी। यहां एक पार्क सा भी बनाया गया था, जहां पर बच्चों के खेलने का सारा साजो-सामान था।

बतौर ग्राम प्रधान शकुंतला जी ने अपने गांव में शिक्षा स्तर को बेहतर बनाने के लिए अध्यापकों के साथ बैठकर ही समाधान निकाला। पंचायत के सभी स्कूलों के अध्यापकों ने शकुंतला जी का साथ दिया और शकुंतला जी ने उनका। रिजल्ट मेरे सामने था। जहां मैदानी इलाकों के सरकारी स्कूलों में बच्चों को ठीक ढंग से अपना नाम और पता लिखना नहीं आता है। वहीं, सोलन के इस सरकारी स्कूल के बच्चे हिंदी और अंग्रेजी में निबंध लिख ले रहे थे। मैं यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश और हरियाणा के गांवों में स्थित कई सरकारी स्कूलों में गया, लेकिन वहां छात्र एनरोलमेंट के हिसाब से मौजूद भी नहीं थे। कई जगहों पर एक ही अध्यापक एक से पांचवी कक्षा तक के छात्रों को पढ़ाने की खानापूर्ति कर रहा था लेकिन यहां पर सभी विषय के लिए अलग-अलग अध्यापक मौजूद थे।

अपने विषयों को लेकर भी बच्चे काफी जागरूक थे। कहा जाता है कि जैसा समाज होता है, लोगों पर भी उसकी वैसी ही छाप होती है। सोलन के गांवों में यह देखने को बखूबी मिला। सोलन के अलावा हिमाचल की अधिकांश जगहों पर घूमने के बाद यही अनुभव हुआ कि यहां का समाज शांतिप्रिय और संजीदा है। यहां के अधिकांश कार्यों में महिलाओं की भागीदारी मैदानी इलाकों से कहीं ज्यादा है। यही वजह है कि एक महिला ग्राम-प्रधान ना सिर्फ अपने घर में भी सम्मान और समर्थन पाती है, बल्कि अपने पंचायत क्षेत्र में भी उसे बराबरी का सम्मान और समर्थन मिलता है।


‘धारों की धार’ से निकलने के बाद मैंने शकुंतला जी से विदा ली और उन्हें जीवन में और अहम पद मिले, इसकी शुभकामना देकर चल दिया। पहाड़ी घुमावदार रास्तों के साथ-साथ मेरे दिमाग में भी कई विचार उमड़-घुमड़ रहे थे। आख़िर कब मैदानी इलाकों ख़ासकर उत्तर भारत में महिलाएं इस तरह से सबल होंगी? कब पुरुष समाज उनके अंतर्गत काम करना अपनी हेठी नहीं समझेगा? कब महिलाएं ‘फलाने की पत्नी’ की टैग-लाइन से छुटकारा पाएंगी?


लेखक: अमृत कुमार तिवारी, प्रड्यूसर: Green TV, ईमेल: amrit.writeme@gmail.com

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