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हिमाचल में कमजोर हो रही हैं दोनों राष्ट्रीय दलों की दीवारें

  • विवेक अविनाशी।।
हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2017 में विधानसभा के चुनाव हैं। प्रदेश में दोनों राष्ट्रीय दल यानी भारतीय जनता पार्टी और  कांग्रेस  पार्टी की राजनीतिक दीवारें निरंतर कमजोर होती जा रही हैंl दोनों ही राष्ट्रीय दल तीव्र आंतरिक गुटबाजी की वजह से त्रस्त हैं और मतदाताओं में पार्टी संगठन की पकड़ कमजोर होती जा रही हैl पार्टियों के कार्यकर्ता गुटों में बंटे हुए हैं और सामान्तर राजनीतिक गतिविधियों को अंदरखाते अंजाम देकर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को अपने अस्तित्व का आभास देते रहते हैं।
कांग्रेस पार्टी का हाल भी वैसा ही है जैसा बीजेपी का हैl कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं का एक वर्ग उम्रदराज नेताओं से किनारा कर अपनी अलग पहचान बनाने के लिए छटपटा रहा है। ये युवा नेता राजनीति में अपनी पहचान बनाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। इनकी ज्यादा पहुंच युवाओं तक सोशल मीडिया के माध्यम से ही है। या तो वॉट्सऐप पर ग्रुप बनाकर ये आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं या फिर फेसबुक पर अपने समर्थन के पेजेस पर ख़ास पोस्ट डालकर अपनी बात एक-दूसरे तक पहुंचाते हैं। इसका सकारात्मक परिणाम भी हुआ है लेकिन अधिकांश ऐसे पेजेस के पोस्ट देख यही लगता है कि कही न कहीं दोनों ही पार्टियों  के अनुभवी नेता प्रदेश के इन युवाओं तक अपनी बात पहुंचाने में नाकाम हो रहे हैं।
यह किसी से भी छिपा नही है कि हिमाचल में बेरोज़गारी ज़ोरों पर हैl प्रदेश का युवा वर्ग जो  पढ़-लिखकर अपने प्रांत के लिए कुछ कर गुजरने की चाह रखता है, अपने गाँव की हालत देख कर मन मसोस कर रह जाता है। दिल्ली जैसे महानगर में सैंकड़ों ऐसे हिमाचल के युवक हैं जो रोज़ी-रोटी भी कमा रहे है और प्रदेश के लिए कोई सार्थक काम भी करना चाहते हैंl ऐसे युवाओं की आशा राजनेताओं पर ही टिकी रहती है। अब यह राजनेता अपने पक्ष में इन्हें कैसे कर पाते हैं ये तो वक्त ही बतायेगा लेकिन इन युवाओं में  प्रदेश की राजनीति को लेकर जो रोष है, उसका सीधा असर दोनों ही राष्ट्रीय दलों के कार्यकर्ताओं में देखा जा सकता हैl

हिमाचल की राजनीति पिछले एक दशक से कुछ ही नेताओं के इर्द –गिर्द घूम रही है और ऐसा दोनों ही दलों में है। पुत्र-मोह से ग्रसित  वीरभद्रसिंह और धूमल  अपनी राजनैतिक नाकामियों के इलावा अपने पुत्रों को राजनीति में स्थापित करने बारे आरोपों को भी एक दूसरे पर उछालते रहते हैं। हद तो तब हो गई जब धूमल के दूसरे बेटे ने भी वीरभद्र के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।


ठीक भी है, चर्चा में रहने के लिए इस तरह के अनापेक्षित कदम उठाना जरूरी भी है। पर क्या यह वर्तमान राजनीति का बदलता स्वरूप है या हिमाचल की राजनीति का विशेष अंदाज़? और हद तो यह भी है कि वीरभद्र जैसे  राजनीति में लम्बी पारी खेलने वाले अनुभवी नेता इन नेता पुत्रों के प्रति स्तरहीन भाषा का प्रयोग करते हैं। कांग्रेस का एक और मजेदार पहलू यह है जो नेता वीरभद्र के बाद हिमाचल को नेतृत्व देने का दावा कर रहे हैं वे अपने जिले से बाहर ही नही निकल पा रहे और जो नेता किनारे बैठकर हवा का रुख देख रहे हैं, उन्हें इस बात का एहसास ही नही कि अगर वे कुछ कर दिखाएं तो हिमाचल के मतदाता उनके मुरीद हो सकते हैं।

कांग्रेस पार्टी का प्रदेश नेतृत्व हिमाचल में बीजेपी से पार्टी मुद्दों और विचारधारा के आधार पर चर्चा-परिचर्चा नही करता बल्कि धूमल के आरोपों का उन्ही की भाषा में जवाब देने में वक्त गुजारता । वैसे भारतीय जनतापार्टी के कुछ नेताओं का ख्याल है अगर कांग्रेस हिमाचल में आगामी चुनाओं में दोबारा कमान संभालती है तो प्रदेश के परिवहन मंत्री जी.एस. बाली अधिकांश कांग्रेसियों की पहली पसंद होंगे। बाली के पास ऐसे बहुत से विभाग हैं जिन्हें वे अगर अच्छी तरह से गतिमान बना दें तो बहुत से युवाओं के स्वप्न साकार हो सकते हैं। व्यवसायिक शिक्षा एक ऐसा विषय है जो कारगर सिद्ध हो सकता है। बाली की सोच जनोपयोगी तो है पर जनता के उपयोग के लिए बनाए गए ढांचे में उसे ठीक से बिठाने वाली अफसरशाही उसे लागू करते हुए इतने नुक्ते लगाती है कि सोच का कबाड़ा हो जाता है। परिवहन विभाग के कुछ निर्णय अभी भी धरातल पर नही उतरे हैं। वैसे मुददों को वैज्ञानिक ढंग से सोच कर परोसने वालों में मुकेश अग्निहोत्री का भी कोई सानी नही। उनका हरोली मॉडल आफ़ डिवेलपमेंट इस का जीता-जागता उदाहरण है।

यह तो वक्त ही बतायेगा आने वाले समय में कांग्रेस प्रदेशवासियों का क्या भला कर पाएगी लेकिन इतना तय है प्रदेश में हार की तलवार कांग्रेस पर लटकी हुई है।

बीजेपी को यदि यह खुशफहमी है कि प्रदेश की राजनीतिक रिवायात के मुताबिक अगली बार मतदाता हमें सरकार सोंपेंगे तो भूल जाए कि ऐसे करिश्मे आगे नही होंगे। एक पहाड़ी कहावत भी तो यही कहती है “पले-पले बब्बरुआं दे त्यौहार ने लगदे।” बीजेपी की सक्रिय राजनीति प्रदेश में शान्ता और धूमल के इर्द-गिर्द घूमती है। इन दोनों कद्दावर नेताओं ने हिमाचल को बहुत कुछ दिया है लेकिन हैरानी है इस सब के बावजूद भी एक-दूसरे को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने में इन्हें गुरेज़ होता है। एक मंच पर जब यह दोनों राजनेता होते हैं तो इनकी बॉडी लैंग्वेज देखने वाली होती है।

शान्ता के पत्र–प्रकरण के बाद धूमल ने अपने आरोपों पर सफाई देते हुए जो पत्र मोदी जी को लिखा है, उसमे सभी मुख्यमंत्रियों की संपत्ति की जांच करने का अनुरोध किया है। ध्यान रहे परोक्ष रूप से धूमल ने शान्ता की संपत्ति की जांच की मांग भी रखी है। अब इसे किस तरह की राजनीति कहें, प्रदेश के हित वाली या प्रतिशोध की?
इन सब कारनामों  का असर कार्यकर्ताओं पर भी पड़ता है, जो ऐसे नेताओं और ऐसे पार्टी की राजनीति से विमुख हो जाते हैl इन दोनों राष्ट्रीय दलों को प्रदेश में अपना चाल, चरित्र और चेहरा सुधारना होगा वरना कमजोर दीवारें कभी भी ढह सकती है।
(लेखक हिमाचल प्रदेश के हितों के पैरोकार हैं और राज्य को लेकर लंबे समय से लिख रहे हैं। इन दिनों इन हिमाचल के नियमित स्तंभकार हैं। उनसे vivekavinashi15@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)
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