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हिमाचल प्रदेश में 1992 का कर्मचारी आंदोलन ‘गौरवगाथा’ या ‘त्रासदी?’

आशीष नड्डा।। अखबार खोलते ही सबसे पहली नजर उस खबर पर गई, जिसमें हिमाचल प्रदेश के एक कर्मचारी नेता सरकार को यह धमकी दे रहे थे कि अगर हमारी कुछ मांगे नहीं मानी गईं तो हम सामूहिक हड़ताल के साथ 1992 का इतिहास दोहरा देंगे, जिसमें हम कर्मचारियों ने सत्ता से सरकार को महरूम कर दिया था।

यह खबर पढ़ते ही मेरा मन इतिहास के उन पन्नों को टटोलने लगा, जिनके आधार पर नेताजी का दंभ से भरा यह बयान था। इस लेख में वर्तमान हालात पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। कर्मचारी हड़ताल पे जाएं या न जाएं, सरकार गिरे या संभले, चुनाव में घाटा हो या फायदा, जो होना हो होता रहे। मगर 1992 के इतिहास के जिस आंदोलन को वह कर्मचारी नेता जिस तरह गौरवगाथा के रूप में पेश कर रहे हैं, उसका सही विवरण मैं यहां देने की कोशिश करूंगा।

इस लेख को पढ़ने बाद वह पीढ़ियां, उस दौर में होश संभालने लायक नहीं हुई थीं या पैदा नहीं हुई थीं, मगर आज फैसले लेने में समर्थ है, मूल्यांकन करके फैसला ले कि उस आंदोलन को प्रदेश के इतिहास में ‘गौरवगाथा’ माना जाए या एक ‘त्रासदी।’

बात शुरू करते हैं 1990 से, जब हिमाचल प्रदेश में एक नई सरकार का गठन हुआ। बीजेपी से शान्ता कुमार पूर्ण बहुमत के साथ हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। हिमाचल की आय के साधन सीमित थे। प्रदेश के पास न तो बड़े स्तर के उद्योग थे और न ही खनिज सम्प्पदा। आखिर सरकार को आय आती तो कहां से आती? हिमाचल प्रदेश अपने बजट के लिए सिर्फ केंद्र पर निर्भर था। हालांकि उस समय भी प्रदेश में भाखड़ा डैम के ऊपर लगे हाईड्रो प्रोजक्ट और मंडी के जोगिन्दरनगर में शानन व सुंदरनगर के पास सलापड़ नामक स्थान पर डेहर बिजलीघर आदि अन्य प्रॉजेक्ट थे । यह प्रोजेक्ट थे तो हिमाचल प्रदेश की जमीन पर परन्तु इनकी देखरेख और राजस्व से हिमाचल का कोई वास्ता नहीं था। भाखड़ा और ब्यास सतलुज लिंक प्रोजेक्ट (डैहर बिजली घर ), दोनों भाखड़ा ब्यास मैनेजमेंट बोर्ड (BBMB) के पास थे। यह संस्था पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान जैसे राज्यों की सयुंक्त उपक्रम थी। हालांकि भाखड़ा के बनने से हिमाचल के सैंकड़ों गांव बिलासपुर एवं ऊना जिला के जलमगन हो गए थे, लोग विस्थापित हुए थे। फिर भी फायदे के नाम पर प्रदेश को सिर्फ भाखड़ा गांव को यह प्रॉजेक्ट बिजली देता था। वहीं शानन प्रोजेक्ट जिसे अंग्रेज बनाकर गए थे और भारत का मेगावॉट कपैसिटी में बना वो पहला हाइड्रो प्रोजेक्ट था, पंजाब सरकार के अधीन था और आज भी है।

1990 -91 की बात रही होगी। हिमाचल प्रदेश के ततकालीन मुख्यमन्त्रीं केंद्र सरकार को भेजने के लिए विधानसभा में

प्रॉजेक्टों की झीलों में हिमाचल का इतिहास तक डूब गया।

एक प्रस्ताव लेकर आए। यह प्रस्ताव था कि हिमाचल विधानसभा मिलकर एकजुट होकर केंद्र से मांग करेगी किजिस तरह बिहार , उड़ीसा राजस्थान जैसे राज्यों को उनके वहां से खनिज संपदा के दोहन से रॉयल्टी मिलती है, ऐसी ही रॉयल्टी हिमाचल प्रदेश को भी उसकी जमीन पर लगे हाइड्रो प्रोजेक्टों से मिलनी चाहिए।

पूरी विधानसभा में एकदम सन्नाटा छा गया। लोग चिंतन में पड़ गए। कुछ समझ में थे तो कुछ शंका में थे। विपक्ष की तरफ से नेता प्रतिपक्ष वीरभद्र सिंह, जो आज प्रदेश के मुख्यमन्त्री हैं, चर्चा करने उठे। वीरभद्र हंसते हुए बोले कि शांता कुमार जी, आप कैसी बातें करते हैं? भला पानी पर कोई रॉयल्टी मिलती है ? शांता कुमार ने तर्क दिया हमारे लिए तो यही नदियां सोने का कार्य कर रहीं हैं। हमारा पानी बिजली बना रहा है बिजली सब बाहर जा रही है। जंगल, जमीन और बस्तियां हमारी उजड़ी हैं तो हमें क्यों कुछ नहीं मिल रहा?

मुझे यह पता नहीं कि यह प्रस्ताव पास हुआ या नहीं। हुआ तो विपक्ष में किसका सहयोग रहा, लेकिन यह जरूर हुआ कि प्रदेश के मुख्यमंत्री शांता कुमार ने यह मामला ततकालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के सामने उठाया था। केंद्र के सहयोग से यह तय हुआ कि पंजाब, हरियाणा और हिमाचल आपस में बातचीत कर लें। हिमाचल की तरफ से शांता कुमार, पंजाब की तरफ से प्रकाश सिंह बादल और हरियाणा की तरफ से भजन लाल , शायद यह तीनों नेता बातचीत की मेज पर बैठे और शांता कुमार इन्हें यह मनवाने के लिए सफल रहे कि हिमाचल में जो भी इनके श्येर वाली योजनाएं हैं, उनमें से 14 % रॉयल्टी प्रदेश को मिलेगी। हालांकि और भी देनदारियां आज भी बाकी हैं परन्तु कम से कम इतिहास में पहली बार हिमाचल को यह दिलवाने में वह सफल रहे। आज भी उसी तर्ज पर प्रदेश में जितने भी पावर प्रोजेक्ट हैं, उनसे हिमाचल को रॉयल्टी मिलती है।

हिमाचल प्रदेश में जलविद्युत की अपार सम्भावनाएं थीं। परन्तु सरकार के पास अपने प्रॉजेक्ट लगाने जितना धन नहीं था। अगर सरकार अरबों सिर्फ प्रोजेक्ट लगाने में लगा देती तो बाकी क्षेत्र चरमरा जाते। शांता कुमार चाहते थे कि निजी फर्म जिनके पास पैसा है, वो अपने प्रोजेक्ट लगाएं। हिमाचल को जल और जमीन की रॉयल्टी दें, कुछ बिजली दे और बाकी अपने हिसाब से नैशनल ग्रिड में बेचे। परन्तु उस समय की एनर्जी पॉलिसी के अनुसार यह संभव नहीं था।

केंद्र इसमें कुछ करे, इसके लिए शांता कुमार फिर प्रधानमन्त्री से मिले। वहां से उन्हें प्लानिंग कमिशन के चेयरमैन मनमोहन सिंह से बात करने के लिए कहा गया जो बाद में देश के प्रधानमन्त्रीं भी रहे। मनमोहन सिंह बहुत सुलझे हुए अर्थशास्त्री थे। एक अच्छा इकॉनमिस्ट दशकों पहले देख लेता है कि देश की इकॉनमी को भविष्य में किस चीज की जरूरत है। मनमोहन सिंह से शांता कुमार ने जब निजी क्षेत्र को पावर जेनेरशन में लाने की बात कही तो मनमोहन सिंह खुशी से चहक उठे और बोले में आपसे पूर्ण रूप से सहमत हूं। बात हिमाचल प्रदेश आय की नहीं है बल्कि देश को अगर बिजली जरूरतों को पूरा करना है तो निजी क्षेत्र को इसमें आमंत्रित करना ही होगा, अकेले सरकार के बस की यह बात नहीं है।

यहां पाठकों की जानकारी के लिए बता दूं आप बार बार सुनते हैं कि उदारीकरण हुआ, उदारीकरण हुआ, मनमोहन सिंह ने इकॉनमी को बचाया तो उदारीकरण यही है- इकॉनमी को खोलना, सब कुछ सरकार के धन पर निर्भर नहीं करना। निजी क्षेत्र विदेशी फर्म्स आदि को अपने इन्वेस्टमेंट के लिए आमंत्रित करना।

खैर, मनमोहन सिंह तैयार तो थे पर उन्होंने एक अड़चन बताई। व यह थी कि हिन्दुस्तान की तात्कालिक एनर्जी पॉलिसी के तहत यह संभव नहीं था कि कोई राज्य अपने से ऐसा कर पाए। कल को प्रोजेक्ट ऑनर को बिजली बेचने में दिक्कत आती कि कौन खरीदेगा। कोई नहीं लेगा तो उसकी इन्वेस्टमेंट का क्या होगा ? इसलिए एनर्जी पॉलिसी में संशोधनों की जरूरत थी जो लोकसभा राज्यसभा से बिल के रूप में पास होना जरूरी था। सिंह जी ने कहा हम सरकार के रूप में बिल लाएंगे, आप अटल जी और आडवाणी जी, जो विपक्ष में थे, से कहें सहयोग दें। यह बिल हिमाचल नहीं, बल्कि देश की ऊर्जा नीति और विद्युत्करण और इंडस्ट्रियलाइजेशन में भी बहुत जरूरी है। शांता कुमार ने अटल आडवाणी जी से बात की और एकमत के साथ यह बिल देश की संसद से पारित हुआ ऊर्जा क्षेत्र में निजीकरण की राह खुली।

हिमाचल प्रदेश को इसका यह फायदा हुआ कि निजी प्रॉजेक्ट लग सकते थे, जिससे हिमाचल को बिजली के साथ रॉयल्टी के रूप में आय होती और इकोनॉमी बूस्ट करने के लिए धन का प्रावधान होता। इसी कड़ी में प्रदेश का पहला निजी क्षेत्र का पहला पनबिजली प्रोजेक्ट लगाने के लिए शांता कुमार सरकार और एक निजी कम्पनी के बीच समझौता हो गया।

मुख्यमंत्री रहने के दौरान की तस्वीर।

इस समझौते का बिजली बोर्ड कर्मचारी संघ के ततकालीन नेतायों ने इस तर्क के साथ विरोध किया कि निजीकरण आने से सरकारी जॉब्स खत्म हो जाएंगी। यह नारे के तले बिजली बोर्ड के कर्मचारी हड़ताल पर चले गए। कई दिनों तक हड़ताल रही, पर मुख्यमन्त्री नहीं झुके। वह जानते थे कि निजी क्षेत्र का ऊर्जा फील्ड में पैसा लगाना बहुत जरूरी है, अन्यथा धन के अभाव में सरकार प्रॉजेक्टस नहीं लगवा पाएगी। ऊर्जा की कमी से हिमाचल नहीं, पूरे देश को घाटा होगा। मुख्यमंत्री के नहीं झुकने पर अन्य विभागों के कर्मचारी नेता लोगों ने भी हड़ताल का आह्वान कर दिया, हालांकि उन्हें पता ही नहीं था कि मामला कया है। मात्र हठ के लिए उन्होंने यह सोचते हुए सब कर्मचारियों की हड़ताल करवा दी कि हम मुख्यमंत्री को निर्णय बदलने पर मजबूर कर देंगे।

अफरा-तफरी का माहौल हो गया। सब तरफ हड़ताल का आलम। हड़तालियों को विपक्ष का पूरा सहयोग। मीडिया में रोज यही चर्चे कि अब सीएम क्या करेंगे, अब सीएम क्या करंगे। सोशल मीडिया का जमाना नहीं था कि कहीं चर्चा चलती कि क्या गलत है, क्या सही है। हर घर, गांव से हिमाचल में कर्मचारी थे और उनके नेताओं ने गांव-गांव तक यह बात पहुंचा दी कि शांता कुमार कर्मचारी और सरकारी नौकरी विरोधी है. सब कुछ प्रइवेट को देना चाहता है।

20 दिन से ऊपर जब हड़ताल को हो गए, तब मुख्यमन्त्री के आफिस से एक ऑर्डर निकला। सबने सोचा मुख्यमन्त्री ने फैसला वापिस ले लिया होगा, परन्तु वह ऑर्डर था- NO Work No pay.” यानी कर्मचारी अगर आफिस में नहीं है, ड्यूटी पर नहीं है तो उन्हें बिना काम किए वह सैलरी क्यों दी जाए, जो उन्हें जनता की सेवा के लिए मिलती है। मुझे याद है- इस निर्णय की कल्पना किसी ने नहीं की थी। हिमाचल प्रदेश के कर्मचारी वर्ग में हड़कंप मच गया। उस दौर में मैं भी हल्का होश सम्भाल चुका था। या उसके 2 ,3 साल तक यह चर्चा रही थी, तह मैंने सुना था कि ‘नो वर्क नो पे’ को गली गली में ऐसे भ्रामक रूप से फैलाया गया कि शांता कुमार कहता है- छुट्टी के दिन की सेलरी कर्मचारियों को नहीं दूंगा, क्योंकि उस दिन वे कार्य नहीं करते।

दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद गिरने पर देश से भाजपा की सारी सरकारें बर्खास्त कर दी गईं। उसके बाद हुए चुनावों में कर्मचारी विरोधी की इमेज में बांध दिए गए शांता कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही बीजेपी का सूपड़ा साफ हो गया। खुद सीटिंग सीएम शांता कुमार अपने घर सुलह से चुनाव हार गए। वह दिन था कि उसके बाद वह कभी प्रदेश की राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से मुड़कर नहीं आए।

खैर, जो भी था; शांता कुमार नहीं झुके तो ऊर्जा नीति में प्रदेश निजीकरण की राह पर आगे गया। आज हिमाचल प्रदेश देश का पावर हाउस कहा जाता है। 24 घंटे सस्ती बिजली के साथ आज ऊंची से ऊंची पहाड़ी पर भी हिमाचल प्रदेश में चमकते हुए गांव आसमान में तारे की तरह लगते हैं। सबसे सस्ती बिजली का उपभोग करने वालों में हम देश में हैं। आज हिमाचल प्रदेश का अपना राजस्व जितना है, उसका करीब आधा आय हमें उसी नीति के कारण लगे प्रोजेक्टों से मिलता है। औसतन यह राजस्व 2100 करोड़ रुपये का है जो हर साल घटता-बढ़ता रहता है। कर्मचारी नो वर्क, नो पे के खिलाफ कोर्ट भी गए थे। कई वर्षों बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी शांता कुमार के कदम को सही ठहराते हुए इसकी तारीफ की थी। आज भी यह नियम लागू किया जाता है।

इतिहास को मैंने इसलिए कुरेदा, क्योंकि कर्मचारी नेता 1992 की इस घटना को ऐसे दिखा रहे हैं जैसे उन्होंने पता नहीं क्या महान कार्य कर दिया हो। उनकी आज की एकजुटता और हड़ताल की धमकी आज सही हो या गलत, पता नहीं। मगर जब वे 1992 की उस हड़ताल को अपनी गौरव गाथा के रूप में पेश करेंगे, मैं यह सवाल जरूर पूछूंगा कि इसे गौरवगाथा कहा जाए या एक त्रासदी।

इस सवाल का जबाब मैं आप पाठकों पर छोड़ता हूं। उन लोगों पर भी, जो उस वक्त निर्णायक भूमिका में थे और उन पर भी, जो उस वक्त पैदा नहीं हुए थे।

(लेखक मूलतः बिलासपुर जिले के रहने वाले है और आईआईटी दिल्ली से रिन्यूएबल एनर्जी में पॉलिसी प्लैनिंग पर रिसर्च कर रहे हैं। हिमाचल से जुड़े मामलों पर लिखते रहते हैं। उनसे aashishnadda@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

Jun 28, 2016 को प्रकाशित इस आर्टिकल को दोबारा पब्लिश किया गया है।

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