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लेख: कूटनीति में वीरभद्र पर एक ही नेता पड़ा है भारी- प्रेम कुमार धूमल

कृपाल शर्मा।। यह इमर्जेंसी से समय का दौर था जब हिमाचल निर्माता डॉक्टर वाई.एस. परमार हिमाचल के मुख्यमंत्री थे। इंदिरा गांधी की अलोकतांत्रिक नीतियों के सांचे में डॉक्टर परमार उसी समय से फिट नहीं बैठ रहे थे। इस बीच ढाई साल के उस काले दौर के बाद जे.पी. आंदोलन के साथ इंदिरा गांधी का सफाया हो गया। प्रदेशों से भी कांग्रेस उस आंधी में उखड़ गई थी। सामूहिक रूप से लड़े विपक्ष की तरफ से शांता कुमार हिमाचल के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने। मगर लंबे समय तक शांता कुमार अपने कुनबे को नहीं संभाल सके। शह मात की इस राजनीति में राम लाल ठाकुर उनपर भारी पड़े और शांता सरकार के कई दिग्गजों को उन्होंने अपने पक्ष में बिठाकर वह मुख्यमंत्री बन गए। यह हिमाचल कांग्रेस से परमार युग का अंत था।

राम लाल ठाकुर के परिजनों के ऊपर टिंबर घोटाले के आरोप लगे, जिसके छींटे उनपर भी आ गिरे। हाइकमान की सख्ती और नैतिकता की दुहाई पर रामलाल ठाकुर को इस्तीफा देना पड़ा। यह वह पहला मौका था जब बुशहर के राजपरिवार के वशंज और सांसद वीरभद्र सिंह के हाथों में इंदिरा गांधी ने सत्ता सौंप दी। उसके बाद जनमत के पैमाने पर तो वीरभद्र सिंह हर पांच साल बाद विफल होते रहे, मगर कूटनीतिक तौर पर पार्टी के अंदर अपने वर्चस्व को बनाने में कामयाब रहे हैं। वीरभद्र सिंह के बाद 1990 में प्रचंड बहुमत के साथ फिर सत्ता में आए थे। लेकिन कर्मचारी वर्ग पर टिकी हिमाचल की राजनीति और सचिवालय के कर्मचारियों में ऊपर वर्ग की प्राथमिकता से वीरभद्र ऐसी गोटियां सेट कर चुके थे कि बहुमत मिलने के बावजूद शांता कुमार के लिए सत्ता चलाना आसान नहीं था।

शांता कुमार की उदारवादी (प्राइवेटाइजेशन) वाली नीतियों पर वीरभद्र सिंह के निष्ठावन कर्मचारी नेताओं ने प्रदेश के कर्मचारियों को गुमराह करके जो चक्रव्यूह रचा, काफी समय तक शांता कुमार उससे उबर नहीं पाए। वीरभद्र की रजवाड़ाशाही नीति आज की तरह हिंत बांटने औऱ कर्मचारी चयन में हमेशा हावी रही। चहेतों को लाभ देने के लिए वह शुरू से ही आउट ऑफ द वे भी चले गए। न प्रदेश में कोई कर्मचारी चयन आयोग था और न भर्तियों का कोई फॉर्मूला था। प्रदेश में विभागीय स्तरों पर भर्तियां होती थीं और उसमें सत्ता की तूती बोलती थी। दिहाड़ीदार भर लिए जाते थे और रेग्युलर होने की उनकी लालसा को सत्ता की कुंजी की तरह प्रयोग करने का फॉरम्यूला अपनाया जाता, जो आज भी बिना रुके जारी है।

शांता कुमार ढाई साल तक कर्मचारी आंदोलनों से ही जूझते रहे। सैद्धांतिक नीति वाले शांता कुमार यह भी नहीं समझ पाए कि उनकी विचारधारा समर्थक कर्मचारी वर्ग तो चुन-चुनकर उनकी पिछली सरकार ने ट्राइबल इलाकों में हिमदर्शऩ वाली पोस्टिंग दी थी। यही लोग, सत्ता परिवर्तन के बाद मुख्यमंत्री शांता कुमार की शरण में आए तो सिद्धांतवादी शांता कुमार ने आंखें फेर ली थीं। शांता कुमार के खिलाफ अपनों का ही आक्रोश चर्म पर था। इसी बीच बाबरी विध्वंस हुआ और कई सरकारों समेत शांता कुमार सरकार भी बर्खास्त कर दी गई। वीरभद्र सिंह अपने प्रतिद्वंदी सुखराम को पीछे धकेलते हुए वीरभद्र सिंह ने दोबारा सत्ता संभाल ली। वीरभद्र सिंह ने इस दौरान कांगड़ा दुर्ग को छिन्न-भिन्न करने की पूरी कोशिश की। उन्होंने शांता कुमार के कई फैसलों को कूटनीतिक नजरिए से पलटा, जिसमें अपोलो स्तर के पामलपुर में प्रस्तावित हॉस्पिटल को टांडा मेडिकल कॉलेज (कांगड़ा) बनाने का निर्णय किया। उस दौर में शांता कुमार हार के बाद पर्दे के पीछे चले गए थे। भाजपा का कोई हाईकमान भी उनके नाराज था क्योंकि उन्होंने बाबरी मस्जिद को गिराए जाने का विरोध किया था।

यह वह दौर था जब भारत के मौजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदार दास मोदी हिमाचल भाजपा के प्रभारी थे और प्रेम कुमार धूमल भाजपा का नेतृत्व कर रहे थे। वीरभद्र सिंह ने सपने में भी नहीं सोचा था कि छोटे से जिले के पिछड़े क्षेत्र बमसन से आने वाला यह नेता उनके रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा साबित होगा। उस वक्त संपन्न और आर्थिक रूप से सुदृढ़ लोग कांग्रेस को समर्थन दिया करते थे। प्रेम कुमार धूमल जानते थे कि उदारीकरण वाले दशक में राजनीति का दौर बदल रहा है। धूमल जानते थे कि वर्तमान राजनीति में भीड़ जुटाना और आर्थिक रूप से सशक्त हुए बिना कांग्रेस का मुकाबला करना संभव नहीं है। धूमल ने ऐसे ही आर्थिक रूप से मजबूत लोगों को बीजेपी के साथ जोड़ना शुरू किया। शांता कुमार जहां रूखे स्वभाव के नता माने गए, वहीं प्रेम कुमार धूमल अपने मिलवनसार व्यक्तित्व की वजह से पूरे प्रदेश में अपनी अच्छी छवि बना चुके थे। हाइकमान से बढ़ती दूरियां और पार्टी प्रभारी मोदी से अनबन समेत पिछले चुनाव में करारी हार ने रास्ते खोले और 1998 में शांता कुमार की जगह प्रेम कुमार धूमल को पार्टी का चेहरा बनने का मौका मिला।

धूमल ने पंडित सुखराम को अपने पक्ष में करते हुए गुलाब सिंह ठाकुर जैसे नेताओं को भी भाजपा में शामिल कर दिया और पहली बार प्रदेश की कमाल संभाली। वीरभद्र सिंह की नीति पर कुठाराघात करते हुए हिमाचल में चटन के लिएो कर्मचारी चयन आयोग की स्थापना की। साथ ही कहीं न कहीं जो विरोध निचले क्षेत्र के तबके में था कि प्रशासनिक पद उनकी पहुंच से बहुत दूर हैं, वहां निचले क्षेत्रों से भी पारदर्शी तरीके से प्रशासनिक अधिकारी निकलने लगे। कई मामलों में वीरभद्र सिंह के ऊपर भी केस चले, जिनमें कुछ टेपों को कुछ लैब्स ने सही पाया तो कुछ ने गलत। कुछ मामलों में समझौते हुए और आखिरकार वह अदालतों से बरी होते रहे। मगर वीरभद्र सिंह के लिए अब राह आसान नहीं थी क्योंकि अब एक सशक्त प्रतिद्वंद्वीो उनके सामने था जो उन्हें उन्हीं की भाषा में जवाब देना जानता था और जवाब भी दे भी रहा था।

सही मायनों में वीरभद्र को किसी ने टक्कर दी है तो वह धूमल हैं- लेखक

धूमल के नेतृत्व में अब भाजपा भी एक संपन्न पार्टी हो चुकी थी, जिसकी पकड़ न सिर्फ मैदानी इलाकों बल्कि हिमाचल के ऊपर इलाकों जैसे कि शिमला, किन्नौर और लाहौल तक हो चुकी थी। उन्होंने अपने समर्थकों की खास फौज तैयार कर दी थी। यह फौज उनके लिए कुछ भी करने को तैयार थी और वह धूमल भी उनका पूरा ख्याल रखते। धूमल ने अपने कार्यकर्ताओं का भी ख्याल रखा और प्राथमिकता देकर उनकी मांगों पर गौर किया, जिस काम में शांता कुमार नाकाम साबित हुए थे। यहीं से वीरभद्र सिंह ने अपनी कूटनीति में बदलाव लाया और कभी जिस मुख्यमंत्री (शांता कु्मार) को वह निकम्मा बताते थे, वही उनके लिए शालीन और सम्माननीय हो गए। यह सिलसिला जारी रहा, धूमल-वीरभद्र की रार चलती रही और आज भी जारी है। आज भी अखबार इनके परस्पर विरोधी बयानों, आरोपों और छींटाकशी से भरे रहते हैं। वीरभद्र को खीझ यह भी थी कि प्रेम कुमार धूमल अपने बेटे अनुराग ठाकुर को स्थापित करने में कामयाब तो रहे ही रहे, नैशनल लेवल का नेता बनाने में भी सफल रहे। इसी बीच धूमल के छोटे बेटे अरुण धूमल ने भी वीरभद्र के खिलाफ ऐसा मोर्चा खोला जो आज तक वीरभद्र सिंह को अदालतों में उलझाए हुए हैं और उन्हें बैकफुट पर डाले हुए है।

अपनी पार्टी के अंदर सुखराम, राजा विजयेंद्र सिंह, विद्या स्टोक्स और मेजर मनकोटिया जैसे प्रतिद्वंद्वियों को वीरभद्र सिंह ने कूटनीति से किनारे लगा दिया और उसके बाद किसी को उभरने नहीं दिया। उसी कड़ी में आजकल सुखविंदर सिंह सुक्खू वर्तमान शिकार हैं। परंतु जो काम शांता कुमार नहीं कर पाए, वही काम धूमल नीति कर गई और वीरभद्र सिंह को 1998 से लेकर आज तक चैन से नहीं जीने दिया गया। प्रतिद्वंद्विता की यह राजनीति आगे कहां तक जाती है यह कुछ ही महीनों में तय हो जाएगा मगर इस तथ्य को नहीं झुठलाया जा सकता कि कूटनीति के इस राजा पर रणनीतिकार धूमल साम-दाम-दंड-भेद से भारी पड़े। जहां शांता कुमार, वीरभद्र के लिए आसान प्रतिद्वंद्वी रहे, वहीं प्रेम कुमार धूमल समानांतर वीरभद्र को टक्कर देते रहे। जहां मुख्यमंत्री रहते हुए भी वीरभद्र के अपने रोहड़ू जैसे इलाके बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्टर के लिए तरसते रहे, धूमल ने अपने जिले के सबसे पिछड़े बमसन इलाके को सर्व सुविधा संपन्न बनाने पर जोर दिया। वीरभद्र आज भी उसी नीति पर चल रहे हैं। वीरभद्र उन्हीं तौर-तरीकों पर चलते हुए सत्ता रिपीट करवाने की कोशिश में  हैं जिसके आधार पर वह कभी सत्ता रिपीट नहीं करवा वाए। आज भी भर्तियां चयन बोर्ड के बजाय विभागीय स्तर पर हो रही है और हर चयन का मामला कोर्ट में जा रहा है। एचआरटीसी से लेकर हाल ही में शास्त्री परीक्षा तक सवालों के घेरे में है।

(लेखक कृपाल शर्मा 70 के दशक से 2000 तक बीजेपी के सक्रिय कार्यकर्ता और संगठन में विभिन्न जिम्मेदारियों पर रहे। इन दिनों सक्रिय राजनीति से हटकर पारिवारिक जिम्मेदारियां संभाल रहे हैं। पहाड़ी भाषा में बताई गई उनकी बातों को हिंदी में संकलित किया गया है)

Disclaimer: ये लेखक के अपने विचार हैं, इन हिमाचल इनके सहमत या असहमत होने का दावा नहीं करता। लेखक इनके लिए स्वयं उत्तरदायी है।

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