लेख: हिमाचल दूसरी राजधानी चाहता था या इन सवालों के जवाब?
In Himachal Desk
आशीष नड्डा।। चुनावी वर्ष की बेला में सरकारों की सौगातों की बारिश कोई नई बात नहीं है। समय के साथ-साथ परिपक्व होती जा रही जनता राजनीतिक दलों के इन लोक लुभावन वादों और घोषणाओं को समय के साथ तौल कर देखती है और प्रायः इन शब्दों से रिऐक्शन देती है- “अरे चुनाव का समय है, बहुत कुछ होगा और बहुत कुछ किया जाएगा।” हालांकि दशकों पहले ऐसा भी जमाना होता था जब सतचरित्र भोली-भाली जनता ऐसे वायदों पर झूम जाया करती थी। चुनावों में विभिन्न पार्टियों को तुलना की नजरों से देखने का पैमाना यही घोषणाएं और वादे हुआ करते थे।
धीरे-धीरे वक़्त बदला जनता भी समझदार हुई है और पार्टियों के भविष्य की रूपरेखा के वायदों की जगह वर्तमान और भूत के क्रियाक्लापों कार्यों को तोलने लगी है। मैथमेटिक्स मॉडलिंग की भाषा में कहा जाए तो चुनाव बहुत ही टेढ़ी इकुएशन है इसमें इतने इनपुट वैरिएबल हर पार्टी अपनी तरफ से डालती है की क्या ऑउटपुट आई और किस कारण से आई सफलता मिलने पर यह एक्सएक्टली पता कर पाना भी बहुत मुश्किल है। इन इनपुट वेरिएबलस में एक दूसरे पर लांछन, जबाबदेही माँगना, जातिवाद के समीकरण सेट करना क्षेत्रवाद का तड़का घुसाना, बड़ी बड़ी लोकलुभावन घोषणा करना आदि शामिल हैं।
हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला को इसी चुनावी वर्ष में दूसरी राजधानी की सौगात दी जा रही है। इसके लिए कांगड़ा की ऐतिहासिकता धर्मशाला के ब्रांड नाम लोगों की सुविधा आदि इत्यादि कई प्रपंचों के साथ सदृढ़ रूप से रखने की कोशिश की जा रही है। इसी शोरगुल जैजैकार विरोध में यह शोध भी बनता है किसी प्रदेश को दो राजधानिया जनहित में चाहिए होती हैं है या राजनीतिक हित के लिए चाहिए होती हैं। इसके लिए डबल राजधानी कांसेप्ट के इतिहास में जाना होगा।
अंग्रेजों के समय दिल्ली के बाद शिमला को ब्रिटिश हकूमत की ग्रीषम कालीन राजधानी का दर्जा प्राप्त था उसका कारण था की दिल्ली की गर्मी लन्दन के गोरे बर्दाश्त नहीं कर पाते थे इसलिए शिमला जैसे ठन्डे स्थान पर समय काटने आते थे। लिहाजा जब सरकारी अधिकारी यहाँ आ जाते थे तो कामकाज के आफिस भी यहीँ शिफ्ट हो जाते थे उसका जनहित से कोई लेना-देना नहीं था।
ऐसी ही डबल राजधानी का कॉन्सेप्ट जम्मू कश्मीर में आजादी के बाद रहा। हिन्दू बहुल जम्मू अपने को उपेक्षित महसूस न करे इसलिए जम्मू को शीतकालीन राजधानी का दर्जा दिया गया। इसका कितना फायदा जम्मू को हुआ यह जम्मू वालों से पूछा जाना चाहिए। डबल राजधानी की डिमांड हमारे पर्वतीय पडोसी उत्तराखंड में भी सुलगती है। उनका कहना है की वहां के एक पर्वतीय नगर गैरसैण को प्रदेश की मुख्य राजधानी बनाया जाए और देहरादून को सिर्फ शीतकालीन। इसके पीछे तर्क है कि पहाड़ी प्रदेश की राजधानी मैदान में होने के कारण पहाड़ तरक्की की आहट से अछूता है।
यह तो डबल राजधानियों के इतिहास की बात थी, अब हम हिमाचल प्रदेश की तरफ रुख करते हैं। धर्मशाला के राजधानी बनने से आम जनजीवन हिमाचल में क्या फर्क पड़ेगा यह हम सबको निष्पक्षता के साथ सोचना चाहिए। और इस परिपेक्ष में नहीं सोचना चाहिए की इसे कांग्रेस कर रही है या भाजपा कर रही है, बल्कि इस परिपेक्ष में समझना और जानना चाहिए कि यह हिमाचल प्रदेश के लिए हो रहा है तो इसका फायदा है या नुकसान। सही से, ईमानदारी से राजधानी स्थापित करनी हो तो अरबों रुपए के बजट की व्यव्यस्था करनी होगी इसलिए हर हिमाचली के मन में चाहे हो कांगड़ा घाटी से सबंध रखता हो चाहे मंडी से सबंध रखता हो उसके मन में यह विचार और जस्तिफिकेशन रहनी चाहिए की राजधानी बनने से क्या होगा। क्या अरबों का वह बजट आम जनता या प्रदेश के लिए डेल्टा एक्स इंप्रूवमेंट दे पाएगा या नहीं।
राजधानी आखिर है क्या बला? इसपर पहले बात करते हैं मेरे अनुसार राजधानी “शासन और प्राशासन ” का मुख्यालय है। जहाँ से सरकार चलती है जहाँ हर विभाग के मंत्रीं संतरी बैठते हैं फैसले लेते हैं। एक आम व्यक्ति के जीवन में राजधानी का कितना सरोकार है। एक आम आदमी को राजधानी में क्यों जाना पड़ सकता है। किसी मंत्रीं से मिलने के लिए। किसी बड़े अधिकारी से मिलने के लिए। इससे आगे तो मुझे कुछ नजर नहीँ आता की आम आदमी के कार्यों की उड़ान ऐसी हो की उसे महीने में तीन बार राजधानी जाना पड़ता हो। मैं अपने अनुसार सोच रहा हूँ अपने गाँव के लोगों के आधार पर अपने मित्रों के आधार पर गणना कर रहा हूँ की मेरे जानने वाले लोग कितनी बार जीवन में शिमला इसलिए गए हैं की उन्हें एक राजधानी में काम था और वो राजधानी में ही होना था इसलिए आप भी सोचिये और विचार कीजिये। की जनता को राजधानी में ऐसा क्या काम रहता है की राजधानी घर के पिछवाड़े में होनी चाहिए?
अब अगर मंत्रियों से मिलने में आसानी रहे मंत्रीं घर द्वार मिल जाएँ इसके लिए अरबों खर्च करके एक राजधानी बनाई जा रही हो तो इस खर्च को कोई भी विज़नरी शासक चुटकी में ऐसे बचा सकता है की यह सुनिश्चित करदे की हर मंत्री हर जिले के हेड क्वार्टर में दो महीने में एक बार 2 दिन के लिए अपनी टीम के साथ बैठंगे और उस जिले की जनसमस्या सुनेंगे। प्रदेश का सौभाग्य है की यहाँ जनसंख्या कम और जिले बारह है। रोटेशन वाइज क्या ऐसा नहीं हो सकता की। वनमंत्री 1-2 फरवरी को बिलासपुर में बैठे हों स्वास्थय मंत्रीं चम्बा में कहीं हों। लोकनिर्माण विभाग मंत्रीं कांगड़ा में डटे हों आदि इत्यादि। और यह भी देखा जाए की शिमला सचिवालय में मंत्रीं मिल जाते हैं क्या आम जनता को सुलभ रूप से? मॉडर्न टेक्नोलॉजी के दौर में मंत्रियों के बैठने के लिए राजधानी बनांने से अच्छा यह नही है की किसी सरकारी वेबसाइट पर यह इनफार्मेशन हर दिन अपडेट हो अभी अगले तीन दिन बाद कौन मंत्रीं शिमला सचिवालय में कब से कब उपलब्ध होगा। ताकि हम घर से देख ले चले की उपलब्ध है की नहीँ है।
अभी तो यह है की मंत्री जी शिमला में हैं की नहीँ है कब होंगे यह पता करना भी आम आदमी के बस में नहीं हैं। आपको अपने इलाके से मंत्रीं जी की पार्टी का कोई जुगाड़ू कार्यकर्ता सेट करना पड़ेगा तब जाकर वो आपको बताएगा की मंत्रीं जी फलानि जगह उस टाइम होंगे। सोचिये इक्कसवों सदी में सुचना इन्टरनेट स्मार्टफोन के युग में डेमोक्रेसी के दौर में हम यह बिना सार्थक जुगाड़ के पता भी नहीँ कर सकते की मंत्रीं जी कहाँ हैं कब मिलेंगे। मिलना कन्फर्म है की नहीं है। हाल ये है की किस्मत सही हो तो शिमला में मिल जाएंगे नहीं सही तो वापिस आयो और अगली बार घर से निकलने से पहले दरवाजे पर रखे पानी के कुम्भ में 1 रूपया का सिक्का डाल के दुबारा शिमला चलो।
दूसरी बात सामने निकल कर आती है की राजधानी में विभिन्न विभागों के बड़े बड़े कार्यालय होते हैं टॉप अधिकारी बैठते हैं। चलो एक विभाग की बात करते हैं मसलन IPH अब आप सोच के देखिये। IPH विभाग में कभी जे ई , SDO और XEN से ऊपर आम आदमी को काम पड़ा है ? सिर्फ इस स्तर तक के अधिकारी फील्ड में योजनायों के क्रियान्वन के लिए जनता से जुड़े होते हैं। इससे ऊपर भी चीफ इंजिनीयर तक जिला मुख्यालयों में बैठे हैं। उससे ऊपर के जो अधिकारी हैं वो अपने अपने विभाग की पालिसी मेकिंग , बजट आदि इत्यादि देखते हैं। अब पालिसी शिमला से बन रही हो या धर्मशाला से या कहीं सिरमौर में कहीं बैठ के आम जनता को क्या फर्क पड़ता है ? शिमला की जगह पॉलिसी बनांने वाले किसी ईमारत में आकर धर्मशाला में बैठ जाएंगे तो इसमें क्या जनहित हो जाएगा कांगड़ा चम्बा हमीरपुर बिलासपुर की जनता का क्या भला हो जाएगा ?
कहा जा रहा है की धर्मशाला ऐतिहासिक शहर है इसलिए राजधानी बनाया जा रहा है। अब क्या किसी शहर की ऐतिहासिकता राजधानी के तमगे की मोहताज रहती है ? इस हिसाब से तो दिल्ली की तरह हिन्दोस्तान की 50 राजधानियां होनी चाहियें ताकि बाकी शहरों की ऐतिहासिकता बरकरार रहे।
हिमाचल क्या चाहता है इस पर चिंतन जरुरी है। क्या यह अरबों खर्च करके एक राजनीतिक राजधानी चाहता है या बेरोजगारों की कतारों, बद्दी में उद्योगपतियों के हाथों पिसते मिनिमम वेजिस सैलरी के लिए संघर्ष करती जवानियों के उद्धार के लिए रोडमैप चाहता है? ऑक्सिजन सिलेंडर के अभाव में जिस प्रदेश में लोग काल का ग्रास बन जाते हैं, जहाँ IGMC जैसे अस्पताल बिजली जाने पर जेनरेटर से सप्लाई चलाने में सक्षम सेल्फ सस्टेन नहीं हैं, जहाँ एक माँ बर्फ को चीर कर पांच घंटे पैदल चलकर अपने बच्चे को हॉस्पिटल में पहुंचाती है और जोनल जिले के सबसे बड़े अस्पताल (मंडी ) में तीन वेंटिलेटर होने पर भी उसे चलाने वाला कोई नहीं मिलता।
जिस प्रदेश में कागजी यस नो में फंसे हेलिकॉप्टर के इन्तजार में लाहौल-स्पीति में हैलीपैड पर बच्चे का जन्म हो जाता है, जिस प्रदेश में हर साल तारकोल पड़ने पर सड़कें फिर उखड जाती हैं, असंख्य जलधाराओं वाले जिस प्रदेश में गर्मी में पेयजल के लिए सैंकड़ों गाँवो में हाहाकार मच जाता है, शिक्षा व्ययस्था जहाँ धूल फांक रही हो; क्या वो प्रदेश यह सब छोड़ कर अरबों रूपए की एक नई राजधानी चाहता है? क्या वो प्रदेश यह सब छोड़ कर एक नई राजधानी चाहता है, जिसको बसाने के लिए अरबों रुपये बहाये जाएँ? क्या यह धन और जगह अन्य कार्यों में खर्च नहीं किया जा सकता? पूरा कांगड़ा छोड़िये, धर्मशाला का ही एक आम आदमी राजधानी के तमगे से क्या पा लेगा, यह चिंतन हम सबको जिला क्षेत्र की मानसिकता से बाहर आकर हिमाचल प्रदेश के वासियों के रूप में और हिमाचलीयत के भाव से करना होगा।
(हिमाचल प्रदेश से संबंधित विषयों पर विचार रखने वाले लेखक IIT दिल्ली में रिसर्च स्कॉलर हैं साथ ही रिन्यूएबल एनर्जी के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी सन्कृत एनर्जी के कंसल्टेंट भी हैं। उनसे aashishnadda@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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