हिमाचल प्रदेश का युवा भी अब सहनशीलता और उस भाईचारे की सीमा से बाहर जाता जा रहा है जो इस प्रदेश के गौरवशाली इतिहास और यहाँ के मानुस की आज भी एक वैश्विक पहचान है।
सुरक्षा के लिहाज से राजधानी को किसी भी प्रदेश का सब से चौक चौबंद सिटी माना जाता है। पर हाल में ही सरकार और अफसरशाही की नगरी शिमला में घटित हुए घटनाक्रमों ने मन को बहुत आहात किया है। राजनैतिक लहरों पर सवार युवकों का आपस में भिड़ जाना और एक नौजवान का उसमे आँख गवां देना बहुत ही दुखद है। और हैरानी की बात है की इस पर अभी तक कोई कार्रवाई भी नहीं हो पायी है। खैर यह तो प्रशाशन की नाकामी और लचरपन का साक्षात उदहारण है। परन्तु एक सवाल मन में यह भी उठा विचारधारा के नाम पर जिस आम कार्यकर्ता ने अपनी आँख गवा दी उस कार्यकर्ता से सबन्धित उसकी राजनैतिक पार्टी कैसे उसके कर्ज और निष्ठां को चूका पाएगी।
हिमाचल प्रदेश की राजनीति के अतीत में मैं झांकता हूँ तो जाने कैसे लोगों को विभिन पार्टी और उसके आकाओं ने सिर्फ व्यक्तिगत निष्ठा के बदले विधानसभा टिकटों से अलंकृत किया है जिनका मैं यहाँ वर्णन करना नहीं चाहता यहाँ तो लोगो ने संग़ठन निष्ठा पर क़ुरबानी दी है । जब कोई नेता स्वर्गवासी होता है उसके बच्चों बीवी को टिकट थम दिया जाता है चाहे वो राजनीति का क ख ग भी नहीं जानते हों। और कहा जाता है फलां नेता बड़ा महान था इसलिए उसके घर वालों को आगे लेकर उसे सच्ची श्रन्द्जलि दी गयी है यह हिमाचल ही नहीं हिन्दोस्तान की राजनीति का ऐतिहासिक और निरंतर चलता हुआ सत्य है।
पार्टी संग़ठन के लिए सर फ़ुड़वाने वाले और आँख तक गवा देने वाले युवा कार्यकार्तिओं को क्या उनका राजनितिक दल विधानसभा में जाने के लिए अपनी आवाज बुलंद करने के लिए टिकट थमा सकता हैं , मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है जब वो चापलूसों को बिना किसी योग्यता के टिकट थमा सकते हैं तो उस युवा जोश का कर्ज भी उन्हें अदा करना चाहिए जिसने अपनी आँख गवाए है , यह आने वाला समय बताएगा पर हर पार्टी की रीढ़ यह युवा अपना हक़ नहीं मांगेगे तो इन्हे सिर्फ विरोध प्रदर्शनों में आने वाली भीड़ के रूप में ही गिना जाएगा। राजनैतिक घाघों और सरमायेदार लोगों को यह घटनाएँ सिर्फ एक राजनैतिक मुद्दा ही नजर आएँगी। प्रशाहन की करवाई और न्याय का तराजू तो सत्ता के दबाब से तो किसी भी तरफ झुक जाता है। पर आने वाला वक़्त यह फैसला करेगा की आँख तक संग़ठन के नाम पर गवां देने वाले एक साधारण कार्यकर्ता को उसकी पार्टी आंतरिक रूप से क्या न्याय दे पाएगी। प्रशानिक न्याय तो द्रोपदी का चीर है पर आंतरिक न्याय तो बनता है , दिया भी जा सकता है क्या भविष्ये में यह कहकर इस कर्ज को थोड़ा कम करने की कोशिश नहीं की जा सकती ??? संग़ठन के लिए इतनी बड़ी क़ुरबानी पर ऐसे कार्यकर्ताओं को क्यों ना मौका दिया जाए उन्हें अपने गृह क्षेत्र से विधानसभा में आने का। क्या आम नौजवान इन वर्कर्स के लिए पार्टयों में इतनी संवेदना है या नौजवान यूँ ही भीड़ का हिस्सा हो रहा है उस दौर में जब वो अपनी इच्छाशक्ति से कुछ भी अलग कर सकता है
इस लेख में लेखक और विचारक के तौर पर मेरी सवेदना एवं समर्थन किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष से नहीं है किसी को क्या मिले या न मिले इस का निर्धारक मैं नहीं हो सकता , यह घटना तो मात्र एक सूक्षम उदहारण है पर मेरे मन में की यह जिज्ञासा सामरिक और वैश्विक और हर राजनैतिक दल के लिए है मैंने तो बस इतिहास में सरसरी निगाह डालकर एक सवाल खड़ा किया है जिसका जबाब भविष्ये के गर्भ में है।
लेखक : आशीष नड्डा
लेखक हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिला से सबंधित हैं और राष्ट्रीय प्रीद्योगिकि संस्थान डेल्ही में शोध छात्र हैं।
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