हॉरर एनकाउंटर: जब बक्कर खड्ड में अचानक थमी दुल्हन की डोली

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रस्तावना: इन हिमाचल की बेहद लोकप्रिय ‘हॉरर एनकाउंटर’ सीरीज़ के चौथे सीज़न की ये पहली कहानी है। इन कहानियों को छापने का मकसद यह दावा करना नहीं है कि भूत-प्रेत वाकई होते हैं। हम अंधविश्वास फैलाने में यकीन नहीं रखते। हमें खुशी होती है जब हॉरर कहानियों के पीछे की संभावित वैज्ञानिक वजहों पर आप पाठक चर्चा करते हैं। वैसे हॉरर कहानियां साहित्य में अलग स्थान रखती हैं। इसलिए इन्हें मनोरंजन के लिए तौर पर ही पढ़ें। आज की कहानी हमें भेजी है मिस्टर एडी ने जो अपनी पहचान गुप्त रखना चाहते हैं।

ये आज से लगभग 25 साल पहले की बात है। सुजानपुर की तरफ मेरे एक पापा के किसी परिचित की शादी थी जिन्हें मैं संजू चाचू कहकर पुकारता था। मेरी उम्र 12 साल रही होगी तब। मैं भी पापा के साथ चला गया था सुजानपुर। बारात जानी थी मंडी के संधोल इलाके की तरफ़ किसी गांव में। पापा बारात में जाने वाले थे तो मैंने भी जिद की कि मैं भी चलूंगा। पापा ने कहा कि मैं मम्मी के साथ वापस घर चला जाऊं मगर मैं अड़ा रहा। आखिरकार पापा मुझे अपने साथ ले चलने के लिए तैयार हो गए।

दोपहर बाद धाम का लुत्फ उठाने के बाद बारात ने प्रस्थान किया। बारातियों की बस ठसाठस भरी हुई ऊबड़-खाबड़ सड़क से होकर चली जा रही थी। आखिरकार बस एक जगह रुक गई। आगे का रास्ता पैदल तय किया जाना था। दिल ढलने लगा था और बाराती नशे में धुत्त होकर नाचते हुए आगे बढ़ रहे थे कछुए की चाल से। वधु पक्ष का घर दूर के किसी गांव में था और रास्ते में एक खड्ड को पार करके जाना था।

बड़े-बुजुर्ग बोले की भाई 7 बजे तक पहुंचना है लड़की वालों के यहां, तेज रफ्तार से चलो। मगर शराब के नशे में चूर बाराती भला किसकी सुनने वाले थे। खैर, धीरे-धीरे बारात आगे बढ़ती गई। मैं बड़ा उत्साहित था कि रास्ते में कोई खड्ड है। मुझे बचपन से ही बहते हुए पानी को देखने का बड़ा चाव था। नदियों, खड्डों का बहता पानी रोमांचित करता था। मगर खड्ड के पास पहुंचा तो पता चला कि यहां तो पानी है ही नहीं। कहीं-कहीं कुछ छपड़े बने हुए। बाकी गोल पत्थरों की भरमार। ऐसा लगता था मानो ये खड्ड पानी की खड्ड न होकर पत्थरों की खड्ड हो।

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खैर, इस सूखी खड्ड को पैदल पार किया। उन दिनों पुल ज्यादा होते नहीं थे और वैसे भी गर्मियों में पानी था नहीं। रात को लड़की वालों के घर पहुंचे। दूल्हा-दुल्हन की रस्मो-रिवाज चालू हो गए, बुजुर्ग नाचने में मशगूल हो गए, युवा शराब पीने में हम और हम बच्चे और टीनेजर धमा-चौकड़ी मचाने में। हम इधर-उधर दौड़ ही रहे थे कि अचानक शोर सुनाई दिया। सब उस तरफ भागे जहां वेदी थी। वहां तीन-चार लोगों ने दूल्हे को पकड़ा हुआ था और हवन सामग्री बिखरी हुई थी, हवनकुंड की लकड़ियां भी तितर-बितर थीं।

दूल्हे का चेहरा तमतमाया हुआ था। सेहरा उसने कहीं फेंक दिया था और मुंह से कुछ अजीब बड़बड़ा रहा था। मैं हैरान था कि संजू चाचू जो इतने शालीन, जो कभी गुस्सा नहीं होते, आखिर क्यों ऐसा कर रहे हैं। ये मंजर देखकर महिलाओं ने रोना शुरू कर दिया था। वर और वधु पक्ष के दोनों पंडित तरह-तरह के निर्देश दे रहे थे।

मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था। इतने में पापा आए और उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और जिस तरफ खाने खाने के लिए पंगत बैठ रही थी, वहां ले गए और बोला कि खाना खाओ मैं आता हूं। मैं खाना खाने लग गया मगर ध्यान वेदी की तरफ ही रहा। जहां से शोर, चिल्लाना और पता नहीं कैसी आवाजें आ रही थी।

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खैर, मैंने अपने साथ खाना खा रहे लोगों के मुंह से सुना कि ‘लाड़े जो झपट लगी ए।’ शोर-शराबा जारी रहा और आधे घंटे में शादी का माहौल रणक्षेत्र जैसा हो गया। खाना खाने के बाद मैं दूर से देखता रहा। दूल्हा बेहोश हो चुका था और दोनों पंडित कुछ मंत्र पढ़ रहे थे। फिर आधे घंटे में दूल्हे को होश आया तो वह बहुत शांत और थका हुआ था। इसके बाद पापा आए और मुझे बगल के घर में ले गए जहां बारातियों के सोने का इंतजाम किया गया था।

खैर, अगली सुबह उठा तो विवाह की रस्में हो चुकी थीं। ब्रेकफस्ट के लिए चाय और रोटियां और कुछ भटूरू खाए और विदाई का इंतजार होने लगा। विदाई की रस्में हुईं, दुल्हन का रोना, उसके परिजनों का रोना.. ये सब काम जारी थी। दुल्हन को पालकी पर बिठाया गया। कारवां आगे बढ़ा और जैसे-जैसे पालकी घर से दूर होती गई, दुल्हन के रोने की आवाज बढ़ती गई।

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ये वो दौर था जिसमें पूरी बारात में पुरुष ही हुआ करते थे। यानी 70-80 लोगों के बीच अकेली दुल्हन ही महिला होती थी। आजकल तो फिर भी महिलाएं भी बारात में जाती हैं और वापसी में दुल्हन के परिवार की बेटियां भी आती हैं। पहले सिर्फ दुल्हन के भाई आया करते थे बारात से वापस जिन्हें लधड़ कहा जाता है।

खैर, फिर से खड्ड में नीचे उतरे और सूखी खड्ड को वैसे ही पैदल पार किया जाना था। कहारों ने पालकी उठाई हुई थी। हम बच्चे उत्साह में आगे-आगे दौड़ रहे थे कि कौन बस तक पहले पहुंचेगा और सबसे आगे की सीट पर बैठने का मौका किसे मिलेगा। खैर, इतने में फिर से पीछे शोर सुनाई दिया। हम बच्चे भी कौतूहल में पीछे गए।

पीछे जाकर देखा कि पालकी एक जगह पर रुकी हुई है। और करीब से सुनाई दिया कि पालकी, जिसके ऊपर चादर डालकर चारों ओर से ढका गया था, उसके अंदर से गुर्राने की आवाज आ रही है। जैसे गुस्से में कोई गुर्राता है। लड़की के भाई ने पर्दा उठाया और  बहन से बात करने की कोशिश की मगर वह अपनी पालकी में रखे शीशे की तरफ देख रही थी और बड़ी-बड़ी आंखें करके बस गुर्राए जा रही थी।

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तभी एक और बात सुनने में आई कि पालकी आगे नहीं बढ़ रही है। कहारों का कहना था कि वो आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं मगर पालकी टस से मस नहीं हो रही। उनका कहना था कि पालकी भारी भी हो गई है। ये सुनना था कि लड़की के भाइयों ने और आसपास के लोगों ने भी पालकी को पकड़कर आगे बढ़ाना चाहा मगर वो एक ही जगह पर खड़ी थी। ज्यादा से ज्यादा कहार और बाकी लोग एक-दो कदम इधर-उधर चल पा रहे थे मगर जिस दिशा में रास्ता था, वहां पालकी नहीं जा रही थी।

आखिर में कहार थक गए और बोलने लगे कि जनाब बहुत भाई हो गई अब उठाया नहीं जा रहा हम नीचे रख देंगे। इस दौरान दुल्हन के गुर्राने की आवाज आ रही थी। सब इसी काम में व्यस्त थे, पालकी को खींचने की कोशिश कर रहे थे। कोई बुजुर्ग कैसी सलाह दे रहा था। पंडित को ढूंढने की कोशिश हुई तो पंडित मिल नहीं रहे थे।

किसी ने कहा कि पालकी जमीन पर मत रखना वरना गलत हो सकता है कुछ। मैं डर और आश्चर्य के भाव से ये सब देख रहा था। इतने में किसी बुजुर्ग ने कहा कि ‘लाड़े जो सद्दा, इसारा रा हाथ पकड़ाS…’.(दूल्हे को बुलाओ और कहो कि दुल्हन का हाथ पकड़े). दूल्हे की तलाश शुरू हुई जो पैदल की बारात के साथ चल रहा था। पता चला कि दूल्हा गायब है। तभी किसी का ध्यान खड्ड में दूर गया। वहां दूल्हा दौड़ लगा रहा था। जिस समय सब लोग पालकी को खींचने में व्यस्त थे, शायद दूल्हा उसी समय वहां से भाग गया था।

बारातियों में से कुछ लोग दूल्हे की तरफ दौड़े और बाकी लोग पालकी के साथ रस्साकशी करते रहे। इतने में दुल्हन ने पालकी के अंदर से भारी आवाज में हंसना शुरू कर दिया और बोलने लगी- मा नी जाणा देणी ए… मा नी जाणा देणी ए. (मैं इसे नहीं जाने दूंगा।) उस आवाज को सुनते ही मेरे तो प्राण ही सूख गए थे। इतनी डरावनी आवाज कभी मैंने नहीं सुनी थी।

इतने में एक बुजुर्ग आगे आया और बोला- हा कुण तू (कौन है तू)

पालकी के अंदर से आवाज आई- मैं कोई भी हा, मैं नी जाणा देणी ए (मैं कोई भी हूं, पर मैं इसे नहीं जाने दूंगा)

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इतने में कुछ लोग दूल्हे को पकड़कर लाए जो अजीब बोली में बड़बड़ा रहा था। वह आधी बेहोशी में लग रहा था। ये सारा सिलसिला शुरू हुए एक घंटा बीत चुका था। पालकी अपनी जगह से हिल नहीं रही थी, उसे जमीन पर भी नहीं रखा जा रहा था और बारात के लोग बारी-बारी उठा रहे थे और जोर आजमाइश कर रहे थे। सभी के चेहरे पर डर देखा जा सकता था।

इतने में कोई आदमी किसी स्थानीय चेले को बुला लाया। चेले ने आते ही कुछ मंत्र बुदबुदाए और पहले दूल्हे को टीका लगाया। दूल्हा होश में आया। चेले ने दूल्हे और बाकी लोगों से पूछा कि दूल्हे की कटार (तलवार या बरछा जो दूल्हा बारात में अपने साथ लेकर चलता है) कहां है। तो लोग ढूंढने लगे। एक करंडी में वो कटार मिल गई। चेले ने कटार पर लिपटा कपड़ा खोला और दूल्हे के हाथ में थमाकर बोला की पालकी का चक्कर लगा और फिर पालकी से छुआ इसको।

दूल्हे ने ठीक वैसे ही किया और अचानक दुल्हन की चीख सुनाई दी। इसके साथ ही पालकी उठाने वालों का संतुलन बिगड़ गया क्योंकि शायद वो जोर लगा रहे थे और अचानक पालकी हल्की हो गई थी। तो जैसे ही पालकी हिली चेले ने कहा कि तुरंत पालकी को खड्ड से बाहर ले जाओ। लोग लगभग दौड़ते हुए पालकी को खड्ड से बाहर ले गए और हल्की सी चढ़ाई चढ़कर रुके जहां पालकी जमीन पर रखी गई।

दुल्हन जो बेहोश हो चुकी थी, उसे होश में लाने के लिए पानी के छींटे मारे गए और पानी पिलाया गया। दुल्हन एकदम सामान्य थी और दूल्हा भी। आगे बारात आराम से लौट गई दुल्हन को लेकर। इसके बाद हमने दूल्हे के घर धाम खाई और पापा के साथ घर चले आए।

कुछ साल पहले मैंने पापा से पूछा इस घटना के बारे में। उन्होंने बताया था कि जिस खड्ड में ये सब हुआ था, उस खड्ड का नाम है- बक्कर खड्ड और माना जाता है कि उसमें भूत-प्रेत रहते हैं। उन्होंने बताया कि उस दिन जो चेला आया था जिसने खड्ड में मदद की थी, उसका कहना था कि कोई भूत दूल्हे को चिपक गया था शाम को और उसके कारण ही पहले रात को लड़की वालों के यहां दूल्हे ने यज्ञ से डरकर हवनकुंड को भंग करने की कोशिश की थी और फिर उसी भूत ने बीच खड्ड में पालकी को अपने साथियों के साथ मिलकर रोक लिया था और दूल्हे को भी अपने वश में ले लिया था।

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कहावत है- बक्कर खड्ड सभी खड्डां दी राणी, ह्यूंदा धुप ना तोंदिया पाणी, बरसाती जान किंया बचाणी।

उस चेले का कहना था कि अगर पालकी को जमीन पर रख दिया जाता तो दुल्हन की मौत भी हो सकती थी और दूल्हे पर किसी का ध्यान नहीं जाता तो शायद उसके साथ भी कुछ गलत हो जाता।

खैर, इस घटना के पीछे कारण क्या थे, ये मैं नहीं जानता। मगर जो मैंने देखा, वह सामान्य नहीं था। पापा ने ये भी बताया था कि उस घटना के बाद उन पति-पत्नी को कभी दोबारा ऐसी कोई दिक्कत नहीं हुई। मैं भी वैसे लंबे समय तक संजू अंकल और उनकी पत्नी के संपर्क में रहा था, मैंने भी नहीं सुना कि उन्हें ऐसा दोबारा कुछ हो। वैसे मैंने कई लोगों से बात की तो पता चला कि बड़े-बुजुर्ग मानते थे कि सरकाघाट में बक्कर खड्ड और खड़तासली नालों में बहुत से ऐसे भूत रहते हैं और वे आधी रात को खड्डों के किनारे इकट्ठा होकर खाना पकाते हैं। बुजुर्गों का कहना था कि ये भूत इंसान की खोपड़ी को बर्तन की तरह इस्तेमाल करके खाना पकाते हैं।

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पहले लोग दिन में अकेले बक्कर खड्ड में जाने से डरते थे मगर आज यहां अवैध खनन का जोर है

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DISCLAIMER: इन हिमाचल’ पिछले तीन सालों से ‘हॉरर एनकाउंटर’ सीरीज़ के माध्यम से हिमाचल प्रदेश से जुड़े भूत-प्रेत के रोमांचक किस्सों को जीवंत रखने की कोशिश कर रहा है। ऐसे ही किस्से हमारे बड़े-बुजुर्ग सुनाया करते थे। हम आमंत्रित करते हैं अपने पाठकों को कि वे अपने अनुभव भेजें। इसके लिए आप अपनी कहानियां inhimachal.in@gmail.com पर भेज सकते हैं। हम आपकी भेजी कहानियों को जज नहीं करेंगे कि वे सच्ची हैं या झूठी। हमारा मकसद अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है। हम बस मनोरंजन की दृष्टि से उन्हें पढ़ना-पढ़ाना चाहेंगे और जहां तक संभव होगा, चर्चा भी करेंगे कि अगर ऐसी घटना हुई होगी तो उसके पीछे की वैज्ञानिक वजह क्या हो सकती है। मगर कहानी में मज़ा होना चाहिए और रोमांच होना चाहिए।यह एक बार फिर स्पष्ट कर दें कि ‘In Himachal’ न भूत-प्रेत आदि पर यकीन रखता है और न ही इन्हें बढ़ावा देता है।

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